आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु।।17.7।।
।।17.7।। (अपनीअपनी प्रकृति के अनुसार) सब का प्रिय भोजन भी तीन प्रकार का होता है? उसी प्रकार यज्ञ? तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं? उनके भेद को तुम मुझसे सुनो।।
।।17.7।। इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण आगे वर्णन किये जाने वाले विषय का नाम निर्देश करते हैं। मनुष्य का स्वभाव उसके कार्यकलापों में व्यक्त होता है। उसका प्रिय आहार? मित्रगण? मन की भावनाएं? जीवन विषयक दृष्टिकोण आदि उसके स्वभाव की श्रेणी को इंगित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी गुण विशेष के आधिक्य से प्रभावित रहता है।मनुष्य का आन्तरिक स्वभाव तथा बाह्याचरण पर किस गुण की अधिकता से किस प्रकार का प्रभाव पड़ता है इसका विश्लेषण आगे के श्लोकों में किया गया है। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इन श्लोकों का प्रयोजन अन्य लोगों का वर्गीकरण करने के लिए नहीं हैं। हिन्दू धर्म आत्मविद्या का उपदेश देता है। अत साधक का प्रयत्न अपने आत्मस्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए होना चाहिए। आत्मा के सौन्दर्य को व्यक्त करने एवं आत्मिक बल को प्राप्त करने के लिए समस्त साधकों को चित्त शुद्धि के हेतु प्रयत्न करना होगा। चित्तशुद्धि का अर्थ है? रजोगुण के विक्षेप तथा तमोगुण के प्रमाद और मोह का त्यागकर सत्त्वगुण की रचनात्मक सजगता और आध्यात्मिक आभा में मन की दृढ़ स्थिति।सर्व प्रथम आहार को बताते हैं