दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।
।।16.4।।हे पृथानन्दन दम्भ करना? घमण्ड करना? अभिमान करना? क्रोध करना? कठोरता रखना और अविवेकका होना भी -- ये सभी आसुरीसम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
।।16.4।। हे पार्थ दम्भ? दर्प? अभिमान? क्रोध? कठोर वाणी (पारुष्य) और अज्ञान यह सब आसुरी सम्पदा है।।
।।16.4।। व्याख्या -- दम्भः -- मान? बड़ाई? पूजा? ख्याति आदि प्राप्त करनेके लिये? अपनी वैसी स्थिति न होनेपर भी वैसी स्थिति दिखानेका नाम दम्भ है। यह दम्भ दो प्रकारसे होता है --,(1) सद्गुणसदाचारोंको लेकर -- अपनेको धर्मात्मा? साधक? विद्वान्? गुणवान् आदि प्रकट करना अर्थात् अपनेमें वैसा आचरण न होनेपर भी अपनेमें श्रेष्ठ गुणोंको लेकर वैसा आचरण दिखाना? थोड़ा होनेपर भी ज्यादा दिखाना? भोगी होनेपर भी अपनेको योगी दिखाना आदि दिखावटी भावों और क्रियाओंका होना -- यह सद्गुणसदाचारोंको लेकर दम्भ है।(2) दुर्गुणदुराचारोंको लेकर -- जिसका आचरण? खानपान स्वाभाविक अशुद्ध नहीं है? ऐसा व्यक्ति भी जिनके आचरण? खानपान अशुद्ध हैं -- ऐसे दुर्गुणीदुराचारी लोगोंमें जाकर उनको राजी करके अपनी इज्जत जमानेके लिये? मानआदर आदि प्राप्त करनेके लिये? अपने मनमें बुरा लगनेपर भी वैसा आचरण? खानपान कर बैठता है -- यह दुर्गुणदुराचारोंको लेकर दम्भ है।तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य प्राण? शरीर? धन? सम्पत्ति? आदर? महिमा आदिको प्रधानता देने लगता है? तब उसमें दम्भ आ जाता है।दर्पः -- घमण्डका नाम दर्प है। धनवैभव? जमीनजायदाद? मकानपरिवार आदि ममतावाली चीजोंको लेकर अपनेमें जो बड़प्पनका अनुभव होता है? वह दर्प है। जैसे -- मेरे पास इतना धन है मेरा इतना बड़ा परिवार है मेरा इतना राज्य है मेरे पास इतनी जमानजायदाद है मेरे पीछे इतने आदमी हैं मेरी आवाजके पीछे इतने आदमी बोलते हैं मेरे पक्षमें बहुत आदमी हैं धनसम्पत्तिवैभवमें मेरी बराबरी कौन कर सकता है मेरे पास ऐसेऐसे पद हैं? अधिकार हैं संसारमें मेरा कितना यश? प्रतिष्ठा हो रही है मेरे बहुत अनुयायी हैं मेरा सम्प्रदाय कितना ऊँचा है मेरे गुरुजी कितने प्रभावशाली हैं आदिआदि।अभिमानः -- अहंतावाली चीजोंको लेकर अर्थात् स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरको लेकर अपनेमें जो बड़प्पनका अनुभव होता है? उसका नाम अभिमान है (टिप्पणी प0 802.1)। जैसे -- मैं जातिपाँतिमें कुलीन हूँ मैं वर्णआश्रममें ऊँचा हूँ हमारी जातिमें हमारी प्रधानता है गाँवभरमें हमारी बात चलती है अर्थात् हम जो कह देंगे? उसको सभी मानेंगे हम जिसको सहारा देंगे? उस आदमीसे विरुद्ध चलनेमें सभी लोग भयभीत होंगे और हम जिसके विरोधी होंगे? उसका साथ देनेमें भी सभी लोग भयभीत होंगे राजदरबारमें भी हमारा आदर है? इसलिये हम जो कह देंगे? उसे कोई टालेगा नहीं हम न्यायअन्याय जो कुछ भी करेंगे? उसको कोई टाल नहीं सकता? उसका कोई विरोध नहीं कर सकता मैं बड़ा विद्वान् हूँ? मैं अणिमा? महिमा? गरिमा आदि सिद्धियोंको जानता हूँ? इसलिये सारे संसारको उथलपुथल कर सकता हूँ? आदिआदि।क्रोधः -- दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? उसका नाम,क्रोध है।मनुष्यके स्वभावके विपरीत कोई काम करता है तो उसका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें उत्तेजना होकर जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? वह क्रोध है। क्रोध और क्षोभमें अन्तर है। बच्चा उद्दण्डता करता है? कहना नहीं मानता? तो मातापिता उत्तेजनामें आकर उसको ताड़ना करते हैं -- यह उनका क्षोभ (हृदयकी हलचल) है? क्रोध नहीं। कारण कि उनमें बच्चेका अनिष्ट करनेकी भावना होती ही नहीं? प्रत्युत बच्चेके हितकी भावना होती है। परंतु यदि उत्तेजनामें आकर दूसरेका अनिष्ट? अहित करके उसे दुःख देनेमें सुखका अनुभव होता है? तो यह क्रोध है। आसुरी प्रकृतिवालोंमें यही क्रोध होता है।क्रोधके वशीभूत होकर मनुष्य न करनेयोग्य काम भी कर बैठता है? जिसके फलस्वरूप स्वयं उसको पश्चात्ताप करना पड़ता है। क्रोधी व्यक्ति उत्तेजनामें आकर दूसरोंका अपकार तो करता है? पर क्रोधसे स्वयं उसका अपकार कम नहीं होता क्योंकि अपना अनिष्ट किये बिना क्रोधी व्यक्ति दूसरेका अनिष्ट कर ही नहीं सकता। इसमें भी एक मर्मकी बात है कि क्रोधी व्यक्ति जिसका अनिष्ट करता है? उसका किन्हीं दुष्कर्मोंका जो फल भोगरूपसे आनेवाला है? वही होता है अर्थात् उसका कोई नया अनिष्ट नहीं हो सकता परंतु क्रोधी व्यक्तिका दूसरेका अनिष्ट करनेकी भावनासे और अनिष्ट करनेसे नया पापसंग्रह हो जायगा तथा उसका स्वभाव भी बिगड़ जायगा। यह स्वभाव उसे नरकोंमें ले जानेका हेतु बन जायगा और वह जिस योनिमें जायगा? वहीं उसे दुःख देगा।क्रोध स्वयंको ही जलाता है (टिप्पणी प0 802.2)। क्रोधी व्यक्तिकी संसारमें अच्छी ख्याति नहीं होती? प्रत्युत निन्दा ही होती है। खास अपने घरके आदमी भी क्रोधीसे डरते हैं। इसी अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने क्रोधको नरकोंका दरवाजा बताया है। जब मनष्यके स्वार्थ और अभिमानमें बाधा पड़ती है? तब क्रोध पैदा होता है। फिर क्रोधसे सम्मोह? सम्मोहसे स्मृतिविभ्रम? स्मृतिविभ्रमसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता 2। 62 -- 63)।पारुष्यम् -- कठोरताका नाम पारुष्य है। यह कई प्रकारका होता है जैसे -- शरीरसे अकड़कर चलना? टेढ़े चलना -- यह शारीरिक पारुष्य है। नेत्रोंसे टेढ़ामेढ़ा देखना -- यह नेत्रोंका पारुष्य है। वाणीसे कठोर बोलना? जिससे दूसरे भयभीत हो जायँ -- यह वाणीका पारुष्य है। दूसरोंपर आफत? संकट? दुःख आनेपर भी उनकी सहायता न करके राजी होना आदि जो कठोर भाव होते हैं? यह हृदयका पारुष्य है।जो शरीर और प्राणोंके साथ एक हो गये हैं? ऐसे मनुष्योंको यदि दूसरोंकी क्रिया? वाणी बुरी लगती है? तो उसके बदलेमें वे उनको कठोर वचन सुनाते हैं? दुःख देते हैं और स्वयं राजी होकर कहते हैं कि आपने देखा कि नहीं मैंने उसके साथ ऐसा कड़ा व्यवहार किया कि उसके दाँत खट्टे कर दिये अब वह मेरे साथ बोल सकता है क्या यह सब व्यवहारका पारुष्य है।स्वार्थबुद्धिकी अधिकता रहनेके कारण मनुष्य अपना मतलब सिद्ध करनेके लिये? अपनी क्रियाओंसे दूसरोंको कष्ट होगा? उनपर कोई आफत आयेगी -- इन बातोंपर विचार ही नहीं कर सकता। हृदयमें कठोर भाव होनेसे वह केवल अपना मतलब देखता है और उसके मन? वाणी? शरीर? बर्ताव आदि सब जगह कठोरता रहती है। स्वार्थभावकी बहुत ज्यादा वृत्ति बढ़ती है? तो वह हिंसा आदि भी कर बैठता है? जिससे उसके स्वभावमें स्वाभाविक ही क्रूरता आ जाती है। क्रूरता आनेपर हृदयमें सौम्यता बिलकुल नहीं रहती। सौम्यता न रहनेसे उसके बर्तावमें? लेनदेनमें स्वाभाविक ही कठोरता रहती है। इसलिये वह केवल दूसरोंसे रुपये ऐँठने? दूसरोंको दुःख देने आदिमें लगा रहता है। इनके परिणाममें मुझे सुख होगा या दुःख -- इसका वह विचार ही नहीं कर सकता।अज्ञानम् -- यहाँ अज्ञान नाम अविवेकका है। अविवेकी पुरुषोंको सत्असत्? सारअसार? कर्तव्यअकर्तव्य आदिका बोध नहीं होता। कारण कि उनकी दृष्टि नाशवान् पदार्थोंके भोग और संग्रहपर ही लगी रहती है। इसलिये (परिणामपर दृष्टि न रहनेसे) वे यह सोच ही नहीं सकते कि ये नाशवान् पदार्थ कबतक हमारे साथ रहेंगे और हम कबतक इनके साथ रहेंगे। पशुओंकी तरह केवल प्राणपोषणमें ही लगे रहनेके कारण वे क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है -- इन बातोंको नहीं जान सकते और न जानना ही चाहते हैं।वे तात्कालिक संयोगजन्य सुखको ही सुख मानते हैं और शरीर तथा इन्द्रियोंके प्रतिकूल संयोगको ही दुःख मानते हैं। इसलिये वे उद्योग तो सुखके लिये ही करते हैं? पर परिणाममें उनको पहलेसे भी अधिक दुःख मिलता है (टिप्पणी प0 803.1)। फिर भी उनको चेत नहीं होता कि इसका हमारे लिये नतीजा क्या होगा वे तो मानबड़ाई? सुखआराम? धनसम्पत्ति आदिके प्रलोभनमें आकर न करनेलायक काम भी करने लग जाते हैं? जिनका नतीजा उनके लिये तथा दुनियाके लिये भी बड़ा अहितकारक होता है।अभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् -- हे पार्थ ये सब आसुरी सम्पत्ति (टिप्पणी प0 803.2) को प्राप्त हुए मनुष्योंके लक्षण हैं। मरणधर्मी शरीरके साथ एकता मानकर मैं कभी मरूँ नहीं सदा जीता रहूँ और सुख भोगता रहूँ -- ऐसी इच्छावाले मनुष्यके अन्तःकरणमें ये लक्षण होते हैं।अठारहवें अध्यायके चालीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि कोई भी साधारण प्राणी प्रकृतिके गुणोंके सम्बन्धसे सर्वथा रहित नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव परमात्माका अंश होते हुए भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध लेकर ही पैदा होता है। प्रकृतिके साथ सम्बन्धका तात्पर्य है -- प्रकृतिके कार्य शरीरमें मैंमेरे का सम्बन्ध (तादात्म्य) और पदार्थोंमें ममता? आसक्ति तथा कामनाका होना। शरीरमें मैंमेरेका सम्बन्ध ही आसुरीसम्पत्तिका मूलभूत लक्षण है। जिसका प्रकृतिके साथ मुख्यतासे सम्बन्ध है? उसीके लिये यहाँ कहा गया है कि वह आसुरीसम्पत्तिको प्राप्त हुआ है।प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जीवका अपना माना हुआ है। अतः वह जब चाहे इस सम्बन्धका त्याग कर सकता है। कारण कि जीव (आत्मा) चेतन तथा निर्विकार है और प्रकृति जड तथा प्रतिक्षण परिवर्तनशील है? इसलिये चेतनका जडसे सम्बन्ध वास्तवमें है नहीं? केवल मान रखा है। इस सम्बन्धको छोड़ते ही आसुरीसम्पत्ति सर्वथा मिट जाती है। इस प्रकार मनुष्यमें आसुरीसम्पत्तिको मिटानेकी पूरी योग्यता है। तात्पर्य है कि आसुरी सम्पत्तिको प्राप्त होते हुए भी वह प्रकृतिसे अपना सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करके आसुरीसम्पत्तिको मिटा सकता है।प्राणोंमें मनुष्यका ज्योंज्यों मोह होता जाता है? त्योंहीत्यों आसुरीसम्पत्ति अधिक बढ़ती जाती है। आसुरीसम्पत्तिके अत्यधिक बढ़नेपर मनुष्य अपने प्राणोंको रखनेके लिये और सुख भोगनेके लिये दूसरोंका नुकसान भी कर देता है। इतना ही नहीं? दूसरोंकी हत्या कर देनेमें भी वह नहीं हिचकता।मनुष्य जब अस्थायीको स्थायी मान लेता है? तब आसुरीसम्पत्तिके दुर्गुणदुराचारोंके समूहकेसमूह उसमें आ जाते हैं। तात्पर्य है कि असत्का सङ्ग होनेसे असत् आचरण? असत् भाव और दुर्गुण बिना बुलाये तथा बिना उद्योग किये अपनेआप आते हैं? जो मनुष्यको परमात्मासे विमुख करके अधोगतिमें ले जानेवाले हैं। सम्बन्ध -- अब भगवान् दैवी और आसुरी -- दोनों प्रकारकी सम्पत्तियोंका फल बताते हैं।
।।16.4।। केवल एक श्लोक की परिसीमा में ही जगत् के कुरूप व्यक्तित्व के पुरुषों की कुरूपता का इतना बोधगम्य वर्णन इसके पूर्व कभी नहीं किया गया था। आसुरी प्रवृत्तियों के प्रकार अनेक हैं? परन्तु यहाँ केवल कुछ मुख्य दुर्गुणों का उल्लेख किया गया है? जिनके द्वारा हम उन समस्त आसुरी शक्तियों को समझ सकते हैं? जो कभी भी मनुष्य के हृदय में व्यक्त होकर अपना विनाशकारी प्रभाव दिखा सकती हैं। इन सबको जानने का लाभ यह होगा कि हम अपने हृदय से अवांछित प्रवृत्तियों को दूर कर सकते हैं? और इस प्रकार हमें अपने विकास के लिए एक महत् शक्ति उपलब्ध हो सकती है।दम्भ श्री शंकाराचार्य के अनुसार दम्भ का अर्थ है वास्तव में अधार्मिक होते हुए भी स्वयं को धार्मिक व्यक्ति के रूप में प्रकट करना। दूसरे शब्दों में? स्वयं को वस्तुस्थिति से अन्यथा प्रकट करना दम्भ है। यह अत्यन्त निम्नस्तर का रूप है? जिसे पापी? दुराचारी लोग धारण करते हैं। उनकी यह सतही साधुता और शुद्धता? धार्मिकता और निष्कपटता वस्तुत अपने घातक उद्देश्यों और दुष्ट संकल्पों को आवृत करने के आकर्षक आवरण हैं।दर्प धन? जन? यौवन? ज्ञान? सामाजिक प्रतिष्ठा इत्यादि का अत्याधिक गर्व (दर्प) मनुष्य को एक असह्य प्रकार की उच्चता प्रदान करता है। तत्पश्चात् वह मनुष्य जगत् की घटनाओं की ओर आत्मवंचक विपरीत ज्ञान के माध्यम से देखता है और अपने ही काल्पनिक आत्मसम्मान के जगत् में रहता है। फलत? इस दर्प के कारण? वह आन्तरिक शान्ति से वंचित रह जाता है। ऐसा मनुष्य अपने ही समाज के लोगों के प्रेम से निष्कासित हो जाता है। दर्प युक्त पुरुष जगत् में एकाकी रह जाता है। केवल काल्पनिक आत्मसम्मान और अपनी महानता के स्वप्न ही उसके मित्र होते हैं। उसके वैभव को केवल वही स्वयं देख पाता है और अन्य कोई नहीं। ऐसा पुरुष स्वाभाविक ही अभिमानी बन जाता है।क्रोध दम्भ? दर्प और अभिमान से युक्त पुरुष जब यह पाता है कि लोगों की उसके विषय में जो धारणायें हैं? वे उसकी अपनी धारणाओं से सर्वथा भिन्न हैं? तब उसका मन विद्रोह कर उठता है? जो प्रत्येक वस्तु की ओर क्रोध के रूप में प्रकट होता है। क्रोधावेश से अभिभूत ऐसे पुरुष के कर्मों और वाणी में लोगों को व्यग्र कर देने वाली कठोरता (पारुष्य) और धृष्टता का होना अनिवार्य है।उपर्युक्त दम्भ? दर्प आदि का एकमात्र कारण है आत्म अज्ञान। वह न स्वयं को जानता है और न अपने आसपास की जगत् की संरचना को जानता है। परिणाम यह होता है कि वह यह नहीं समझ पाता कि उसको जगत् के साथ किस प्रकार का सुखद सम्बन्ध रखना चाहिए। सारांशत? वह नितान्त अहंकार केन्द्रित हो जाता है और वह चाहता है कि बाह्य जगत् उसकी अपेक्षाओं और इच्छाओं के अनुकूल और अनुरूप रहे। इतना ही नहीं? अपितु वह अपने कार्यक्षेत्र के कार्यकर्ताओं के लिए एक मूर्खतापूर्ण आचारसंहिता प्रस्तुत करता है और अपेक्षा करता है कि वे ठीक उसी के अनुसार व्यवहार करें। स्वयं के तथा जगत् के विषय में यह जो अज्ञान है? यही वह गुप्त कारण है जिसके वशीभूत पुरुष समाज के विरुद्ध विद्रोह कर विक्षिप्त के समान व्यवहार करता है।यह है आसुरी सम्पदा अर्थात् असुरों के गुण। इस श्लोक में चित्रित आसुरी सम्पदा की पृष्ठभूमि में? पूर्व वर्णित दैवी सम्पदा अधिक आकर्षक ढंग से उजागर होती है।अब? इन दोनों प्रकार की सम्पदाओं के कार्य अर्थात् फल बताते हैं।
16.4 O son of Prtha, (the attributes) of one destined to have the demoniacal nature are religious ostentation, pride and haughtiness, [Another reading is abhimanah, self-conceit.-Tr.], anger as also rudeness and ignorance.
16.4 Hypocrisy, arrogance and self-conceit, anger and also harshness and ignorance, belong to one who is born for a demoniacal state, O Partha (Arjuna).
16.4. Ostentation, arrogance, pride, anger, and also harshness, and ignorance, are in the person born for the demoniac wealth, O son of Prtha !
16.4 दम्भः hypocrisy? दर्पः arrogance? अभिमानः selfconceit? च and? क्रोधः wrath? पारुष्यम् harshness? एव even? च and? अज्ञानम् ignorance? च and? अभिजातस्य to the one born for? पार्थ O Partha? सम्पदम् state?,आसुरीम् demoniacal.Commentary Dambha Hypocrisy. To pretend to be what one is not? to pretend to be religious and pious. It consists of bragging of ones own greatness. Religious hypocrisy is the worst form of hypocrisy. Hypocrisy is a mixture of deceit and falsehood. Those who boast about their own merits will get demerit only.Darpa Arrogance. Pride of learning? wealth? high connection? etc. An arrogant man cannot endure to see his fellowmen happy. He is more and more enraged at the fortune of his fellowmen in the matter of learning? happiness and prosperity.Parushyam (in speech) To speak of the blind as having lotuslike eyes? of the ugly as beautiful? of a man of low birth as one of high birth and so on? usually with an ulterior? selfish or evil motive.Ajnanam Ignorance? misconception of ones duties. An ignorant man is blind as to what should be done and what should not be done. There is absence of discrimination. Just as a child will put anything it gets in its hands into its mouth? whether it is clean or dirty? so also is the condition of the ignorant man who is not able to discriminate between the Real and the unreal? the good and the evil? virtue and vice. He is on the path of destruction. He does not know the road that leads to Moskha or liberation. He is drowned in the ocean of this worldly existence.These are the six demonical alities. These evil alities constitute the satanic or demonical wealth. They are obstacles on the path of liberation.By addressing Arjuna as Partha? Lord Krishna implies that Arjuna has no demonical alities in him as he is born in a noble family and is the son of Pritha.People of Asuric nature have no faith. They dispute every doctrine. They deny the existence of God. They deny the cycle of the worldprocess? the Vedas and the laws of ethics. Sensual indulgence is their goal. They rob people and take away their neighbours wives. They kill people ruthlessly. They do not believe in reincarnation and in the other world. They have no idea of right conduct? purity and selfrestraint.Asuras are those persons who have waged war and who still wage war with the gods in heaven. Those who are endowed with Asuric tendencies or evil alities are Asuras or demons. They exist in abundance in this iron age. Kamsa was an Asura. Hiranyakasipu was an Asura.Even a man of university alitifactions and titles is a veritable Asura if he is endowed with evil tendencies or Asubha Vasanas.Esoterically? the war between the Asuras and the gods is the internal fight that is ever going on between the pure and the impure tendencies in man? between Sattva and RajasTamas.
16.4 O son of Prtha, dambhah, religious ostentation; darpah, pride arising from wealth, relatives, etc.; atimanah, haughtiness, as explained earlier; and krodhah, anger; eva ca, as also; parusyam, redeness, using unkind words, e.g. to speak of a blind person as having eyes, an ugly person as handsome, a lowly born man as born of aristocracy, and so on; and ajnanam, ignorance, non-discriminating knowledge, false conception regarding what ought to be and ought not to be done; are (the attributes) abhijatasya, of one destined to have;-destined for what? in answer the Lord says-asurim, demoniacal; sampadam, nature. The conseences of these natures are being stated:
16.4 See Coment under 16.5
16.4 Dambha or pomposity is the practice of Dharma for earning a reputation for righteousness. Arrogance is the elation caused by the pleasures of sense-objects and the conseent inability to discriminate between what ought to be done and what ought not to be done. Self-conceit is the estimation of oneself in a measure not warranted by ones education and birth. Wrath is the sense of antagonism causing injury to others. Rudeness is the nature of causing grief to Sadhus. Ignorance is incapacity to discriminate between hight and low forms of conduct and principles, and also between what ought to be done and what ought not to be. These are the alities that are found in one born for a demoniac destiny. Asuras are those who rel against the ?ndments of the Lord.
The Lord now speaks of the fruits which cause bondage. Dambha means to announce oneself as religious even though one has a sinful nature. Darpa means pride due to wealth, knowledge and the like. Abhimana means to desire respect from others or attachment to wife, sons and other things. Krodha means anger. Parusya means cruelty. Ajnana means lack of discrimination. These are the qualities of the asura, which indicate other types of beings such as raksasas as well. These qualities belong to the person born at a moment indicating attainment of rajasic or tamasic qualities.
Now the six properties of the demoniac nature are concisely given here by Lord Krishna. Dambha is ostentation which arises from belief in the sanctimony of perverting religion. Darpha is pride due to erroneous conceptions of what is privileged birth. Abhimanah is arrogance which is conceit and vanity due to material delusions of education, position and wealth. Parusyam is harshness and cruelty devoid of mercy. Krodha is anger exemplified by total lack of control of the mind due to frustrated greed and lust. Ajnanam is ignorance and the absence of knowledge in discriminating what is eternal and what is temporary, what is righteous and what is unrighteous. All the demoniac properties are accompanied by fiendishness which is also a component of the demoniac and exists in those born in the demoniac nature.
Lord Krishna gives the six demerits that are part of the demoniac nature and are formidable obstacles obstructing all progress in spiritual advancement. The word damah or ostentatious denotes hypocrisy, mendacity and lack of religiosity. Darpah is pride erroneously exuding from intoxication of position, wealth and power. The word krodah means anger resulting from frustration causing animosity and the impetus to injure and harm others by parusyam or cruelty and harshness without any mercy. This is a defect especially found in sovereigns and rulers due to abhimanh or extreme egotism in the illusion that they are the most powerful and worshipable instead of the Supreme Lord. Thus their mentality being deluded is ajnanam or ignorance, void of actual knowledge and destitute in discrimination of what is eternal and what is temporary.
Now Lord Krishna discloses the six properties predominating the demoniac nature. dambah is ostentation or a charade of pretentious actions perverting religion. darpa is pride or the unnatural proclivity for excess experiencing sense objects. abhimanah is arrogance or egotism concerning ones self interest and importance krodah is anger which arises when greed and lust is impeded and frustrated. parusyam is belligerence or spurious indignation towards what is righteous. ajananam is ignorance and lack of discrimination of the eternal and the temporal. Those born in the demoniac nature act contrary to all that is righteous and fiendishly oppose the ordinances and injunctions of the Vedic scriptures beneficial for all creation.
Now Lord Krishna discloses the six properties predominating the demoniac nature. dambah is ostentation or a charade of pretentious actions perverting religion. darpa is pride or the unnatural proclivity for excess experiencing sense objects. abhimanah is arrogance or egotism concerning ones self interest and importance krodah is anger which arises when greed and lust is impeded and frustrated. parusyam is belligerence or spurious indignation towards what is righteous. ajananam is ignorance and lack of discrimination of the eternal and the temporal. Those born in the demoniac nature act contrary to all that is righteous and fiendishly oppose the ordinances and injunctions of the Vedic scriptures beneficial for all creation.
Dambho darpo’bhimaanashcha krodhah paarushyameva cha; Ajnaanam chaabhijaatasya paartha sampadamaasureem.
dambhaḥ—hypocrisy; darpaḥ—arrogance; abhimānaḥ—conceit; cha—and; krodhaḥ—anger; pāruṣhyam—harshness; eva—certainly; cha—and; ajñānam—ignorance; cha—and; abhijātasya—of those who possess; pārtha—Arjun, the son of Pritha; sampadam—qualities; āsurīm—demoniac