तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।16.24।।
।।16.24।। इसलिए तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था (निर्णय) में शास्त्र ही प्रमाण है शास्त्रोक्त विधान को जानकर तुम्हें अपने कर्म करने चाहिए।।
।।16.24।। पूर्व के तीन श्लोकों में दी गई युक्तियों का यह निष्कर्ष निकलता है कि साधक को शास्त्र प्रमाण के अनुसार अपनी जीवन पद्धति अपनानी चाहिए। कर्तव्य और अकर्तव्य का निश्चय शास्त्राध्ययन के द्वारा ही हो सकता है। सत्य की प्राप्ति के मार्ग को निश्चित करने में प्रत्येक साधक अपनी ही कल्पनाओं का आश्रय नहीं ले सकता । शास्त्रों की घोषणा उन ऋषियों ने की है? जिन्होंने इस मार्ग के द्वारा पूर्णत्व का साक्षात्कार किया था। अत जब उन ऋषियों ने हमें उस मार्ग का मानचित्र दिया है? तो हमारे लिए यही उचित है कि विनयभाव से उसका अनुसरण कर स्वयं को कृतार्थ करें।ज्ञात्वा इसलिए आत्मदेव की तीर्थयात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व हमें इन शास्त्रों का बुद्धिमत्तापूर्वक अध्ययन करना चाहिए। लक्ष्य? मार्ग? विघ्न और विघ्न के निराकरण के उपायों का जानना किसी भी यात्रा के लिए अत्यावश्यक और लाभदायक होता है।तुम्हें कर्म करना चाहिए अनेक लोग शास्त्र को जानते हैं?परन्तु ऐसे अत्यन्त विरले लोग ही होते हैं? जिनमें शास्त्रोपदिष्ट जीवन जीने का साहस? दृढ़ संकल्प और आत्मानुभूति के लक्ष्य की प्राप्ति होने तक धैर्य बना रहता है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि काम? क्रोध और लोभ का त्याग कर मनुष्य को शास्त्रानुसार जीवन यापन करना चाहिए। यही कर्मयोग का जीवन है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसंपद्विभागयोगो नाम षोढशोऽध्याय।।