तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।18.16।।
।।18.16।। अब इस स्थिति में जो पुरुष असंस्कृत बुद्धि होने के कारण? केवल शुद्ध आत्मा को कर्ता समझता हैं? वह दुर्मति पुरुष (यथार्थ) नहीं देखता है।।
।।18.16।। पूर्व श्लोक में हमने देखा कि आत्मा की उपस्थिति में शरीरादि जड़ उपाधियाँ कार्य करती हैं? परन्तु आत्मा अकर्ता ही रहता है। आत्मा और अनात्मा के इस विवेक के अभाव में अज्ञानी जन स्वयं को कर्ता और भोक्ता रूप जीव ही समझते हैं। जीव दशा में रागद्वेष? प्रवृत्तिनिवृत्ति? लाभहानि और सुखदुख अवश्यंभावी हैं। जिस क्षण कोई पुरुष आत्मा और अनात्मा के भेद को तथा अविद्या से उत्पन्न मिथ्या अहंकार को समझ लेता है? उसी क्षण इस मिथ्या जीव का अस्तित्व दिवा स्वप्न के भूत के समान समाप्त हो जाता है।तत्रैवं सति सभी प्रकार के उचित और अनुचित कर्म शरीर? कर्ता? दशेन्द्रियाँ तथा दैव की सहायता से ही होते हैं? परन्तु इन्हें चेतनता प्रदान करने वाला आत्मा नित्य शुद्ध और अकर्ता ही रहता है। अज्ञानी जन इस आत्मा को ही कर्ता समझ लेते हैं।इस प्रकार के विपरीत ज्ञान के कारणों का निर्देश? यहाँ अकृतबुद्धि और दुर्मति इन दो शब्दों से किया गया है। अकृतबुद्धि का अर्थ है वह पुरुष जिसने अपनी बुद्धि को शास्त्र? आचार्योपदेश तथा न्याय (तर्क) के द्वारा सुसंस्कृत नहीं किया है तथा दुर्मति का अर्थ है दुष्टरागद्वेषादि युक्त बुद्धि का पुरुष। इस कथन का अभिप्राय यह हुआ कि जो पुरुष अपने चित्त को शुद्ध कर आत्मविचार करता है? वह अपने में ही यह साक्षात् अनुभव करता है? कि शरीरादि जड़ उपाधियाँ ही कार्य करके थकान का अनुभव करती हैं? अकर्ता आत्मा नहीं।विपरीत ज्ञान का वर्णन करने के पश्चात् अब यथार्थ ज्ञान का वर्णन करते हैं