मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।।17.19।।
।।17.19।। जो तप मूढ़तापूर्वक स्वयं को पीड़ित करते हुए अथवा अन्य लोगों के नाश के लिए किया जाता है? वह तप तामस कहा गया है।।
।।17.19।। इस श्लोक का अर्थ स्वत स्पष्ट है। एक तपस्वी साधक को तप के वास्तविक स्वरूप? उसके प्रयोजन तथा विधि का सम्यक् ज्ञान होना चाहिए। इस ज्ञान के अभाव में साधक अपने व्यक्तित्व के सुगठन तथा आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता।वेदोपदिष्ट तप का विपरीत अर्थ समझने पर मनुष्य उसके द्वारा केवल स्वयं को ही पीड़ित कर सकता है। ऐसे आत्मपीड़न से शुद्ध आत्मा का सौन्दर्य अभिव्यक्त नहीं हो सकता वह तो हमारे पूर्णस्वरूप का केवल उपाहासास्पद व्यंगचित्र ही चित्रित कर सकता है। मूढ़ तामस तप का फल कुरूप व्यक्तित्व? विकृत भावनाएं और हीन आदर्श ही हो सकता है।दान के भी तीन प्रकार होते हैं? जिन्हें अगले श्लोक में बताया जा रहा है