सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।17.18।।
।।17.18।। जो तप सत्कार? मान और पूजा के लिए अथवा केवल दम्भ (पाखण्ड) से ही किया जाता है? वह अनिश्चित और क्षणिक तप यहाँ राजस कहा गया है।।
।।17.18।। वस्तुत तपाचरण का प्रयोजन अपनी शक्तियों का संचय करके उनके द्वारा आत्मविकास करना है। परन्तु जो लोग तप का अनुष्ठान केवल समाज से सत्कार? सम्मान और पूजा प्राप्त करने के लिए? अथवा अपने गुण प्रदर्शनमात्र के लिए करते हैं? उनका तप राजस कहलाता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने इसके पूर्व ऐसे लोगों को मिथ्याचारी भी कहा था।इस प्रकार के तप से क्या हानि होती है इसका उत्तर यह है कि ऐसा तप चलम् अर्थात् अस्थिर होने से इसका फल भी अध्रुवम् अर्थात् अनिश्चित या क्षणिक ही होता है। किसी भी कर्म का फल कालान्तर में ही प्राप्त होता है। इसलिए कर्म का अनुष्ठान स्थिरता और सातत्य की अपेक्षा रखता है परन्तु? सत्कार अथवा प्रदर्शन के हीन उद्देश्य से किये गये तप में ये दोनों ही गुण नहीं हो सकते। इस प्रकार जब तप ही क्षणिक हो? तो उसका फल चिरस्थायी कैसे हो सकता है राजस तप चलम् और अध्रुवम होने से त्याज्य ही समझना चाहिए।