कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्।।17.6।।
।।17.6।।जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित घोर तप करते हैं जो दम्भ और अहङ्कारसे अच्छी तरह युक्त हैं जो भोगपदार्थ? आसक्ति और हठसे युक्त हैं जो शरीरमें स्थित पाँच भूतोंको अर्थात् पाञ्चभौतिक शरीरको तथा अन्तःकरणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं उन अज्ञानियोंको तू आसुर निश्चयवाले (आसुरी सम्पदावाले) समझ।
।।17.6।। और शरीरस्थ भूतसमुदाय को तथा मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करने वाले अर्थात् कष्ट पहुँचाने वाले जो अविवेकी लोग हैं? उन्हें तुम आसुरी निश्चय वाले जानो।।
।।17.6।। व्याख्या -- अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः -- शास्त्रमें जिसका विधान नहीं है? प्रत्युत निषेध है? ऐसे घोर तपको करनेमें उनकी रुचि होती है अर्थात् उनकी रुचि सदा शास्त्रसे विपरीत ही होती है। कारण कि तामसी बुद्धि (गीता 18। 32) होनेसे वे स्वयं तो शास्त्रोंको जानते नहीं और दूसरा कोई बता भी दे तो वे न उसको मानना चाहते हैं तथा न वैसा करना ही चाहते हैं।दम्भाहंकारसंयुक्ताः -- उनके भीतर यह बात गहरी बैठी हुई रहती है कि आज संसारमें जितने भजन? ध्यान? स्वाध्याय आदि करते हैं? वे सब दम्भ करते हैं? दम्भके बिना दूसरा कुछ है ही नहीं। अतः वे खुद भी दम्भ करते हैं। उनके भीतर अपनी बुद्धिमानीका? चतुराईका? जानकारीका अभिमान रहता है कि हम बड़े जानकार आदमी हैं हम लोगोंको समझा सकते हैं? उनको रास्तेपर ला सकते हैं हम शास्त्रोंकी बातें क्यों सुनें हम कोई कम जानते हैं क्या हमारी बातें सुनो तो तुम्हारेको पता चले आदिआदि।कामरागबलान्विताः -- काम शब्द भोगपदार्थोंका वाचक है। उन पदार्थोंमें रँग जाना? तल्लीन हो जाना? एकरस हो जाना राग है और उनको प्राप्त करनेका अथवा उनको बनाये रखनेका जो हठ? दुराग्रह है? वह बल है। इनसे वे सदा युक्त रहते हैं। उन आसुर स्वभाववाले लोगोंमें यह भाव रहता है कि मनुष्यशरीर पाकर इन भोगोंको नहीं भोगा तो मनुष्यशरीर पशुकी तरह ही है। सांसारिक भोगसामग्रीको मनुष्यने प्राप्त नहीं किया? तो फिर उसने क्या किया मनुष्यशरीर पाकर मनचाही भोगसामग्री नहीं मिली? तो फिर उसका जीवन ही व्यर्थ है? आदिआदि। इस प्रकार वे प्राप्त सामग्रीको भोगनेमें सदा तल्लीन रहते हैं और धनसम्पत्ति आदि भोगसामग्रीको प्राप्त करनेके लिये हठपूर्वक? जिदसे तप किया करते हैं।कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्रामम् -- वे शरीरमें स्थित पाँच भूतों(पृथ्वी? जल? तेज? वायु और आकाश) को कृश करते हैं? शरीरको सुखाते हैं और इसीको तप समझते हैं। शरीरको कष्ट दिये बिना तप नहीं होता -- ऐसी उनकी स्वाभाविक धारणा रहती है।आगे चौदहवें? पन्द्रहवें और सोलहवें श्लोकमें जहाँ शरीर? वाणी और मनके तपका वर्णन हुआ है? वहाँ शरीरको कष्ट देनकी बात नहीं है। वह तप बड़ी शान्तिसे होता है। परन्तु यहाँ जिस तपकी बात है? वह शास्त्रविरुद्ध घोर तप है और अविधिपूर्वक शरीरको कष्ट देकर किया जाता है।मां चैवान्तःशरीरस्थम् -- भगवान् कहते हैं कि ऐसे लोग अन्तःकरणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करते हैं? दुःख देते हैं। कैसे वे मेरी आज्ञा? मेरे मतके अनुसार नहीं चलते? प्रत्युत उसके विपरीत चलते हैं।अर्जुनने पूछा था कि वे कौनसी निष्ठावाले हैं -- सात्त्विक हैं कि राजसतामस दैवीसम्पत्तिवाले हैं कि आसुरीसम्पत्तिवाले तो भगवान् कहते हैं कि उनको आसुर निश्चयवाले समझो -- तान्विद्धि आसुरनिश्चयान्। यहाँ आसुरनिश्चयान् पद सामान्य आसुरीसम्पत्तिवालोंका वाचक नहीं है? प्रत्युत उनमें भी जो अत्यन्तनीच -- विशेष नास्तिक हैं? उनका वाचक है।विशेष बातचौथे श्लोकमें शास्त्रविधिको न जाननेवाले श्रद्धायुक्त मनुष्योंके द्वारा किये जानेवाले पूजनके लिये यजन्ते पद आया है परन्तु यहाँ शास्त्रविधिका त्याग करनेवाले श्रद्धारहित मनुष्योंके द्वारा किये जानेवाले पूजनके लिये तप्यन्ते पद आया है। इसका कारण यह है कि आसुर निश्चयवाले मनुष्योंकी तप करनेमें ही पूज्यबुद्धि होती है -- तप ही उनका यज्ञ होता है और वे मनगढ़ंत रीतिसे शरीरको कष्ट देनेको ही तप मानते हैं। उनके,तपका लक्षण है -- शरीरको सुखाना? कष्ट देना। वे तपको बहुत महत्त्व देते हैं? उसे बहुत अच्छा मानते हैं परन्तु भगवान्को? शास्त्रको नहीं मानते। तप भी वही करते हैं? जो शास्त्रके विरुद्ध है। बहुत ज्यादा भूखे रहना? काँटोंपर सोना? उलटे लटकना? एक पैरसे खड़े होना? शास्त्राज्ञासे विरुद्ध अग्नि तपना? अपने शरीर? मन? इन्द्रियोंको किसी तरह कष्ट पहुँचाना आदि -- ये सब आसुर निश्चयवालोंके तप होते हैं।सोलहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें शास्त्रविधिको जानते हुए भी उसकी उपक्षा करके दानसेवा? उपकार आदि शुभकर्मोंको करनेकी बात आयी है? जो इतनी बुरी नहीं है क्योंकि उनके दान आदि कर्म शास्त्रविधियुक्त तो नहीं हैं? पर शास्त्रनिषिद्ध भी नहीं हैं। परन्तु यहाँ जो शास्त्रोंमें विहित नहीं हैं? उनको ही श्रेष्ठ मानकर मनमाने ढंगसे विपरीत कर्म करनेकी बात है। दोनोंमें फरक क्या हुआ तेईसवें श्लोकमें कहे लोगोंको सिद्धि? सुख और परमगति नहीं मिलेगी अर्थात् उनके नाममात्रके शुभकर्मोंका पूरा फल नहीं मिलेगा। परन्तु यहाँ कहे लोगोंको तो नीच योनियों तथा नरकोंकी प्राप्ति होगी क्योंकि इनमें दम्भ? अभिमान आदि हैं। ये शास्त्रोंको मानते भी नहीं? सुनते भी नहीं और कोई सुनाना चाहे तो सुनना चाहते भी नहीं। सोलहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें शास्त्रका उपेक्षापूर्वक त्याग है? इसी अध्यायके पहले श्लोकमें शास्त्रका अज्ञतापूर्वक त्याग है और यहाँ शास्त्रका विरोधपूर्वक त्याग है। आगे तामस यज्ञादिमें भी शास्त्रकी उपेक्षा है। परन्तु यहाँ श्रद्धा? शास्त्रविधि? प्राणिसमुदाय और भगवान् -- इन चारोंके साथ विरोध है। ऐसा विरोध दूसरी जगह आये राजसीतामसी वर्णनमें नहीं है। सम्बन्ध -- अगर कोई मनुष्य किसी प्रकार भी यजन न करे? तो उसकी श्रद्धा कैसे पहचानी जायगी -- इसे बतानेके लिये भगवान् आहारकी रुचिसे आहारीकी निष्ठाकी पहचानका प्रकरण आरम्भ करते हैं।
।।17.6।। साधक का अत्युत्साह केवल शारीरिक थकान और मानसिक अवसाद को ही उत्पन्न कर सकता है। केवल धर्म के नाम पर अविवेकपूर्ण साधना करने से किसी प्रकार का आध्यत्मिक विकास नहीं हो सकता। बहुसंख्यक साधकगण अपनी क्षमताओं का दुरुपयोग करके व्यर्थ में कष्ट पाते हैं। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ ऐसे अविवेकी साधकों का चित्रण कर उनकी मूढ़ साधना का उपहास करते हैं।यह सत्य है कि शास्त्रों में स्थूलकाय अथवा देहासक्त व्यक्तियों के लिए कुछ अवधि पर्यन्त शारीरिक तपाचरण की साधना का उपदेश दिया गया है? परन्तु उससे यह निष्कर्ष निकालना त्रुटिपूर्ण होगा कि यह तप ही एकमात्र साधन है तथा केवल उसी के अनुष्ठान से आन्तरिक विकास भी हो सकता है। तपश्चर्या भी विवेकपूर्ण होनी चाहिए इसलिए धर्मशास्त्रों के विधानों के विरुद्ध उनका आचरण नहीं करना चाहिए।कुछ लोग केवल प्रदर्शन के लिए तप करते हैं। दम्भ और अहंकार से युक्त लोग वास्तविक तप के अधिकारी नहीं होते हैं। उसी प्रकार जिन लोगों के मन में विषयों की कामना और आसक्ति दृढ़ होती है? वे भी मानसिक रूप से तपश्चर्या के योग्य नहीं होते।यदि ऐसे लोग अपने तप के फलस्वरूप कुछ शक्ति प्राप्त भी कर लेते हैं? तो भी अन्तकरण की अशुद्धि के कारण वे उन शक्तियों का दुरुपयोग ही करते हैं। पुराणों में वर्णित हिरण्यकश्यपादि के चरित्र इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। इस प्रकार शास्त्रविधि की उपेक्षा करके तप करने वाले तपस्वी लोग आसुरी श्रेणी में ही गिने जाते हैं।ऐसे अविवेकी जन घोर तप के द्वारा न केवल अपने शरीर को पीड़ा पहुँचाते हैं? वरन् मुझ दिव्य अन्तर्यामी को भी कष्ट देते हैं। इसका आशय यह है कि ऐसे साधकों के हृदय में आत्मचैतन्य अपने पूर्ण वैभव एवं सौन्दर्य के साथ व्यक्त नहीं हो पाता। घोर कष्टदायक तप मूढ़ता का लक्षण है? जिसकी यहाँ निन्दा की गई है। विवेकपूर्ण संयम तप कहलाता है? न कि निर्मम शारीरिक पीड़ा भगवान् आगे कहते हैं