ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।18.19।।
।।18.19।।गुणसंख्यान (गुणोंके सम्बन्धसे प्रत्येक पदार्थके भिन्नभिन्न भेदोंकी गणना करनेवाले) शास्त्रमें गुणोंके भेदसे ज्ञान और कर्म तथा कर्ता तीनतीन प्रकारसे ही कहे जाते हैं? उनको भी तुम यथार्थरूपसे सुनो।
।।18.19।। व्याख्या -- प्रोच्यते गुणसंख्याने -- जिस शास्त्रमें गुणोंके सम्बन्धसे प्रत्येक पदार्थके भिन्नभिन्न भेदोंकी गणना की गयी है? उसी शास्त्रके अनुसार मैं तुम्हें ज्ञान? कर्म तथा कर्ताके भेद बता रहा हूँ।ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः -- पीछेके श्लोकमें भगवान्ने कर्मकी प्रेरणा होनेमें तीन हेतु बताये तथा तीन ही हेतु कर्मके बननेमें बताये। इस प्रकार कर्मसंग्रह होनेतकमें कुल छः बातें बतायीं (टिप्पणी प0 901)। अब इस श्लोकमें भगवान् ज्ञान? कर्म तथा कर्ता -- इन तीनोंका विवेचन करनेकी ही बात कहते हैं। कर्मप्रेरकविभागमेंसे विवेचन करनेके लिये केवल ज्ञान लिया गया है? क्योंकि किसी भी कर्मकी प्रेरणामें पहले ज्ञान ही होता है। ज्ञानके बाद ही कार्यका आरम्भ होता है। कर्मसंग्रहविभागमेंसे केवल कर्म और कर्ता लिये गये हैं। यद्यपि कर्मके होनेमें कर्ता मुख्य है? तथापि साथमें कर्मको भी लेनेका कारण यह है कि कर्ता जब कर्म करता है? तभी कर्मसंग्रह होता है। अगर कर्ता कर्म न करे तो कर्मसंग्रह होगा ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मप्रेरणामें ज्ञान तथा कर्मसंग्रहमें कर्म और कर्ता मुख्य हैं। इन तीनों -- (ज्ञान? कर्म और कर्ता -- ) के सात्त्विक होनेसे ही मनुष्य निर्लिप्त हो सकता है? राजस और तामस होनेसे नहीं। अतः यहाँ कर्मप्रेरकविभागमें ज्ञाता और ज्ञेय को तथा कर्मसंग्रहविभागमें करण को नहीं लिया गया है।कर्मप्रेरकविभाग के ज्ञाता और ज्ञेय का विवेचन क्यों नहीं किया कारण कि ज्ञाता जब क्रियासे सम्बन्ध जोड़ता है? तब वह कर्ता कहलाता है और उस कर्ताके तीन (सात्त्विक? राजस और तामस) भेदोंके अन्तर्गत ही ज्ञाताके भी तीन भेद हो जाते हैं। परन्तु ज्ञाता जब ज्ञप्तिमात्र रहता है? तब उसके तीन भेद नहीं होते क्योंकि उसमें गुणोंका सङ्ग नहीं है। गुणोंका सङ्ग होनेसे ही उसके तीन भेद होते हैं। इसलिये वृत्तिज्ञान ही सात्त्विक? राजस तथा तामस होता है।जिसे जाना जाय? उस विषयको ज्ञेय कहते हैं। जाननेके विषय अनेक हैं? इसलिये इसके अलग भेद नहीं किये गये। परन्तु जाननेयोग्य सब विषयोंका एकमात्र लक्ष्य सुख प्राप्त करना ही रहता है। जैसे? कोई विद्या पढ़ता है? कोई धन कमाता है? कोई अधिकार पानेकी चेष्टा करता है तो इन सब विषयोंको जानने? पानेकी चेष्टाका लक्ष्य एकमात्र सुख ही रहता है। विद्या पढ़नेमें यही भाव रहता है कि ज्यादा पढ़कर ज्यादा धन कमाऊँगा? मान पाऊँगा और उनसे मैं सुखी होऊँगा। ऐसे ही हरेक कर्मका लक्ष्य परम्परासे सुख ही रहता है। इसलिये भगवान्ने ज्ञेयके तीन भेद सात्त्विक? राजस और तामस सुख के नामसे आगे (18 । 36 -- 39में) किये हैं।ऐसे ही भगवान्ने करणके भी तीन भेद नहीं किये क्योंकि इन्द्रियाँ आदि जितने भी करण हैं? वे सब साधनमात्र हैं। इसलिये उनके तीन भेद नहीं होते। परन्तु इन सभी करणोंमें बुद्धि की ही प्रधानता है क्योंकि मनुष्य करणोंसे जो कुछ भी काम करता है? उसको वह बुद्धिपूर्वक (विचारपूर्वक) ही करता है। इसलिये भगवान्ने करणके तीन भेद सात्त्विक? राजस और तामस बुद्धिके नामसे आगे (18। 30 -- 32 में) किये हैं।बुद्धिको दृढ़तासे रखनेमें धृति बुद्धिकी सहायक बनती है। ज्ञानयोगकी साधनामें भगवान्ने दो जगह (6। 25 में तथा 18। 51में) बुद्धिके साथ धृति पद भी दिया है। इससे यह मालूम देता है कि ज्ञानमार्गमें बुद्धिके साथ धृतिकी विशेष आवश्यकता है। इसलिये भगवान्ने धृतिके भी तीन भेद (18। 33 -- 35 में) बताये हैं।त्रिधैव पदमें यह भाव है कि ये भेद तीन (सात्त्विक? राजस और तामस) ही होते हैं? कम और ज्यादा नहीं होते अर्थात् न दो होते हैं और न चार होते हैं। कारण कि सत्त्व? रज और तम -- ये तीन गुण ही प्रकृतिसे उत्पन्न हैं -- सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः (गीता 14। 5)। इसलिये इन तीनों गुणोंको लेकर तीन ही भेद होते हैं।यथावत् -- गुणसंख्यानशास्त्रमें इस विषयका जैसा वर्णन हुआ है? वैसाकावैसा तुम्हें सुना रहा हूँ अपनी तरफसे कुछ कम या अधिक करके नहीं सुना रहा हूँ।श्रृणु -- इस विषयको ध्यानसे सुनो। कारण कि सात्त्विक? राजस और तामस -- इन तीनोंमेंसे सात्त्विक चीजें तो कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद करके परमात्मतत्त्वका बोध करानेवाली हैं? राजस चीजें जन्ममरण देनेवाली हैं और तामस चीजें पतन करनेवाली अर्थात् नरकों और नीच योनियोंमें ले जानेवाली हैं। इसलिये इनका वर्णन सुनकर सात्त्विक चीजोंको ग्रहण तथा राजसतामस चीजोंका त्याग करना चाहिये।तानि -- इन ज्ञान आदिका तुम्हारे स्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम्हारा स्वरूप तो सदा निर्लेप है।अपि -- इनके भेदोंको जाननेकी भी बड़ी भारी आवश्यकता है क्योंकि इनको ठीक तरहसे जाननेपर यस्य नाहंकृतो भावो ৷৷. न हन्ति न निबध्यते (18। 17) -- इस श्लोकका ठीक अनुभव हो जायगा अर्थात् अपने स्वरूपका बोध हो जायगा। सम्बन्ध -- अब भगवान् सात्त्विक ज्ञानका वर्णन करते हैं।