एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।16.22।।
।।16.22।।हे कुन्तीनन्दन इन नरकके तीनों दरवाजोंसे रहित हुआ जो मनुष्य अपने कल्याणका आचरण करता है? वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
।।16.22।। व्याख्या -- एतैर्विमुक्तः कौन्तेय ৷৷. ततो याति परां गतिम् -- पूर्वश्लोकमें जिनको नरकका दरवाजा बताया गया है? उन्हीं काम? क्रोध और लोभको यहाँ तमोद्वार कहा गया है। तम् नाम अन्धकारका है? जो अज्ञानसे उत्पन्न होता है -- तमस्त्वज्ञानजं विद्धि (गीता 14। 8)। तात्पर्य है कि इन काम आदिके,कारण मेरे साथ ये धनसम्पत्ति? स्त्रीपुरुष? घरपरिवार आदि पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे और अब भी इनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है अतः इनमें ममता करनेसे आगे मेरी क्या दशा होगी आदि बातोंकी तरफ दृष्टि जाती ही नहीं अर्थात् बुद्धिमें अन्धकार छाया रहता है। अतः इन काम आदिसे मुक्त होकर जो अपने कल्याणका आचरण करता है? वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। इसलिये साधकको इस बातकी विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि वह काम? क्रोध और लोभ -- तीनोंसे सावधान रहे। कारण कि इन तीनोंको साथमें रखते हुए जो साधन करता है? वह वास्तवमें असली साधक नहीं है। असली साधक वह होता है? जो इन दोषोंको अपने साथ रहने ही नहीं देता। ये दोष उसको हर समय खटकते रहते हैं क्योंकि इनको साथमें रहनेका अवसर देना ही बड़ी भारी गलती है।मनुष्य साधनकी तरफ तो ध्यान देते हैं? पर साथमें जो कामक्रोधादि दोष रहते हैं? उनसे हमारा कितना अहित होता है -- इस तरफ वे ध्यान कम देते हैं। इस कमीके कारण ही साधन करते हुए सदाचार भी होते रहते हैं और दुराचार भी होते रहते हैं सद्गुण भी आते हैं और दुर्गुण भी साथ रहते हैं। जप? ध्यान? कीर्तन? सतसङ्ग? स्वाध्याय? तीर्थ? व्रत आदि करके हम अपनेको शुद्ध बना लेंगे -- ऐसा भाव साधकमें विशेष रहता है परन्तु जो हमें अशुद्ध कर रहे हैं? उन दुर्गुणदुराचारोंको हटानेका खयाल साधकमें कम रहता है? इसलिये --,आसुप्तेरामृते कालं नयेद् वेदान्तचिन्तया। न वा दद्यादवसरं कामादीनां मनागपि।।नींद खुलनेसे लेकर नींद आनेतक और जिस दिन पता लगे? उस दिनसे लेकर मौत आनेतक -- सबकासब समय परमात्मतत्त्वके (सगुणनिर्गुणके) चिन्तनमें ही लगाये। चिन्तनके सिवाय काम आदिको किञ्चिन्मात्र भी अवसर न दे।एतैर्विमुक्तः का यह मतलब नहीं है कि जब हम दुर्गुणदुराचारोंसे सर्वथा छूट जायँगे? तब साधन करेंगे किंतु साधकको भगवत्प्राप्तिका मुख्य उद्देश्य रखकर इनसे छूटनेका भी लक्ष्य रखना है। कारण कि झूठ? कपट? बेईमानी? काम? क्रोध आदि हमारे साथमें रहेंगे? तो नयीनयी अशुद्धि -- नयेनये पाप होते रहेंगे? जिससे साधनका साक्षात् लाभ नहीं होगा। यही कारण है कि वर्षोंतक साधनमें लगे रहनेपर भी साधक अपनी वास्तविक उन्नति नहीं देखते? उनको अपनेमें विशेष परिवर्तनका अनुभव नहीं होता। इन दोषोंसे रहित होनेपर शुद्धि स्वतःस्वाभाविक आती है। जीवमें अशुद्धि तो संसारकी तरफ लगनेसे ही आयी है? अन्यथा परमात्माका अंश होनेसे वह तो स्वतः ही शुद्ध है -- ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।(मानस 7। 117। 1)श्रेयः आचरति का तात्पर्य यह है कि काम? क्रोध और लोभ -- इनमेंसे किसीको भी लेकर आचरण नहीं होना चाहिये अर्थात् असाधन(निषिद्ध आचरण) से रहित शुद्ध साधन होना चाहिये। भीतरमें कभी कोई वृत्ति आ भी जाय? तो उसको आचरणमें न आने दे। अपनी तरफसे तो (काम? क्रोधादिकी) वृत्तियोंको दूर करनेका ही उद्योग करे। अगर अपने उद्योगसे न दूर हों तो हे नाथ हे नाथ हे नाथ ऐसे भगवान्को पुकारे। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं -- मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा।। अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा।।(विनयपत्रिका 125। 2 -- 3) सम्बन्ध -- जो अपने कल्याणके लिये शास्त्रविधिके अनुसार चलते हैं? उनको तो परमगतिकी प्राप्ति होती है? पर जो ऐसा न करके मनमाने ढङ्गसे आचरण करते हैं? उनकी क्या गति होती है -- यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।