दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।17.20।।
।।17.20।।दान देना कर्तव्य है -- ऐसे भावसे जो दान देश? काल और पात्रके प्राप्त होनेपर अनुपकारीको दिया जाता है? वह दान सात्त्विक कहा गया है।
।।17.20।। व्याख्या -- इस श्लोकमें दानके दो विभाग हैं --,(1) दातव्यमिति यद्दानं दीयते अनुपकारिणे और (2) देशे काले च पात्रे च।दातव्यमिति ৷৷. देशे काले च पात्रे च -- केवल देना ही मेरा कर्तव्य है। कारण कि मैंने वस्तुओंको स्वीकार किया है अर्थात् उन्हें अपना माना है। जिसने वस्तुओंको स्वीकार किया है? उसीपर देनेकी जिम्मेवारी होती है। अतः देनामात्र मेरा कर्तव्य है -- इस भावसे दान करना चाहिये। उसका यहाँ क्या फल होगा और परलोकमें क्या फल होगा -- यह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये। दातव्य का तात्पर्य ही त्यागमें है।अब किसको दिया जाय तो कहते हैं -- दीयतेऽनुपकारिणे अर्थात् जिसने पहले कभी हमारा उपकार किया ही नहीं? अभी भी उपकार नहीं करता है और आगे हमारा उपकार करेगा? ऐसी सम्भावना भी नहीं है -- ऐसे अनुपकारी को निष्कामभावसे देना चाहिये। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसने हमारा उपकार किया है? उसको न दे? प्रत्युत जिसने हमारा उपकार किया है? उसे देनेमें दान न माने। कारण कि केवल देनेमात्रसे सच्चे उपकारका बदला नहीं चुकाया जा सकता। अतः उपकारीकी भी अवश्य सेवासहायता करनी चाहिये? पर उसको दानमें भरती नहीं करना चाहिये। उपकारकी आशा रखकर देनेसे वह दान राजसी हो जाता है।देशे काले च पात्रे च (टिप्पणी प0 857) पदोंके दो अर्थ होते हैं --,(1) जिस देशमें जो चीज नहीं है और उस चीजकी आवश्यकता है? उस देशमें वह चीज देना जिस समय जिस चीजकी आवश्यकता है? उस समय वह चीज देना और जिसके पास जो चीज नहीं है और उसकी आवश्यकता है? उस अभावग्रस्तको वह चीज देना। ,(2) गङ्गा? यमुना? गोदावरी आदि नदियाँ और कुरुक्षेत्र? प्रयागराज? काशी आदि पवित्र देश प्राप्त होनेपर दान देना अमावस्या? पूर्णिमा? व्यतिपात? अक्षय तृतीया? संक्रान्ति आदि पवित्र काल प्राप्त होनेपर दान देना और वेदपाठी ब्राह्मण? सद्गुणीसदाचारी भिक्षुक आदि उत्तम पात्र प्राप्त होनेपर दान देना।देशे काले च पात्रे च पदोंसे उपर्युक्त दोनों ही अर्थ लेने चाहिये।तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् -- ऐसा दिया हुआ दान सात्त्विक कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण सृष्टिकी जितनी चीजें हैं? वे सबकी हैं और सबके लिये हैं? अपनी व्यक्तिगत नहीं हैं। इसलिये अनुपकारी व्यक्तिको भी जिस चीज -- वस्तुकी आवश्यकता हो? वह चीज उसीकी समझकर उसको देनी चाहिये। जिसके पास वह वस्तु पहुँचेगी? वह उसीका हक है क्योंकि यदि उसकी वस्तु नहीं है? तो दूसरा व्यक्ति चाहते हुए भी उसे वह वस्तु दे सकेगा नहीं। इसलिये पहलेसे यह समझे कि उसकी ही वस्तु उसको देनी है? अपनी वस्तु (अपनी मानकर) उसको नहीं देनी है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अपनी नहीं है और अपने पास है अर्थात् उसको हमने अपनी मान रखी है? उस वस्तुको अपनी न माननेके लिये उसकी समझकर उसीको देनी है।इस प्रकार जिस दानको देनेसे वस्तु? फल और क्रियाके साथ अपना सम्बन्धविच्छेद होता है? वह दान सात्त्विक कहा जाता है।