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Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 17

भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 17

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।18.17।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.17)

।।18.17।।जिसका अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती? वह इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।18.17।। व्याख्या --   यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते -- जिससे मैं करता हूँ -- ऐसा अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धिमें मेरको फल मिलेगा -- ऐसे स्वार्थभावका लेप नहीं है। इसको ऐसे समझना चाहिये -- जैसे शास्त्रविहित और शास्त्रनिषिद्ध -- ये सभी क्रियाएँ एक प्रकाशमें होती हैं और प्रकाशके ही आश्रित होती हैं परन्तु प्रकाश किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं बनता अर्थात् प्रकाश उन क्रियाओँको न करनेवाला है और न करानेवाला है। ऐसे ही स्वरूपकी सत्ताके बिना विहित और निषिद्ध -- कोई भी क्रिया नहीं होती परन्तु वह सत्ता उन क्रियाओंको न करनेवाली है और न करानेवाली है -- ऐसा जिसको साक्षात् अनुभव हो जाता है? उसमें मैं क्रियाओंको करनेवाला हूँ -- ऐसा अहंकृतभाव नहीं रहता और अमुक चीज चाहिये? अमुक चीज नहीं चाहिये अमुक घटना होनी चाहिये? अमुक घटना नहीं होनी चाहिये -- ऐसा बुद्धिमें लेप (द्वन्द्वमोह) नहीं रहता। अहंकृतभाव और बुद्धिमें लेप न रहनेसे उसके कर्तृत्व और भोक्तृत्व -- दोनों नष्ट हो जाते हैं अर्थात् अपनेमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व -- ये दोनों ही नहीं हैं? इसका वास्तविक अनुभव हो जाता है।प्रकृतिका कार्य स्वतःस्वाभाविक ही चल रहा है? परिवर्तित हो रहा है और अपना स्वरूप केवल उसका प्रकाशक है -- ऐसा समझकर जो अपने स्वरूपमें स्थित रहता है? उसमें मैं करता हूँ ऐसा अहंकृतभाव नहीं होता क्योंकि अंहकृतभाव प्रकृतिके कार्य शरीरको स्वीकार करनेसे ही होता है। अहंकृतभाव सर्वथा मिटनेपर उसकी बुद्धिमें फल मेरेको मिले ऐसा लेप भी नहीं होता अर्थात् फलकी कामना नहीं होती।अहंकृतभाव एक मनोवृत्ति है। मनोवृत्ति होते हुए भी यह भाव स्वयं(कर्ता)में रहता है क्योंकि कर्तृत्व और अकर्तृत्व भाव स्वयं ही स्वीकार करता है।हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते -- वह इन सम्पूर्ण प्राणियोंको एक साथ मार डाले? तो भी वह मारता नहीं क्योंकि उसमें कर्तृत्व नहीं है और वह बँधता भी नहीं क्योंकि उसमें भोक्तृत्व नहीं है। तात्पर्य यह है कि उसका न क्रियाओंके साथ सम्बन्ध है और न फलके साथ सम्बन्ध है।वास्तवमें प्रकृति ही क्रिया और फलमें परिणत होती है। परन्तु इस वास्तविकताका अनुभव न होनेसे ही पुरुष (चेतन) कर्ता और भोक्ता बनता है। कारण कि जब अहंकारपूर्वक क्रिया होती है? तब कर्ता? करण और कर्म -- तीनों मिलते हैं और तभी कर्मसंग्रह होता है। परन्तु जिसमें अहंकृतभाव नहीं रहा? केवल सबका प्रकाशक? आश्रय? सामान्य चेतन ही रहा? फिर वह कैसे किसको मारे और कैसे किससे बँधे उसका मारना और बँधना सम्भव ही नहीं है (गीता 2। 19)।सम्पूर्ण प्राणियोंको मारना क्या है जिसमें अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धिमें लेप नहीं है -- ऐसे मनुष्यका शरीर जिस वर्ण और आश्रममें रहता है? उसके अनुसार उसके सामने जो परिस्थिति आ जाती है? उसमें प्रवृत्त होनेपर उसे पाप नहीं लगता। जैसे? किसी जीवन्मुक्त क्षत्रियके लिये स्वतः युद्धकी परिस्थिति प्राप्त हो जाय तो वह उसके अनुसार सबको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। कारण कि उसमें अभिमान और स्वार्थभाव नहीं है।यहाँ अर्जुनके सामने भी युद्धका प्रसङ्ग है। इसलिये भगवान्ने हत्वापि पदसे अर्जुनको युद्धके लिये प्रेरणा की है। अपि पदका भाव हैं -- कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः (गीता 4। 20) कर्मोंमें अच्छी तरह प्रवृत्त होनेपर भी वह कुछ नहीं करता। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते (गीता 6। 31) सर्वथा बर्ताव करता हुआ भी वह योगी मेरेमें रहता है। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते (गीता 13। 31) शरीरमें स्थित होनेपर भी न करता है और न लिप्त होता है। तात्पर्य यह है कि कर्मोंमें साङ्गोपाङ्ग प्रवृत्त होनेके समय और जिस समय कर्मोंमें प्रवृत्त नहीं है? उस समय भी स्वरूपकी निर्विकल्पता ज्योंकीत्यों रहती है अर्थात् क्रिया करनेसे अथाव क्रिया न करनेसे स्वरूपमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता। कारण कि क्रियाविभाग प्रकृतिमें है? स्वरूपमें नहीं।वास्तवमें यह अहंभाव (व्यक्तित्व) ही मनुष्यमें भिन्नता करनेवाला है। अहंभाव न रहनेसे परमात्माके साथ भिन्नताका कोई कारण ही नहीं है। फिर तो केवल सबका आश्रय? प्रकाशक सामान्य चेतन रहता है। वह न तो क्रियाका कर्ता बनता है? और न फलका भोक्ता ही बनता है। क्रियाओंका कर्ता और फलका भोक्ता तो वह पहले भी नहीं था। केवल नाशवान् शरीरके साथ सम्बन्ध मानकर जिस अहंभावको स्वीकार किया है? उसी अहंभावसे उसमें कर्तापन और भोक्तापन आया है।अहम् दो प्रकारका होता है -- अहंस्फूर्ति और अहंकृति। गाढ़ नींदसे उठते ही सबसे पहले मनुष्यको अपने होनेपन(सत्तामात्र) का भान होता है? इसको अहंस्फूर्ति कहते हैं। इसके बाद वह अपनेमें मैं अमुक नाम? वर्ण? आश्रम आदिका हूँ -- ऐसा आरोप करता है? यही असत्का सम्बन्ध है। असत्के सम्बन्धसे अर्थात् शरीरके साथ तादात्म्य माननेसे शरीरकी क्रियाको लेकर मैं करता हूँ -- ऐसा भाव उत्पन्न होता है? इसको अहंकृति कहते हैं।अहम् को लेकर ही अपनेमें परिच्छिन्नता आती है। इसलिये अहंस्फूर्तिमें भी किञ्चित् परिच्छिन्नता (व्यक्तित्व) रह सकती है। परन्तु यह परिच्छिन्नता बन्धनकारक नहीं होती अर्थात् परिच्छिन्नता रहनेपर भी अहंस्फूर्ति दोषी नहीं होती। कारण कि अहंकृति अर्थात् कर्तृत्वके बिना अपनेमें गुणदोषका आरोप नहीं होता।,अहंकृति आनेसे ही अपनेमें गुणदोषका आरोप होता है? जिससे शुभअशुभ कर्म बनते हैं। बोध होनेपर अहंस्फूर्तिमें जो परिच्छिन्नता है? वह जल जाती है और स्फूर्तिमात्र रह जाती है। ऐसी स्थितिमें मनुष्य न मारता है और न बँधता है।न हन्ति न निबध्यते (न मारता है और न बँधता है) का क्या भाव है एक निर्विकल्पअवस्था होती है और एक निर्विकल्पबोध होता है। निर्विकल्पअवस्था साधनसाध्य है और उसका उत्थान भी होता है अर्थात् वह एकरस नहीं रहती। इस निर्विकल्पअवस्थासे भी असङ्गता होनेपर स्वतःसिद्ध निर्विकल्पबोधका अनुभव होता है। निर्विकल्पबोध साधनसाध्य नहीं है और उसमें निर्विकल्पता किसी भी अवस्थामें किञ्चिन्मात्र भी भंग नहीं होती। निर्विकल्पबोधमें कभी परिवर्तन हुआ नहीं? होगा नहीं और होना सम्भव भी नहीं। तात्पर्य है कि उस निर्विकल्पबोधमें कभी हलचल आदि नहीं होते? यही न हन्ति न निबध्यते का भाव है।अहंकृतभाव और बुद्धिमें लेप न रहनेका उपाय क्या है क्रियारूपसे परिवर्तन केवल प्रकृतिमें ही होता है और उन क्रियाओंका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मोंके फलरूपसे जो पदार्थ मिलते हैं? उनका भी संयोगवियोग होता है। इस प्रकार क्रिया और पदार्थ -- दोनोंके साथ संयोगवियोग होता रहता है। संयोगवियोग होनेपर भी स्वयं तो प्रकाशकरूपसे ज्योंकात्यों ही रहता है। विवेकविचारसे ऐसा अनुभव होनेपर अहंकृतभाव और बुद्धिमें लेप नहीं रहता। सम्बन्ध --   ज्ञान और प्रवृत्ति (क्रिया) दोषी नहीं होते? प्रत्युत कर्तृत्वाभिमान ही दोषी होता है क्योंकि कर्तृत्वाभिमानसे ही कर्मसंग्रह होता है -- यह बात आगेके श्लोकमें बताते हैं।