तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।16.3।।
।।16.3।।तेज (प्रभाव)? क्षमा? धैर्य? शरीरकी शुद्धि? वैरभावका न रहना और मानको न चाहना? हे भरतवंशी अर्जुन ये सभी दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
।।16.3।। हे भारत तेज? क्षमा? धैर्य? शौच (शुद्धि)? अद्रोह और अतिमान (गर्व) का अभाव ये सब दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।।
।।16.3।। व्याख्या -- तेजः -- महापुरुषोंका सङ्ग मिलनेपर उनके प्रभावसे प्रभावित होकर साधारण पुरुष भी दुर्गुणदुराचारोंका त्याग करके सद्गुणसदाचारोंमें लग जाते हैं। महापुरुषोंकी उस शक्तिको ही यहाँ,तेज कहा है। ऐसे तो क्रोधी आदमीको देखकर भी लोगोंको उसके स्वभावके विरुद्ध काम करनेमें भय लगता है परन्तु यह क्रोधरूप दोषका तेज है।साधकमें दैवी सम्पत्तिके गुण प्रकट होनेसे उसको देखकर दूसरे लोगोंके भीतर स्वाभाविक ही सौम्यभाव आते हैं अर्थात् उस साधकके सामने दूसरे लोग दुराचार करनेमें लज्जित होते हैं? हिचकते हैं और अनायास ही सद्भावपूर्वक सदाचार करने लग जाते हैं। यही उन दैवीसम्पत्तिवालोंका तेज (प्रभाव) है।क्षमा -- बिना कारण अपराध करनेवालेको दण्ड देनेकी सामर्थ्य रहते हुए भी उसके अपराधको सह लेना और उसको माफ कर देना क्षमा(टिप्पणी प0 798) है। यह क्षमा मोहममता? भय और स्वार्थको लेकर भी की जाती है जैसे -- पुत्रके अपराध कर देनेपर पिता उसे क्षमा कर देता है? तो यह क्षमा मोहममताको लेकर होनेसे शुद्ध नही है। इसी प्रकार किसी बलवान् एवं क्रूर व्यक्तिके द्वारा हमारा अपराध किये जानेपर हम भयवश उसके सामने कुछ नहीं बोलते? तो यह क्षमा भयको लेकर है। हमारी धनसम्पत्तिकी जाँचपड़ताल करनेके लिये इन्सपेक्टर आता है? तो वह हमें धमकाता है? अनुचित भी बोलता है और उसका ठहरना हमें बुरा भी लगता है तो भी स्वार्थहानिके भयसे हम उसके सामने कुछ नहीं बोलते? तो यह क्षमा स्वार्थको लेकर है। पर ऐसी क्षमा वास्तविक क्षमा नहीं है। वास्तविक क्षमा तो वही है? जिसमें हमारा अनिष्ट करनेवालेको यहाँ और परलोकमें भी किसी प्रकारका दण्ड न मिले -- ऐसा भाव रहता है।क्षमा माँगना भी दो रीतिसे होता है --,(1) हमने किसीका अपकार किया? तो उसका दण्ड हमें न मिले -- इस भयसे भी क्षमा माँगी जाती है परन्तु इस क्षमामें स्वार्थका भाव रहनेसे यह ऊँचे दर्जेकी क्षमा नहीं है।(2) हमसे किसीका अपराध हुआ? तो अब यहाँसे आगे उम्रभर ऐसा अपराध फिर कभी नहीं करूँगा -- इस भावसे जो क्षमा माँगी जाती है? वह अपने सुधारकी दृष्टिको लेकर होती है और ऐसी क्षमा माँगनेसे ही मनुष्यकी उन्नति होती है।मनुष्य क्षमाको अपनेमें लाना चाहे तो कौनसा उपाय करे यदि मनुष्य अपने लिये किसीसे किसी प्रकारके सुखकी आशा न रखे और अपना अपकार करनेवालेका बुरा न चाहे? तो उसमें क्षमाभाव प्रकट हो जाता है।धृतिः -- किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिमें विचलित न होकर अपनी स्थितिमें कायम रहनेकी शक्तिका नाम धृति (धैर्य) है (गीता 18। 33)।वृत्तियाँ सात्त्विक होती हैं तो धैर्य ठीक रहता है और वृत्तियाँ राजसीतामसी होती हैं तो धैर्य वैसा नहीं रहता। जैसे बद्रीनारायणके रास्तेपर चलनेवालेके लिये कभी गरमी? चढ़ाई आदि प्रतिकूलताएँ आती हैं और कभी ठण्डक? उतराई आदि अनुकूलताएँ आती हैं? पर चलनेवालेको उन प्रतिकूलताओं और अनूकूलताओंको देखकर ठहरना नहीं है? प्रत्युत हमें तो बद्रीनारायण पहुँचना है -- इस उद्देश्यसे धैर्य और तत्परतापूर्वक चलते रहना है। ऐसे ही साधकको अच्छीमन्दी वृत्तियों और अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंकी ओर देखना ही नहीं चाहिये। इनमें उसे धीरज धारण करना चाहिये क्योंकि जो अपना उद्देश्य सिद्ध करना चाहता है? वह मार्गमें आनेवाले सुख और दुःखको नहीं देखता -- मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्।।(भर्तृहरिनीतिशतक)शौचम् -- बाह्यशुद्धि एवं अन्तःशुद्धिका नाम शौच है (टिप्पणी प0 799.1)। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखनेवाला साधक बाह्यशुद्धिका भी खयाल रखता है क्योंकि बाह्यशुद्धि रखनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि स्वतः होती है और अन्तःकरण शुद्ध होनेपर बाह्यअशुद्धि उसको सुहाती नहीं। इस विषयपर पतञ्जलि महाराजने कहा है -- शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।(योगदर्शन 2। 40)शौचसे साधककी अपने शरीरमें घृणा अर्थात् अपवित्रबुद्धि और दूसरोंसे संसर्ग न करनेकी इच्छा होती है। तात्पर्य यह है कि अपने शरीरको शुद्ध रखनेसे शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान होता है। शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान होनेसे सम्पूर्ण शरीर इसी तरहके हैं -- इसका बोध होता है। इस बोधसे दूसरे शरीरोंके प्रति जो आकर्षण होता है? उसका अभाव हो जाता है अर्थात् दूसरे शरीरोंसे सुख लेनेकी इच्छा मिट जाती है।बाह्यशुद्धि चार प्रकारसे होती है -- (1) शारीरिक (2) वाचिक? (3) कौटुम्बिक और (4) आर्थिक।(1) शारीरिक शुद्धि -- प्रमाद? आलस्य? आरामतलबी? स्वादशौकीनी आदिसे शरीर अशुद्ध हो जाता है और इनके विपरीत कार्यतत्परता? पुरुषार्थ? उद्योग? सादगी आदि रखते हुए आवश्यक कार्य करनेपर शरीर शुद्ध हो जाता है। ऐसे ही जल? मृत्तिका आदिसे भी शारीरिक शुद्धि होती है।(2) वाचिक शुद्धि -- झूठ बोलने? कड़ुआ बोलने? वृक्षा बकवाद करने? निन्दा करने? चुगली करने आदिसे वाणी अशुद्ध हो जाती है। इन दोषोंसे रहित होकर सत्य? प्रिय एवं हितकारक आवश्यक वचन बोलना (जिससे दूसरोंकी पारमार्थिक उन्नति होती हो और देश? ग्राम? मोहल्ले? परिवार? कुटुम्ब आदिका हित होता हो) और अनावश्यक बात न करना -- यह वाणीकी शुद्धि है।(3) कौटुम्बिक शुद्धि -- अपने बालबच्चोंको अच्छी शिक्षा देना जिससे उनका हित हो? वही आचरण करना कुटुम्बियोंका हमपर जो न्याययुक्त अधिकार है? उसको अपनी शक्तिके अनुसार पूरा करना कुटुम्बियोंमें किसीका पक्षपात न करके सबका समानरूपसे हित करना -- यह कौटुम्बिक शुद्धि है।(4) आर्थिक शुद्धि -- न्याययुक्त? सत्यतापूर्वक? दूसरोंके हितका बर्ताव करते हुए जिस धनका उपार्जन किया गया है? उसको यथाशक्ति? अरक्षित? अभावग्रस्त? दरिद्री? रोगी? अकालपीड़ित? भूखे आदि आवश्यकतावालोंको देनेसे एवं गौ? स्त्री? ब्राह्मणोंकी रक्षामें लगानेसे द्रव्यकी शुद्धि होती है।त्यागीवैरागीतपस्वी सन्तमहापुरुषोंकी सेवामें लगानेसे एवं सद्ग्रन्थोंको सरल भाषामें छपवाकर कम मूल्यमें देनेसे तथा उनका लोगोंमें प्रचार करनेसे धनकी महान् शुद्धि हो जाती है।परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य हो जानेपर अपनी (स्वयंकी) शुद्धि हो जाती है। स्वयंकी शुद्धि होनेपर शरीर? वाणी? कुटुम्ब? धन आदि सभी शुद्ध एवं पवित्र होने लगते हैं। शरीर आदिके शुद्ध हो जानेसे वहाँका स्थान? वायुमण्डल आदि भी शुद्ध हो जाते हैं। बाह्यशुद्धि और पवित्रताका खयाल रखनेसे शरीरकी वास्तविकता अनुभवमें आ जाती है? जिससे शरीरसे अंहताममता छोड़नेमें सहायता मिलती है। इस प्रकार यह साधन भी परमात्मप्राप्तिमें निमित्त बनता है।अद्रोहः -- बिना कारण अनिष्ट करनेवालेके प्रति भी अन्तःकरणमें बदला लेनेकी भावनाका न होना अद्रोह (टिप्पणी प0 799.2) है। साधारण व्यक्तिका कोई अनिष्ट करता है? तो उसके मनमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति द्वेषकी एक गाँठ बँध जाती है कि मौका पड़नेपर मैं इसका बदला ले ही लूँगा किन्तु जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है? उस साधकका कोई कितना ही अनिष्ट क्यों न करे? उसके मनमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति बदला लेनेकी भावना ही पैदा नहीं होती। कारण कि कर्मयोगका साधक सबके हितके लिये कर्तव्यकर्म करता है? ज्ञानयोगका साधक सबको अपना स्वरूप समझता है और भक्तियोगका साधक सबमें अपने इष्ट भगवान्को समझता है। अतः वह किसीके प्रति कैसे द्रोह कर सकता है।निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।(मानस 7। 112 ख) नातिमानिता -- एक मानिता होती है और एक अतिमानिता होती है। सामान्य व्यक्तियोंसे मान चाहना मानिता है और जिनसे हमने शिक्षा प्राप्त की? जिनका आदर्श ग्रहण किया और ग्रहण करना चाहते हैं? उनसे भी अपना मान? आदरसत्कार चाहना अतिमानिता है। इन मानिता और अतिमानिताका न होना,नातिमानिता है।स्थूल दृष्टिसे मानिता के दो भेद होते हैं --(1) सांसारिक मानिता -- धन? विद्या? गुण? बुद्धि? योग्यता? अधिकार? पद? वर्ण? आश्रम आदिको लेकर दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें एक श्रेष्ठताका भाव होता है कि मैं साधारण मनुष्योंकी तरह थोड़े ही हूँ? मेरा कितने लोग आदरसत्कार करते हैं वे आदर करते हैं तो यह ठीक ही है क्योंकि मैं आदर पानेयोग्य ही हूँ -- इस प्रकार अपने प्रति जो मान्यता होती है? वह सांसारिक मानिता कहलाती है।(2) पारमार्थिक मानिता -- प्रारम्भिक साधनकालमें जब अपनेमें कुछ दैवीसम्पत्ति प्रकट होने लगती है? तब साधकको दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें कुछ विशेषता दीखती है। साथ ही दूसरे लोग भी उसे परमात्माकी ओर चलनेवाला साधक मानकर उसका विशेष आदर करते हैं और साथहीसाथ ये साधन करनेवाले हैं? अच्छे सज्जन हैं -- ऐसी प्रशंसा भी करते हैं। इससे साधकको अपनेमें विशेषता मालूम देती है? पर वास्तवमें यह विशेषता अपने साधनमें कमी होनेके कारण ही दीखती है। यह विशेषता दीखना पारमार्थिक मानिता है।जबतक अपनेमें व्यक्तित्व (एकदेशीयता? परिछिन्नता) रहता है? तभीतक अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दिखायी दिया करती है। परन्तु ज्योंज्यों व्यक्तित्व मिटता चला जाता है? त्योंहीत्यों साधकका दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषताका भाव मिटता चला जाता है। अन्तमें इन सभी मानिताओंका अभाव होकर साधकमें दैवीसम्पत्तिका गुण नातिमानिता प्रकट हो जाती है।दैवीसम्पत्तिके जितने सद्गुणसदाचार हैं? उनको पूर्णतया जाग्रत् करनेका उद्देश्य तो साधकका होना ही चाहिये। हाँ? प्रकृति(स्वभाव) की भिन्नतासे किसीमें किसी गुणकी कमी? तो किसीमें किसी गुणकी कमी रह सकती है। परन्तु वह कमी साधकके मनमें खटकती रहती है और वह प्रभुका आश्रय लेकर अपने साधनको तत्परतासे करते रहता है अतः भगवत्कृपासे वह कमी मिटती जाती है। कमी ज्योंज्यों मिटती जाती है? त्योंत्यों उत्साह और उस कमीके उत्तरोत्तर मिटनेकी सम्भावना भी बढ़ती जाती है। इससे दुर्गुणदुराचार सर्वथा नष्ट होकर सद्गुणसदाचार अर्थात् दैवीसम्पत्ति प्रकट हो जाती है।भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत -- भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ये सभी दैवीसम्पत्तिको प्राप्त हुए मनुष्योंके लक्षण हैं।परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेपर ये दैवीसम्पत्तिके लक्षण साधकमें स्वाभाविक ही आने लगते हैं। कुछ लक्षण पूर्वजन्मोंके संस्कारोंसे भी जाग्रत् होते हैं। परन्तु साधक इन गुणोंको अपने नहीं मानता और न उनको अपने पुरुषार्थसे उपार्जित ही मानता है? प्रत्युत गुणोंके आनेमें वह भगवान्की ही कृपा मानता है। कभी खयाल करनेपर साधकके मनमें ऐसा विचार होता है कि मेरेमें पहले तो ऐसी वृत्तियाँ नहीं थीं? ऐसे सद्गुण नहीं थे? फिर ये कहाँसे आ गये तो ये सब भगवान्की कृपासे ही आये हैं -- ऐसा अनुभव होनेसे उस साधकको दैवीसम्पत्तिका अभिमान नहीं आता।साधकको दैवीसम्पत्तिके गुणोंको अपने नहीं मानना चाहिये क्योंकि यह देव -- परमात्माकी सम्पत्ति है? व्यक्तिगत (अपनी) किसीकी नहीं है। यदि व्यक्तिगत होती? तो यह अपनेमें ही रहती? किसी अन्य व्यक्तिकी नहीं रहती। इसको व्यक्तिगत माननेसे ही अभिमान आता है। अभिमान आसुरीसम्पत्तिका मुख्य लक्षण है। अभिमानकी छायामें ही आसुरीसम्पत्तिका मुख्य लक्षण है। अभिमानकी छायामें ही आसुरीसम्पत्तिके सभी अवगुण रहते हैं। यदि दैवीसम्पत्तिसे आसुरीसम्पत्ति (अभिमान) पैदा हो जाय? तो फिर आसुरीसम्पत्ति कभी मिटेगी ही नहीं। परन्तु दैवीसम्पत्तिसे आसुरीसम्पत्ति कभी पैदा नहीं होती? प्रत्युत दैवीसम्पत्तिके गुणोंके साथसाथ आसुरीसम्पत्तिके जो अवगुण रहते हैं? उनसे ही गुणोंका अभिमान पैदा होता है अर्थात् साधनके साथ कुछकुछ असाधन रहनेसे ही अभिमान आदि दोष पैदा होते हैं। जैसे? किसीको सत्य बोलनेका अभिमान होता है? तो उसके मूलमें वह सत्यके साथसाथ असत्य भी बोलता है? जिसके कारण सत्यका अभिमान आता है। तात्पर्य यह है कि दैवीसम्पत्तिके गुणोंको अपना माननेसे एवं गुणोंके साथ अवगुण रहनेसे ही अभिमान आता है। सर्वथा गुण आनेपर गुणोंका अभिमान हो ही नहीं सकता।यहाँ दैवीसम्पत्ति कहनेका तात्पर्य है कि यह भगवान्की सम्पत्ति है। अतः भगवान्का सम्बन्ध होनेसे? उनका आश्रय लेनेसे शरणागत भक्तमें यह स्वाभाविक ही आती है। जैसे शबरीके प्रसङ्गमें रामजीने कहा है --,नवधा भगति कहउँ तोहिं पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।(मानस 3। 35 -- 36)मनुष्यदेवता? भूतपिशाच? पशुपक्षी? नारकीय जीव? कीटपतङ्ग? लतावृक्ष आदि जितने भी स्थावरजङ्गम प्राणी हैं? उन सबमें अपनीअपनी योनिके अनुसार मिले हुए शरीरोंके रुग्ण एवं जीर्ण हो जानेपर भी मैं जीता रहूँ? मेरे प्राण बने रहें -- यह इच्छा बनी रहती है (टिप्पणी प0 801)। इस इच्छाका होना ही आसुरीसम्पत्ति है।त्यागीवैरागी साधकमें भी प्राणोंके बने रहनेकी इच्छा रहती है परन्तु उसमें प्राणपोषणबुद्धि? इन्द्रियलोलुपता नहीं रहती क्योंकि उसका उद्देश्य परमात्मा होता है? न कि शरीर और संसार।जब साधक भक्तका भगवान्में प्रेम हो जाता है? तब उसको भगवान् प्राणोंसे भी प्यारे लगते हैं। प्राणोंका मोह न रहनेसे उसके प्राणोंका आधार केवल भगवान् हो जाते हैं। इसलिये वह भगवान्को प्राणनाथ प्राणेश्वर प्राणप्रिय आदि सम्बोधनोंसे पुकारता है। भगवान्का वियोग न सहनेसे उसके प्राण भी छूट सकते हैं। कारण कि मनुष्य जिस वस्तुको प्राणोंसे भी बढ़कर मान लेता है? उसके लिये यदि प्राणोंका त्याग करना पड़े तो वह सहर्ष प्राणोंका त्याग कर देता है जैसे -- पतिव्रता स्त्री पतिको प्राणोंसे भी बढ़कर (प्राणनाथ) मानती है? तो उसका प्राण? शरीर? वस्तु? व्यक्ति आदिमें मोह नहीं रहता। इसीलिये पतिके मरनेपर वह उसके वियोगमें प्रसन्नतापूर्वक सती हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि जब केवल भगवान्में अनन्य प्रेम हो जाता है?,तो फिर प्राणोंका मोह नहीं रहता। प्राणोंका मोह न रहनेसे आसुरीसम्पत्ति सर्वथा मिट जाती है और दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट हो जाती है। इसी बातका संकेत गोस्वामी तुलसीदाजसी महाराजने इस प्रकार किया है -- प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।(मानस 7। 49। 3) सम्बन्ध -- अबतक एक परमात्माका ही उद्देश्य रखनेवालोंकी दैवीसम्पत्ति बतायी परन्तु सांसारिक भोग भोगना और संग्रह करना ही जिनका उद्देश्य है? ऐसे प्राणपोषणपरायण लोगोंकी कौनसी सम्पत्ति होती है -- इसे अब आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।16.3।। तेज यह केवल मुखमण्डल की ही आभा नहीं है? जो पौष्टिक आहार और पर्याप्त विश्राम से प्राप्त होती है। तेज शब्द से ज्ञानी पुरुष के मात्र शारीरिक सौन्दर्य या तेज से ही अभिप्राय नहीं है। अध्यात्म की आभा कोई ऐसा प्रभामण्डल नहीं है? जो ज्ञानी के मुख के चारों ओर अग्निवृत के समान जगमगाता हो। तत्त्वदर्शी ऋषि का तेज है? उसकी बुद्धि की प्रतिभा? नेत्रों में जगमगाता आनन्द? सन्तप्त हृदयों को शीतलता प्रदान करने वाली शान्ति की सुरभि? कर्मों में उसका अविचलित सन्तुलन? प्राणिमात्र के प्रति उसके हृदय में स्थित प्रेम का आनन्द और उसके अन्तरतम से प्रकाशित आनन्द का प्रकाश। यह तेज ही उस ऋषि के व्यक्तित्व का प्रबल आकर्षण होता है? जो प्रचुर शक्ति और उत्साह के साथ सब की सेवा करता है और उसी में स्वयं को धन्य समझता है।क्षमा जिस सन्दर्भ में इस गुण का उल्लेख किया गया है? उससे इसका अर्थ गाम्भीर्य बढ़ जाता है। सामान्य दुख और कष्ट? अपमान और पीड़ा को धैर्यपूर्वक सहन करनै की क्षमता ही क्षमा का सम्पूर्ण अर्थ नहीं है। बाह्य जगत् के अत्यधिक शक्तिशाली विरोध तथा उत्तेजित करने वाली परिस्थितयों के होने पर भी उनका सामना करने का सूक्ष्म कोटि का साहस और अविचलित शान्ति का नाम क्षमा है।धृति जब कोई व्यक्ति साहसपूर्वक जीना चाहता है? तब वह अपने जीवन में सदैव सुखद वातावरण? अनुकूल परिस्थितयाँ और अपने कार्य में सफलता के सहायक सुअवसरों को प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं कर सकता है। सामान्यत? एक दुर्बल व्यक्तित्व के पुरुष को अचानक निराशा आकर घेर लेती है और वह कार्य को अपूर्ण ही छोड़कर अपने कार्य क्षेत्र से निवृत्त हो जाता है। अनेक लोग तो ऐसे समय हतोत्साह होकर कार्य को त्याग देते हैं? जब विजयश्री उन्हें वरमाला पहनाने को तत्पर हो रही होती है निश्चल भाव से कार्यरत रहने के लिए मनुष्य को एक अतिरिक्त शक्ति की आवश्यकता होती है? जिसके द्वारा वह अपनी क्लान्त और श्रान्त आस्था काे पोषित कर दृढ़ बना सकता है। पुन एक युक्त पुरुष में निहित वह गुप्त शक्ति है धृति अर्थात् धैर्य। श्रद्धा की शक्ति? लक्ष्य में आस्था? उद्देश्य की एकरूपता? आदर्श का स्पष्ट दर्शन और त्याग की साहसिक भावना ये सब वे शक्ति श्रोत हैं? जहाँ से धृति की बूंदें रिसती हुई प्रवाहित होकर श्रम? अवसाद एवं निराशा आदि का परिहार करती हैं।शौचम् (शुद्धि) यह शब्द न केवल अन्तकरण के विचारों एवं उद्देश्यों की शुद्धि को इंगित करता है? वरन् इसके द्वारा वातावरण की शुद्धि? अपने वस्त्रों की और वस्तुओं की स्वच्छता भी सूचित की गयी है। आन्तरिक शुद्धि पर ही अत्यधिक बल देने के फलस्वरूप हम अपने समाज में बाह्य शुद्धि की सर्वथा उपेक्षा की जाते हुए देखते हैं। वस्त्रों की तथा नगर की स्वच्छता हमारे राष्ट्र में दुर्लभ हो गयी है। यद्यपि हमारे धर्म में साधक के लिए शुद्धि और स्वच्छता इन दोनों को ही अपरिहार्य बताया गया है? तथापि धर्णप्राण भक्तगण भी इनके प्रति उदासीन ही दिखाई देते हैं।अद्रोह अहिंसा का अर्थ है? किसी को भी पीड़ा न पहुँचाना और अद्रोह का अर्थ है मन में कभी हिंसा का भाव न उठना। जैसे? कोई भी व्यक्ति कभी स्वप्न में भी स्वयं को पीड़ित करने का विचार नहीं करता? वैसे ही आत्मैकत्व का बोध प्राप्त पुरुष के मन में किसी के प्रति भी द्रोह की भावना नहीं आती? क्योंकि अन्य को कष्ट देने का अर्थ स्वयं को ही पीड़ित करना है।न अतिमानिता इसका अर्थ है स्वयं की पूजनीयता के विषय में अतिशयोक्ति पूर्ण विचार न रखना। अतिमान के नहीं होने पर मनुष्य स्वयं को तत्काल ही सहस्रों अपरिहार्य उत्तेजनाओं से तथा अनावश्यक उत्तरदायित्वों से मुक्त कर सकता है। गर्वमुक्त पुरुष के लिए जीवन पक्षी के पंख के समान भारहीन होता है? जबकि एक अतिमानी पुरुष के लिए अपना जीवन प्राणदण्ड की शूली के समान बन जाता है? जिसे अत्यन्त कष्टपूर्वक वहन करते हुए उसे चलना पड़ता है? जब कि वह शूली उसके कंधों के मांस को निर्दयतापूर्वक छील रही होती है।उपर्युक्त छब्बीस गुण दैवीसम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति के स्वभाव का पूर्ण चित्रण करते हैं। पूर्णत्व प्राप्ति के सभी इच्छुक साधकों के मार्गदर्शन के रूप में इन गुणों का यहाँ उल्लेख किया गया है। जिस मात्रा में? उपर्युक्त दैवीगुणों के अनुरूप हम अपने जीवन को पुर्नव्यवस्थित करने में सक्षम होते हैं और जीवन की ओर देखने के अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकते हैं? उसी मात्रा में हम अपनी शक्तियों के निष्प्रयोजक व्यय को अवरुद्ध कर उन्हें सुरक्षित रख सकते हैं। इन जीवन मूल्यों का सम्मान करते हुए उन्हें जीने का अर्थ ही सम्यक् जीवन पद्धति को अपनाना है।अब? आसुरी सम्पदा का वर्णन करते हैं