एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।16.22।।
।।16.22।। हे कौन्तेय नरक के इन तीनों द्वारों से विमुक्त पुरुष अपने कल्याण के साधन का आचरण करता है और इस प्रकार परा गति को प्राप्त होता है।।
।।16.22।। जो साधकगण काम? क्रोध और लोभ से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं? वे वास्तव में अभिनन्दन के पात्र हैं। भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें आश्वासन देते हैं कि इन अवगुणों के त्याग से उन्हें परम लक्ष्य की प्राप्ति होगी। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए मानसिक और बौद्धिक शक्तियों की आवश्यकता होती है? जो प्राय इन कामादि अवगुणों के कारण व्यर्थ ही क्षीण होती है। इसलिए नरक के इन त्रिविध द्वारों को त्यागने का उपदेश यहाँ दिया गया है। यही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है।श्रेयस् शब्द का अनुवाद नहीं किया जा सकता। संस्कृत के इस शब्द का आशय गंभीर और व्यापक है। श्रेयमार्ग के आचरण से न केवल साधक का ही कल्याण होता है? अपितु अपने आसपास के समाज के कल्याण में भी वह सहायक होता है।इस प्रकार सही दिशा में उन्नति करता हुआ साधक परम लक्ष्य को प्राप्त होता है। सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास कोई एक दिन में घटने वाली आकस्मिक घटना नहीं है। जिस प्रकार? एक फूल की कली शनै शनै खिलती जाती है? उसी प्रकार? अनुशासन? अध्ययन एवं सन्मार्ग के आचरण से पूर्णत्व की प्राप्ति तक का विकास शनै शनै होता है। फूल के विकास की अपेक्षा आत्मविकास कहीं अधिक नाजुक है।इस श्लोक में अवगुणों का त्याग से परा गति की प्राप्ति कही गयी है। परन्तु यहाँ पूछा जा सकता है कि त्याग के द्वारा योग (प्राप्ति) कैसे हो सकता है कुभोजन के त्याग मात्र से पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति कैसे संभव है भगवान् कहते हैं कि जो पुरुष इन अवगुणों का त्याग करता है? वह फिर? स्वाभाविक ही अपने आत्मकल्याण के मार्ग का भी अनुसरण करता है? जिसके फलस्वरूप उसे पूर्णत्व की प्राप्ति होती है।आसुरी सम्पदा के त्याग तथा श्रेय साधन के आचरण का उपाय धर्मशास्त्र में ही बताया गया है। इसलिए? शास्त्रों का अध्ययन करके तदनुसार आचरण ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है? परन्तु