तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षि।।17.25।।
।।17.25।।तत् नामसे कहे जानेवाले परमात्माके लिये ही सब कुछ है -- ऐसा मानकर मुक्ति चाहनेवाले मनुष्योंद्वारा फलकी इच्छासे रहित होकर अनेक प्रकारकी यज्ञ और तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।
।।17.25।। तत् शब्द का उच्चारण कर? फल की इच्छा नहीं रखते हुए? मुमुक्षुजन यज्ञ? तप? दान आदि विविध कर्म करते हैं।।
।।17.25।। व्याख्या -- तदित्यनभिसंधाय ৷৷. मोक्षकाङ्क्षिभिः -- केवल उस परमात्माकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे? किञ्चिन्मात्र भी फलकी इच्छा न रखकर शास्त्रीय यज्ञ? तप? दान आदि शुभकर्म किये जायँ।,कारण कि विहितनिषिद्ध? शुभअशुभ आदि क्रियामात्रका आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। ऐसे ही उस क्रियाका जो फल होता है? उसका भी संयोग होता है और वियोग होता है अर्थात् कर्मफलके भोगका भी आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। परन्तु परमात्मा तो उस क्रिया और फलभोगके आरम्भ होनेसे पहले भी हैं तथा क्रिया और फलभोगकी समाप्तिके बाद भी हैं एवं क्रिया और फलभोगके समय भी वैसेकेवैसे हैं। परमात्माकी सत्ता नित्यनिरन्तर है। नित्यनिरन्तर रहनेवाली इस सत्ताकी तरफ ध्यान दिलानेमें ही तत् इति पदोंका तात्पर्य है और उत्पत्तिविनाशशील फलकी तरफ ध्यान न देनेमें ही अनभिसंधाय फलम् पदोंका तात्पर्य है अर्थात् नित्यनिरन्तर रहनेवाले तत्त्वकी स्मृति रहनी चाहिये और नाशवान् फलकी अभिसंधि (इच्छा) बिलकुल नहीं रहनी चाहिये।नित्यनिरन्तर वियुक्त होनेवाले? प्रतिक्षण अभावमें जानेवाले इस संसारमें जो कुछ देखने? सुनने और जाननेमें आता है? उसीको हम प्रत्यक्ष? सत्य मान लेते हैं और उसीकी प्राप्तिमें हम अपनी बुद्धिमानी और बलको सफल मानते हैं। इस परिवर्तनशील संसारको प्रत्यक्ष माननेके कारण ही सदासर्वदा सर्वत्र परिपूर्ण रहता हुआ भी वह परमात्मा हमें प्रत्यक्ष नहीं दीखता। इसलिये एक परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य रखकर उस संसारका अर्थात् अहंताममता (मैंमेरेपन) का त्याग करके? उन्हींकी दी हुई शक्तिसे? यज्ञ आदिको उन्हींका मानकर निष्कामभावपूर्वक उन्हींके लिये यज्ञ आदि शुभकर्म करने चाहिये। इसीमें ही मनुष्यकी वास्तविक बुद्धिमानी और बल(पुरुषार्थ) की सफलता है। तात्पर्य यह है कि जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है? उसका तो निराकरण करना है और जिसको अप्रत्यक्ष मानते हैं? उस तत् नामसे कहे जानेवाले परमात्माका अनुभव करना है? जो नित्यनिरन्तर प्राप्त है।भगवान्के भक्त (भगवान्का उद्देश्य रखकर) तत् पदके बोधक राम? कृष्ण? गोविन्द? नारायण? वासुदेव? शिव आदि नामोंका उच्चारण करके सब क्रियाएँ आरम्भ करते हैं।अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्य यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत? जप? स्वाध्याय? ध्यान? समाधि आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं? वे सब भगवान्के लिये भगवान्की प्रसन्नताके लिये? भगवान्की आज्ञापालनके लिये ही करते हैं? अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे क्रियाएँ की जाती हैं? वे शरीर? इन्द्रियाँ? अन्तःकरण आदि सभी परमात्माके ही हैं? हमारे नहीं हैं। जब शरीर आदि हमारे नहीं हैं? तो घर? जमीनजायदाद? रुपयेपैसे? कुटुम्ब आदि भी हमारे नहीं हैं। ये सभी प्रभुके हैं और इनमें जो सामर्थ्य? समझ आदि है? वह भी सब प्रभुकी है और हम खुद भी प्रभुके ही हैं। हम प्रभुके हैं और प्रभु हमारे हैं -- इस भावसे वे सब क्रियाएँ प्रभुकी प्रसन्नताके लिये ही करते हैं। सम्बन्ध -- चौबीसवें श्लोकमें की और पचीसवें श्लोकमें तत् शब्दकी व्याख्या करके अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें पाँच प्रकारसे सत् शब्दकी व्याख्या करते हैं।
।।17.25।। जो पुरुष स्वयं को अपनी आसक्तियों? स्वार्थी इच्छाओं? अहंकार और उससे उत्पन्न होने वाले विक्षेपों के बन्धनों से मुक्त रहना चाहता है? उसे मुमुक्षु कहते हैं। ऐसे मुमुक्षुओं को यह श्लोक एक उपाय बताता है? जिसके द्वारा समस्त साधक स्वयं को अपनी वासनाओं के बन्धन से मुक्त कर सकते हैं।मुमुक्षुओं को चाहिए कि वे फलासक्ति को त्यागकर और तत् शब्द के द्वारा परमात्मा का स्मरण करके अपने कर्तव्यों का पालन करें। तत् शब्द जगत्कारण ब्रह्म का वाचक है? जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। इस प्रकार? यह शब्द भूतमात्र के आत्मैकत्व का भी सूचक है। अपने कुटुम्ब के कल्याण के स्मरण रहने पर व्यक्तिगत लाभ विस्मरण हो जाता है समाज के लिए कार्य करने में परिवार के लाभ का विस्मरण हो जाता है और राष्ट्र कल्याण की भावना का उदय होने पर अपने समाजमात्र के लाभ की कामना नहीं रह जाती तथा विश्व और मानवता के लिए कर्म करने में राष्ट्रीयता की सीमायें टूट जाती हैं। इसी प्रकार? आत्मैकत्व के भाव में चित्त को समाहित करके यज्ञदानादि कर्मों के आचरण से? अहंकार के अभाव में? अन्तकरण की पूर्वार्जित वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होती। यही मुक्ति है।अब? सत् शब्द का विनियोग बताते हैं