न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।18.10।।
।।18.10।।जो अकुशल कर्मसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता? वह त्यागी? बुद्धिमान्? सन्देहरहित और अपने स्वरूपमें स्थित है।
।।18.10।। जो पुरुष अकुशल (अशुभ) कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल (शुभ) कर्म में आसक्त नहीं होता? वह सत्त्वगुण से सम्पन्न पुरुष संशयरहित? मेधावी (ज्ञानी) और त्यागी है।।
।।18.10।। व्याख्या -- न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म -- जो शास्त्रविहित शुभकर्म फलकी कामनासे किये जाते हैं और परिणाममें जिनसे पुनर्जन्म होता है (गीता 2। 42 -- 44 9। 20 -- 21) तथा जो शास्त्रनिषिद्ध पापकर्म हैं और परिणाममें जिनसे नीच योनियों तथा नरकोंमें जाना पड़ता है (गीता 16। 7 -- 20)? वे सबकेसब कर्म अकुशल कहलाते हैं। साधक ऐसे अकुशल कर्मोंका त्याग तो करता है? पर द्वेषपूर्वक नहीं। कारण कि द्वेषपूर्वक त्याग करनेसे कर्मोंसे तो सम्बन्ध छूट जाता है? पर द्वेषके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है? जो शास्त्रविहित काम्यकर्मोंसे तथा शास्त्रनिषिद्ध पापकर्मोंसे भी भयंकर है।कुशले नानुषज्जते -- शास्त्रविहित कर्मोंमें भी जो वर्ण? आश्रम? परिस्थिति आदिके अनुसार नियत हैं और जो आसक्ति तथा फलेच्छाका त्याग करके किये जाते हैं तथा परिणाममें जिनसे मुक्ति होती है? ऐसे सभी कर्म कुशल कहलाते हैं। साधक ऐसे कुशल कर्मोंको करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होता।त्यागी -- कुशल कर्मोंके करनेमें जिसका राग नहीं होता और अकुशल कर्मोंके त्यागमें जिसका द्वेष नहीं होता? वही असली त्यागी है (टिप्पणी प0 878)। परन्तु वह त्याग पूर्णतया तब सिद्ध होता है? जब कर्मोंको करने अथवा न करनेसे अपनेमें कोई फरक न पड़े अर्थात् निरन्तर निर्लिप्तता बनी रहे (गीता 3। 18 4। 18)। ऐसा होनेपर साधक योगारूढ़ हो जाता है (गीता 6। 4)।मेधावी -- जिसके सम्पूर्ण कार्य साङ्गोपाङ्ग होते हैं और संकल्प तथा कामनासे रहित होते हैं तथा ज्ञानरूप अग्निसे जिसने सम्पूर्ण कर्मोंको भस्म कर दिया है? उसे पण्डित भी पण्डित (मेधावी अथवा बुद्धिमान्) कहते हैं (गीता 4। 19)। कारण कि कर्मोंको करते हुए भी कर्मोंसे लिपायमान न होना बड़ी बुद्धिमत्ता है।इसी मेधावीको चौथे अध्यायके अठारहवें श्लोकमें स बुद्धिमान्मनुष्येषु पदोंसे सम्पूर्ण मनुष्योंमें बुद्धिमान् बताया गया है।छिन्नसंशयः -- उस त्यागी पुरुषमें कोई सन्देह नहीं रहता। तत्त्वमें अभिन्नभावसे स्थित रहनेके कारण उसमें किसी तरहका संदेह रहनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। सन्देह तो वहीं रहता है? जहाँ अधूरा ज्ञान होता है अर्थात् कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते।सत्त्वसमाविष्टः -- आसक्ति आदिका त्याग होनेसे उसकी अपने स्वरूपमें? चिन्मयतामें स्वतः स्थिति हो जाती है। इसलिये उसे सत्त्वसमाविष्टः कहा गया है। इसीको पाँचवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें तस्माद्ब्रह्मणि ते,स्थिताः पदोंसे परमात्मामें स्थित बताया गया है। सम्बन्ध -- कर्मोंको करनेमें राग न हो और छोड़नेमें द्वेष न हो -- इतनी झंझट क्यों की जाय कर्मोंका सर्वथा ही त्याग क्यों न कर दिया जाय -- इस शङ्काको दूर करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।
।।18.10।। पूर्व श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने यह कहा था कि सात्त्विक पुरुष अपने नियत कर्मों को? केवल कर्तव्य समझकर फलासक्ति को त्यागकर? करता है। प्रथम दृष्टि में? सामान्य पुरुष को त्याग का यह सिद्धांत असंभव ही प्रतीत होगा। संभवत अर्जुन के मुख पर कुछ इसी प्रकार के आश्चर्य भाव को देखकर? भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में सात्त्विक पुरुष का और अधिक स्पष्ट चित्रण करते हैं।सामान्य अज्ञानी जन अतिरेकी स्वभाव के होते हैं। वे जगत् को यथार्थ रूप में कभी नहीं देखते। जगत् की वस्तुओं को वे अपने राग द्वेष से रंजित दृष्टि से देखते हैं। तत्पश्चात्? वे अपनी प्रिय वस्तु को पाने का प्रयत्न करते हैं और अप्रिय को त्यागने के लिए परिश्रम करते हैं। इसके लिए वे शुभाशुभ कर्मों की चिन्ता नहीं करते। प्रिय वस्तु को प्राप्त कराने वाले कर्म में उनकी आसक्ति हो जाती है और अन्य कर्म से द्वेष। इसके परिणामस्वरूप? इष्ट की प्राप्ति पर उन्हें हर्षातिरेक होता है और अनिष्ट की प्राप्ति में वे विषाद के गर्त में गिर जाते हैं। ऐसे लोगों के अन्तकरण में काम? क्रोध? ईर्ष्या आदि अवगुणों का स्थायी निवास होता है। यदाकदा इनमें से कोई व्यक्ति धर्माचरण में प्रवृत्त भी होता है? तो अपने अतिरेकी स्वभाव के कारण धार्मिक कार्य में आसक्त हो जाता है और अन्य लोगों को पतित समझकर उन्हें हेय दृष्टि से देखता है परन्तु? सत्त्वगुणी पुरुष उपर्युक्त समस्त अवगुणों से मुक्त होता है। इसका कारण उसकी विकसित विवेक शक्ति है। आत्मानात्माविवेक के द्वारा वह यह भलीभांति जानता है कि शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि ये सब अनात्मा हैं तथा जन्ममरण? क्षुधातृषा और शोकमोह ये सब इनके ही धर्म हैं? न कि इन सब को प्रकाशित करने वाले साक्षी आत्मा के? इस ज्ञान के कारण वह अनात्म उपाधियों से तादात्म्य नहीं करता। इसी को यहाँ इस प्रकार कहा गया है कि वह अशुभ से द्वेष और शुभ से राग नहीं करता है। ऐसा पुरुष ही वास्तव में सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत कहा जाता है। अन्य अविवेकी लोग तो शुष्क पर्ण के समान वायु की गति और दिशा के साथ इतस्तत भटकते रहते हैं। विवेकी पुरुष अपने मन का साक्षी बनकर रहता है? जबकि अविवेकी लोग? त्याग के अभाव में? अपने मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके दुख भोगते रहते हैं।किसी भी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने तथा मिथ्या का त्याग करने के लिए अपने नित्य और पूर्ण स्वरूप का बोध आवश्यक है। वस्तुओं को समझने तथा युक्तियुक्त विचार करने की बुद्धि की इस क्षमता को मेधा शक्ति कहते हैं। केवल इतना ही नहीं? वरन् प्राप्त ज्ञान को धारण एवं आवश्यकतानुसार स्मरण करने की क्षमता भी मेधा ही है। इस शक्ति से सम्पन्न पुरुष मेधावी कहा जाता है। ऐसे मेधावी पुरुष क ो निम्नलिखित तत्त्वों का स्पष्टत ज्ञान होता है (1) अपना कर्मक्षेत्र? (2) वे उपाधियां जिनके द्वारा वह जगत् से सम्पर्क करता है? (3) अपना शुद्ध आनन्द स्वरूप? और (4) जगत् से अपना संबंध। यह मेधावी पुरुष संशय रहित (छिन्न संशय) होता है? क्योंकि वस्तु के अपूर्ण ज्ञान से ही संशय उत्पन्न हो सकता है? अन्यथा नहीं।इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसे सात्त्विक त्यागी पुरुष जगत् में विरले ही होते हैं। बहुसंख्यक लोग तो अपनी देहादि उपाधियों के साथ तादात्म्य स्थापित करके स्वयं को कर्म का कर्ता मानते हैं और तब उन्हें कर्मफल भोगने के लिए बाध्य होना ही पड़ता है।जो अज्ञानी पुरुष कर्तृत्व के अभिमान तथा देहासक्ति को त्याग नहीं पाता है? उसको कम से कम कर्म फल त्याग करना चाहिए। भगवान् कहते हैं