यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।17.4।।
।।17.4।।सात्त्विक मनुष्य देवताओंका पूजन करते हैं? राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसोंका और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं? वे प्रेतों और भूतगणोंका पूजन करते हैं।
।।17.4।। सात्त्विक पुरुष देवताओं को पूजते हैं और राजस लोग यक्ष और राक्षसों को? तथा अन्य तामसी जन प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।।
।।17.4।। व्याख्या -- यजन्ते सात्त्विका देवान् -- सात्त्विक अर्थात् दैवीसम्पत्तिवाले मनुष्य देवोंका पूजन करते हैं। यहाँ देवान् शब्दसे विष्णु? शंकर? गणेश? शक्ति और सूर्य -- ये पाँच ईश्वरकोटिके देवता लेने चाहिये क्योंकि दैवीसम्पत्तिमें देव शब्द ईश्वरका वाचक है और उसकी सम्पत्ति अर्थात् दैवीसम्पत्ति मुक्ति देनेवाली है -- दैवी सम्पद्विमोक्षाय (16। 5)। वह दैवीसम्पत्ति जिनमें प्रकट होती है? उन (दैवीसम्पत्तिवाले) साधकोंकी स्वाभाविक श्रद्धाकी पहचान बतानेके लिये यहाँ यजन्ते सात्त्विका देवान् पद आये हैं।ईश्वरकोटिके देवताओंमें भी साधकोंकी श्रद्धा अलगअलग होती है। किसीकी श्रद्धा भगवान् विष्णु(राम? कृष्ण? आदि) में होती है? किसीकी भगवान् शंकरमें होती है? किसीकी भगवान् गणेशमें होती है? किसीकी भगवती शक्तिमें होती है और किसीकी भगवान् सूर्यमें होती है। ईश्वरके जिस रूपमें उनकी स्वाभाविक श्रद्धा होती है? उसीका वे विशेषतासे यजनपूजन करते हैं।बारह आदित्य? आठ वसु? ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार -- इन तैंतीस प्रकारके शास्त्रोक्त देवताओंका निष्कामभावसे पूजन करना भी यजन्ते सात्त्विका देवान् के अन्तर्गत मानना चाहिये।यक्षरक्षांसि राजसाः -- राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसोंका पूजन करते हैं। यक्षराक्षस भी देवयोनिमें हैं। यक्षोंमें धनके संग्रहकी मुख्यता होती है और राक्षसोंमें दूसरोंका नाश करनेकी मुख्यता होती है। अपनी कामनापूर्तिके लिये और दूसरोंका विनाश करनेके लिये राजस मनुष्योंमें यक्षों और राक्षसोंका पूजन करनेकी प्रवृत्ति होती है।प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः -- तामस मनुष्य प्रेतों तथा भूतोंका पूजन करते हैं। जो मर गये हैं? उन्हें प्रेत कहते हैं और जो भूतयोनिमें चले गये हैं? उन्हें भूत कहते हैं।यहाँ प्रेत शब्दके अन्तर्गत जो अपने पितर हैं? उनको नहीं लेना चाहिये क्योंकि जो अपना कर्तव्य समझकर निष्कामभावसे अपनेअपने पितरोंका पूजन करते हैं? वे तामस नहीं कहलायेंगे? प्रत्युत सात्त्विक ही कहलायेंगे। अपनेअपने पितरोंके पूजनका भगवान्ने निषेध नहीं किया है -- पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः (गीता 9। 25)। तात्पर्य है कि जो पितरोंका सकामभावसे पूजन करते हैं कि पितर हमारी रक्षा करेंगे अथवा हम जैसे पितापितामह आदिके लिये श्राद्धतर्पण आदि करते हैं? ऐसे ही हमारी कुलपरम्परावाले भी हमारे लिये श्राद्धतर्पण आदि करेंगे -- ऐसे भावसे पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु अपने मातापिता? दादादादी आदि पितरोंका पूजन करनेसे पितरोंको प्राप्त हो जायँगे -- यह बात नहीं है। जो पितृऋणसे उऋण होना अपना कर्तव्य समझते हैं और इसीलिये (अपना कर्तव्य समझकर) निष्कामभावसे पितरोंका पूजन करते हैं? वे पुरुष सात्त्विक हैं? राजस नहीं। पितृलोकको वे ही जाते हैं? जो पितृव्रताः हैं अर्थात् जो पितरोंको सर्वोपरि और अपना इष्ट मानते हैं तथा पितरोंपर ही निष्ठा रखते हैं। ऐसे लोग पितृलोकको तो जा सकते हैं? पर उससे आगे नहीं जा सकते।कुत्ते? कौए आदिको भी जो निष्कामभावसे रोटी देते हैं (शास्त्रमें ऐसा विधान है)? उससे उनकी योनि प्राप्त नहीं होती क्योंकि वह उनका इष्ट नहीं है। वे तो शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार चलते हैं। इसी प्रकार पितरोंका श्राद्धतर्पण आदि भी शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार निष्कामभावपूर्वक करनेसे पितृयोनि प्राप्त नहीं हो जाती। शास्त्र या भगवान्की आज्ञा मानकर करनेसे उनका उद्धार होगा। इसलिये निष्कामभावसे किये गये शास्त्रविहित नारायणबलि? गयाश्राद्ध आदि प्रेतकर्मोंको तामस नहीं मानना चाहिये क्योंकि ये तो मृत प्राणीकी सद्गतिके लिये किये जानेवाले आवश्यक कर्म हैं? जिन्हें मरे हुए प्राणीके लिये शास्त्रके आज्ञानुसार हरेकको करना चाहिये।हम शास्त्रविहित यज्ञ आदि शुभ कर्म करते हैं? तो उनमें पहले गणेशजी? नवग्रह? षोडशमातृका आदिका पूजन शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार निष्कामभावसे करते हैं। यह वास्तवमें नवग्रह आदिका पूजन न होकर शास्त्रका ही पूजन? आदर हुआ। जैसे? स्त्री पतिकी सेवा करती है? तो उसका कल्याण हो जाता है। विवाह तो हरेक पुरुषका हो सकता है? राक्षसका भी और असुरका भी। वे भी पति बन सकते हैं। परन्तु वास्तवमें कल्याण पतिकी सेवासे नहीं होता? प्रत्युत पतिकी सेवा करना -- पातिव्रतधर्मका पालन करना ऋषि? शास्त्र? भगवान्की आज्ञा है? इसलिये इनकी आज्ञाके पालनसे ही कल्याण होता है।देवता आदिके पूजनसे पूजक(पूजा करनेवाले) की गति वैसी ही होगी -- यह बतानेके लिये यहाँ यजन्ते पद नहीं आया है। अर्जुनने शास्त्रविधिका त्याग करके श्रद्धापूर्वक यजनपूजन करनेवालोंकी निष्ठा पूछी थी अतः अपनेअपने इष्ट(पूज्य) के अनुसार पूजकोंकी निष्ठा -- श्रद्धा होती है? इसकी पहचान बतानेके लिये ही यजन्ते पद आया है। सम्बन्ध -- अबतक उन मनुष्योंकी बात बतायी? जो शास्त्रविधिको न जाननेके कारण उसका (अज्ञतापूर्वक) त्याग करते हैं परन्तु अपने इष्ट तथा उसके यजनपूजनमें श्रद्धा रखते हैं। अब? विरोधपूर्वक शास्त्रविधिका त्याग करनेवाले श्रद्धारहित मनुष्योंकी क्रियाओंका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
।।17.4।। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में किसी न किसी आदर्श या पूजावेदी को अपनी सम्पूर्ण भक्ति अर्पित करता है। तत्पश्चात् अपने आदर्श के आह्वान के द्वारा अपनी इच्छा की पूर्ति चाहता है। शास्त्रीय भाषा में इसे पूजा कहते हैं। इस शब्द से केवल शास्त्रोक्त विधान की षोडशोपचार पूजाविधि ही नहीं समझनी चाहिए। उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी की आराधना करता है फिर उसका आराध्य नाम? धन? यश? कीर्ति? देवता आदि कुछ भी हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य का आराध्य उसकी श्रद्धा के अनुसार ही होता है? जिसका वर्णन यहाँ किया गया है।सात्त्विक स्वभाव के लोग अपने श्रेष्ठ और दिव्य संस्कारों के कारण सहज ही देवताओं की अर्थात् दिव्य और उच्च आदर्शों की पूजा करते हैं।रजोगुणप्रधान लोग अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी और क्रियाशील स्वभाव के होते है। इसलिए? वे यक्ष? राक्षसों की ही पूजा करते हैं।तात्पर्य यह है कि आराध्य का चयन भक्त के हृदय की मौन मांग के ऊपर निर्भर करता है। कोई भी व्यक्ति वस्त्रों का क्रय करने किसी पुस्तकालय में नहीं जायेगा। इसी प्रकार? रजोगुणी लोगों को कर्मशील आदर्श ही रुचिकर प्रतीत होते हैं।तामसिक लोग अपनी निम्नस्तरीय विषय वासनाओं की पूर्ति के लिए भूतों और प्रेतात्माओं की आराधना करते हैं। जगत् में भी यह देखा जाता है कि असत् शिक्षा और अनैतिकता से युक्त लोग अपनी दुष्ट और अपकारक महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए प्राय नीच? प्रतिशोधपूर्ण और दुराचारी लोगों की (भूत? प्रेत) सहायता लेते हैं। ये नीच लोग यद्यपि शरीर से जीवित? किन्तु जीवन की मधुरता और सुन्दरता के प्रति मृत होते हैं।इसी अभिप्राय को इसके पूर्व भी अनेक श्लोकों में प्रकट किया जा चुका है। प्राय लोगों में भूतप्रेतों के विषय में जानने की अत्यधिक उत्सुकता रहती है। क्या प्रेतात्माओं का वास्तव में अस्तित्व होता है यह सबकी जिज्ञासा होती है? परन्तु गीता के प्रस्तुत प्रकरण का अध्ययन करने के लिए इस विषय में विचार करना निरर्थक है। इतना ही जानना पर्याप्त है कि भूत व प्रेत के द्वारा कुछ विशेष प्रकार की शक्तियों की ओर इंगित किया गया है? जो इस भौतिक जगत् में भी उपलब्ध हो सकती हैं।शुद्धान्तकरण के सात्त्विक? महत्त्वाकांक्षी राजसी और प्रमादशील तामसी जन क्रमश सहृदय मित्रों से सहायता? धनवान् और समर्थ लोगों से सुरक्षा और अपराधियों से शक्ति प्राप्त करने के लिए उपयुक्त देव? यक्ष और प्रेतात्माओं की पूजा करते हैं। मनुष्य के कार्यक्षेत्र से ही कुछ सीमा तक उसकी श्रद्धा को समझा जा सकता है।समाज के सत्त्वनिष्ठ पुरुष विरले ही होते हैं। सामान्यत राजसी और तामसी जनों की संख्या अधिक होती है और उनके पूजादि के प्रयत्न भी दोषपूर्ण होते हैं। कैसे भगवान् बताते हैं
17.4 Those having the sattva ality worship the gods; those having rajas, the demi-gods and ogres; and other people possessed of tamas worship ghosts and the hosts of spirits.
17.4 The Sattvic or the pure men worship the gods; the Rajasic or the passionate worship the Yakshas and the Rakshasas; the others (the Tamasic or the deluded people) worship the ghosts and the hosts of the nature-spirits.
17.4. The men of the Sattva (Strand) perform sacrifice intending for the gods ; the men of the Rajas (Strand) do for the spirits and the demons; and the men of the Tamas (Strand) perform sacrifices intending for the imps, the dead, and the ghosts.
17.4 यजन्ते worship? सात्त्विकाः the Sattvic or pure men? देवान् the gods? यक्षरक्षांसि the Yakshas and the Rakshasas? राजसाः the Rajasic or the passionate? प्रेतान् ghosts? भूतगणान् the hosts of Bhutas or the naturespirits? च and? अन्ये the others? यजन्ते worship? तामसाः the Tamasic? जनाः people.Commentary Lord Krishna? after defining faith? tells Arjuna how this faith determines the object of worship. The nature of the faith (whether it is Sattvic? Rajasic or Tamasic) has to be inferred from its characteristic effects? viz.? the worship of the gods and the like. Each man selects his object of worship according to the ruling Guna of his being. The expression of a mans faith depends on the Guna that is predominant in him. A Sattvic man will give his faith the Sattvic expression? a Rajasic man the Rajasic expression and a Tamasic man the Tamasic expression.Sattvic persons or people with Sattvic faith who are devoted to the worship of the gods? are rare in this world.Yakshas are the brothers of Kubera? the lord of wealth gnomes? the spirits that guard wealth.Rakshasas Beings of strength and power such as Nairrita demons giants gifted with illusive powers.Bhutas Ghosts.
17.4 Sattvikah, those having the sattva ality, those steadfast in sattva; yajante, worship; devan, the gods; rajasah, those having rajas; (worship) yaksa-raksamsi, the demi-gods and ogres; and anye, other; janah, people; tamasah, possessed of tamas; yajante, worship; pretan, ghosts; and bhuta-ganan, the hosts of spirits-Sapta-matrkas (the Seven Mothers) and others. Thus, in the context of abandonment of scriptural injunctions, the states of sattva etc. have been determined through their effects. As regards that, it is only one in thousands who, being established in sattva, becomes devoted to the adoration of gods. But, to be sure, creatures are mostly rooted deeply in rajas or tamas. How?
17.4 See Comment under 17.6
17.4 Those who have abundance of Sattva ality and are conjoined with Sattvika faith worship the gods. The meaning is this: The faith in the worship (sacrifice) of the gods which causes supreme joy unmixed with pain is of Sattvika nature. The Rajasika types worship Yaksas and Raksasas. And the others, i.e., the Tamasika types, worship the departed ancestors and hosts of Bhutas. The faith born of Rajas brings about limited joy mixed with pain, while the faith born of Tamas gives rise to extremely limited joy which verges almost on pain. Therefore, there is difference in fruits according to the Gunas regarding sacrifices etc., which are enjoined in the Sastras and associated with faith. However, no happiness whatsoever will result from penances, sacrifices etc., not enjoined in the Sastras and therefore antagonistic to My ?ndment. On the contrary, calamity results from them. Sri Krsna proceeds to explain this more fully.
The Lord clarifies what he has said. Those with sattvika antah karana, with sattvika faith, with rules of sattvika scripture, worship devatas. Because of having faith in those devatas, they are said to be deva. In the same way, those with rajasic and tamasic antah karanas take up such faith, and worship raksasas and bhutas or pretas, and are said to be raksasas and bhutas.
The three fold nature of sraddha or faith can be determined by a jivas or embodied beings mode of worship. Those situated in sattva guna the mode of goodness worship the Supreme Lord Krishna and His authorised incarnations. Those situated in raja guna the mode of passion pay homage to demoniac entities for power, wealth, fame and pleasure. Those situated in tama guna the mode of ignorance pray to abstract gods with vague qualities as well as to ghosts and spirits. Thus by their actions their position and quality of faith can be clearly discerned.
Those who are imbued with sattva guna the mode of goodness become attracted to activities in purity and goodness and they are devoted to worshipping the Supreme Lord with full faith, concerned only with the transcendental bliss derived from bhakti or exclusive loving devotion unto the Supreme Lord Krishna which is completely transcendental to material existence and untainted by darkness and suffering. Those in raja guna or mode of passion offer diabolical rituals to demoniac entities from the physical and astral realms to gain pleasure, power, wealth and fame. The results are bitter sweet when succeeding and bitterly painful when failing because one has to give something physical in return such as the death of a family member or ones health. Those in tama guna or mode of ignorance pay homage to the ghosts and spirits which give no joy and is filled with pain and anguish. The results of these three gunas or modes of material nature are determined directly by whichever one is situated in along with the quality of the faith in which the worshipper is performing even if it is in accordance with the Vedic scriptures. Lord Krishna has categorically emphasised and declared that not even the most miniscule modicum of happiness is derived from any activity which is contrary and opposed to the Vedic scriptures; which embody all that is for the highest good for all. Those who are inimical to the Vedic scriptures which benefit all creation are evil and possess a demoniac nature.
Those who are imbued with sattva guna the mode of goodness become attracted to activities in purity and goodness and they are devoted to worshipping the Supreme Lord with full faith, concerned only with the transcendental bliss derived from bhakti or exclusive loving devotion unto the Supreme Lord Krishna which is completely transcendental to material existence and untainted by darkness and suffering. Those in raja guna or mode of passion offer diabolical rituals to demoniac entities from the physical and astral realms to gain pleasure, power, wealth and fame. The results are bitter sweet when succeeding and bitterly painful when failing because one has to give something physical in return such as the death of a family member or ones health. Those in tama guna or mode of ignorance pay homage to the ghosts and spirits which give no joy and is filled with pain and anguish. The results of these three gunas or modes of material nature are determined directly by whichever one is situated in along with the quality of the faith in which the worshipper is performing even if it is in accordance with the Vedic scriptures. Lord Krishna has categorically emphasised and declared that not even the most miniscule modicum of happiness is derived from any activity which is contrary and opposed to the Vedic scriptures; which embody all that is for the highest good for all. Those who are inimical to the Vedic scriptures which benefit all creation are evil and possess a demoniac nature.
Yajante saattwikaa devaan yaksharakshaamsi raajasaah; Pretaan bhootaganaamshchaanye yajante taamasaa janaah.
yajante—worship; sāttvikāḥ—those in the mode of goodness; devān—celestial gods; yakṣha—semi-celestial beings who exude power and wealth; rakṣhānsi—powerful beings who embody sensual enjoyment, revenge, and wrath; rājasāḥ—those in the mode of passion; pretān-bhūta-gaṇān—ghosts and spirits; cha—and; anye—others; yajante—worship; tāmasāḥ—those in the mode of ignorance; janāḥ—persons