सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।18.20।।
।।18.20।।जिस ज्ञानके द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियोंमें विभागरहित एक अविनाशी भाव(सत्ता) को देखता है? उस ज्ञानको तुम सात्त्विक समझो।
।।18.20।। जिस ज्ञान से मनुष्य? विभक्त रूप में स्थित समस्त भूतों में एक अविभक्त और अविनाशी (अव्यय) स्वरूप को देखता है? उस ज्ञान को तुम सात्त्विक जानो।।
।।18.20।। व्याख्या -- सर्वभूतेषु येनैकं ৷৷. अविभक्तं विभक्तेषु -- व्यक्ति? वस्तु आदिमें जो है पन दीखता है? वह उन व्यक्ति? वस्तु आदिका नहीं है? प्रत्युत सबमें परिपूर्ण परमात्मका ही है। उन व्यक्ति? वस्तु आदिकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है क्योंकि उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। कोई भी व्यक्ति? वस्तु आदि ऐसी नहीं है? जिसमें परिवर्तन न होता हो परन्तु अपनी अज्ञता(बेसमझी)से उनकी सत्ता दीखती है। जब अज्ञता मिट जाती है? ज्ञान हो जाता है? तब साधककी दृष्टि उस अविनाशी तत्त्वकी तरफ ही जाती है? जिसकी सत्तासे यह सब सत्तावान् हो रहा है।ज्ञान होनेपर साधककी दृष्टि परिवर्तनशील वस्तुओंको भेदकर परिवर्तनरहित तत्त्वकी ओर ही जाती है (गीता 13। 27)। फिर वह विभक्त अर्थात् अलगअलग वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना आदिमें विभागरहित एक ही तत्त्वको देखता है (गीता 13। 16)। तात्पर्य यह है कि अलगअलग वस्तु? व्यक्ति आदिका अलगअलग ज्ञान और यथायोग्य अलगअलग व्यवहार होते हुए भी वह इन विकारी वस्तुओंमें उस स्वतःसिद्ध निर्विकार एक तत्त्वको देखता है। उसके देखनेकी यही पहचान है कि उसके अन्तःकरणमें रागद्वेष नहीं होते।तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् -- उस ज्ञानको तू सात्त्विक जान। परिवर्तनशील वस्तुओं? वृत्तियोंके सम्बन्धसे ही इसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं। सम्बन्धरहित होनेपर यही ज्ञान वास्तविक बोध कहलाता है? जिसको भगवान्ने सब साधनोंसे जाननेयोग्य ज्ञेयतत्त्व बताया है -- ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते (गीता 13। 12)।मार्मिक बातसंसारका ज्ञान इन्द्रियोंसे होता है? इन्द्रियोंका ज्ञान बुद्धिसे होता है और बुद्धिका ज्ञान मैंसे होता है। वह मैं बुद्धि? इन्द्रियाँ और विषय -- इन तीनोंको जानता है। परन्तु उस मैंका भी एक प्रकाशक है? जिसमें मैंका भी भान होता है। वह प्रकाश सर्वदेशीय और असीम है? जब कि मैं एकदेशीय और सीमित है। उस प्रकाशमें जैसे मैंका भान होता है? वैसे ही तू? यह और वह का भी भान होता है। वह प्रकाश किसीका भी विषय नहीं है। वास्तवमें वह प्रकाश निर्गुण ही है परन्तु व्यक्तिविशेषमें रहनेवाला होनेसे (वृत्तियोंके सम्बन्धसे) उसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं।इस सात्त्विक ज्ञानको दूसरे ढंगसे इस प्रकार समझना चाहिये -- मैं? तू? यह और वह -- ये चारों ही किसी प्रकाशमें काम करते हैं। इन चारोंके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी आ जाते हैं? जो विभक्त हैं परन्तु इनका जो प्रकाशक है? वह अवभिक्त (विभागरहित) है।बोलनेवाला? मैं? उसके सामने सुननेवाला तू और पासवाला यह तथा दूरवाला वह कहा जाता है अर्थात् बोलनेवाला अपनेको मैं कहता है? सामनेवालेको तू कहता है? पासवालेको यह कहता है और दूरवालेको वह कहता है। जो तू बना हुआ था? वह मैं हो जाय तो मैं बना हुआ तू हो जायगा और यह तथा वह वही रहेंगे। इसी प्रकार यह कहलानेवाला अगर मैं बन जाय तो तू कहलानेवाला यह बन जायगा और मैं कहलानेवाला तू बन जायगा। वह परोक्ष होनेसे अपनी जगह ही रहा। अब वह कहलानेवाला मैं बन जायगा तो उसकी दृष्टिमें मैं? तू और यह कहलानेवाले सब वह हो जायँगे (टिप्पणी प0 903)। इस प्रकाशमें मैं? तू? यह और वह का भान हो रहा है। दृष्टिमें चारों ही बन सकते हैं।इससे यह सिद्ध हुआ कि मैं? तू? यह और वह -- ये सब परिवर्तनशील हैं अर्थात् टिकनेवाले नहीं हैं? वास्तविक नहीं हैं। अगर वास्तविक होते तो एक ही रहते। वास्तविक तो इन सबका प्रकाशक और आश्रय है? जिसके प्रकार मैं? तू? यह और वह -- ये यारों ही एकदूसरेकी उस प्रकाशमें मैं? तू? यह और वह -- ये चारों ही नहीं हैं? प्रत्युत उसीसे इन चारोंको सत्ता मिलती है। अपनी मान्यताके कारण मैं? तू? यह? वह का तो भान होता है? पर प्रकाशकका भान नहीं होता। वह प्रकाशक सबको प्रकाशित करता है? स्वयंप्रकाशस्वरूप है और सदा ज्योंकात्यों रहता है। मैं? तू? यह और वह -- यह सब विभक्त प्राणियोंका स्वरूप है और जो वास्तविक प्रकाशक है? वह विभागरहित है। यही वास्तवमें सात्त्विक ज्ञान है।विभागवाली? परिवर्तनशील और नष्ट होनेवाली जितनी वस्तुएँ हैं? यह ज्ञान उन सबका प्रकाशक है और स्वयं भी निर्मल तथा विकाररहित है -- तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम् (गीता 14। 6)। इसलिये इस ज्ञानको सात्त्विक कहा जाता है।वास्तवमें यह सात्त्विक ज्ञान प्रकाश्यकी दृष्टि(सम्बन्ध)से प्रकाशक और विभक्तकी दृष्टिसे अविभक्त कहा जाता है। प्रकाश्य और विभक्तसे रहित होनेपर तो यह निर्गुण? निरपेक्ष वास्तविक ज्ञान ही है। सम्बन्ध -- अब राजस ज्ञानका वर्णन करते हैं।
।।18.20।। प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञान? कर्म और कर्ता का जो त्रिविध वर्गीकरण किया जा रहा है? उसका उद्देश्य अन्य लोगों के गुणदोष को देखकर उनका वर्गीकरण करने का नहीं है। यह तो साधक के अपने आत्मनिरीक्षण के लिए है। आत्मविकास के इच्छुक साधक को यथासंभव सत्त्वगुण में निष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम अपने अवगुणों को समझकर उनका तत्काल निराकरण कर सकते हैं।सात्त्विक ज्ञान के द्वारा हम भूतमात्र में स्थित एक अव्यय सत्य को देख सकते हैं। यद्यपि उपाधियाँ असंख्य हैं? तथापि उनका सारभूत आत्मतत्त्व एक ही है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ द्वैत्प्रपंच के अदर्शन को सात्त्विक ज्ञान नहीं कहा गया है? वरन् समस्त भेदों को देखते हुए भी उनके एक मूलस्वरूप को पहचानने को सात्त्विक ज्ञान कहा गया है। उदाहरणार्थ? तरंगों को नहीं देखना जल का ज्ञान नहीं कहा जा सकता? बल्कि विविध तरंगों को देखते हुए भी उनके एक जलस्वरूप को पहचानना ज्ञान है।यद्यपि विभिन्न एवं विभक्त उपाधियों के कारण प्रतिदेह आत्मतत्त्व भिन्न प्रतीत होता है? किन्तु वास्तव में आत्मतत्त्व एक? अखण्ड और अविभाज्य है। कैसे जैसे? विभिन्न घट उपाधियों के कारण सर्वगत आकाश विभक्त हुआ प्रतीत होता है? परन्तु स्वयं आकाश सदैव अखण्ड और अविभक्त ही रहता है। जिस ज्ञान के द्वारा हम उस एकमेव अद्वितीय परमात्मा के इस विलास को समझ पाते हैं? वही ज्ञान सात्त्विक है।
18.20 Know that knowledge to be originating from sattva through which one sees a single, undecaying, undivided Entity in all the diversified things.
18.20 That by which one sees the one indestructible Reality in all beings, not separate in all the separate beings know thou that knowledge to be Sattvic.
18.20. That instrument-of-knowledge, by means of which one perceives in all beings the singular immutable Existence, the Unclassified in the classified ones - that you must know to be born of the Sattva (Strand).
18.20 सर्वभूतेषु in all beings? येन by which? एकम् one? भावम् reality? अव्ययम् indestructible? ईक्षते (one) sees? अविभक्तम् inseparable? विभक्तेषु in the separated? तत् that? ज्ञानम् knowledge? विद्धि know? सात्त्विकम् Sattvic (pure).Commentary That knowledge that sees no difference in all objects that are perceived? is pure. The seer beholds the one allpervading imperishable substance or essence behind the seeming diversity of the objects. He beholds unity in diversity? one in many? all in one. He sees that all the diverse objects are rooted in the One.Bhavam Reality The One Self.Sarvabhuteshu In all beings From the Unmanifested down to the insentient and unmoving objects.Avyayam Indestructible inexhaustible unchangeable that which cannot be exhausted either in itself or in its properties immutable.Just as the ether is indivisible? so also the Self is indivisible. The Self is the same in all bodies. It is the common consciousness in all bodies. It is not different in different bodies. It is one homogeneous indivisible essence or substance in all bodies? in all beings. Know thou? O Arjuna? this direct and right perception of the nondual Self as Sattvic (pure). (Cf.IV.35VI.29XIII.16?28XVIII.30)
18.20 Viddhi, know; tat, that; jnanam, knowledge, realization of the Self as non-dual, complete realization; to be sattvikam, originating from sattva; yena, through which knowledge; iksate, one sees; ekam, a single; avyayam, undecaying-that which does not undergo mutation either in itself or by the mutation of its alities- i.e. eternal and immutable; bhavam, Entity-the word bhava is used to imply an entity-, i.e. the single Reality which is the Self; sarvabhutesu, in all things, in all things begining from the Unmanifest to the unmoving things; and through which knowledge one sees that Entity to be avibhaktam, undivided; in every body, vibhaktesu, in all the deversified things, in the different bodies. The idea is: that Reality which is the Self remains, like Space, undivided. Being based on rajas and tamas, those that are the dualistic philosophies are incomplete, and hence are not by themselves adeate for the eradication of worldly existence.
18.20 See Comment under 18.22
18.20 The self (Atman), which is of the form of knowledge, is alike and uniform, though distinct, in all beings, even though they may externally, and from the point of view of duty, be distinguished as Brahmanas, Ksatriyas, householders, celibates, fair, tall etc. The immutable selves in all these perishing forms or bodies are unaffected by the fruits of actions. Such knowledge of the immutability of the self in all changing beings, is Sattvika.
This verse speaks of sattvika process of knowing. Seeing one soul (ekam bhavam), with one form (avibhaktam) which is indestructible (avyayam) residing one by one in different forms (vibhaktesu) such as human, devata, or animal for the purpose of enjoying various fruits, which are temporary, through knowledge related to action (verse 18), is known as sattvika knowledge.
Lord Krishna explains the threefold nature of knowledge commencing with sattva guna or mode of goodness. The knowledge by which one perceives in all jivas or embodied beings, the one immutable, undivided, imperishable and eternal atma or immortal soul existing within all from the highest demigod Brahma the secondary creator down to immovable entities which are distinguishable from each other is situated in sattva guna.
The single reality pervading all existence is the Supreme Lord Krishna the creator, maintainer and energiser of all existence. All creation is situated within Him and He is also within every atom of creation. Living entities in the state of bondage or liberation, they are all under His jurisdiction but those who have achieved moksa or liberation from material existence are promoted to the eternal spiritual worlds. The Supreme Lord although manifesting and residing within unlimited variegated forms simultaneously in an all pervading way; yet He distinctly separate from every jiva or embodied being of all gradations. Those jivas whose gradation is material such as trees are distinct unique amongst themselves such as Palm trees, mango trees, apple trees, etc. which although manifesting from the Supreme Lords potencies are all distinctly different from the Supreme Lord. This is the knowledge of distinctive characteristics and when developed into wisdom is situated in sattva guna the mode of goodness from whence arises moksa.
In varna-asrama or the divisions of society the Brahmins comprise the spiritual heiarchy, the ksatriyas the royal and warrior class, the vaisyas the farmer and mercantile class and the sudra the worker class serving the previous three. The other four divisions are brahmacari or celibate student life, grihasta or married householder life, vanaprastha or separation from wife and family and sannyasa or complete renunciation from society and exclusive devotion to the Supreme Lord Krishna or any of His authorised incarnations as revealed in Vedic scriptures. There are all variances in appearance within these eight divisions such as tall, strong, attractive, delicate, etc. Yet one who sees the one undivided, spiritual reality of the atma or immortal souls existing equally within all jivas or embodied beings and perceives that they are all inconceivably indivisible although manifesting individually sharing collectively in eternality is firmly situated in sattva guna the mode of goodness. One who sees the atma as indestructible and unchangeable within the destructible and changeable physical body and who although performing variegated prescribed activities in any capacity has comprehended that they are not the actual doer and also have no interest in the rewards of actions is situated in sattva guna.
In varna-asrama or the divisions of society the Brahmins comprise the spiritual heiarchy, the ksatriyas the royal and warrior class, the vaisyas the farmer and mercantile class and the sudra the worker class serving the previous three. The other four divisions are brahmacari or celibate student life, grihasta or married householder life, vanaprastha or separation from wife and family and sannyasa or complete renunciation from society and exclusive devotion to the Supreme Lord Krishna or any of His authorised incarnations as revealed in Vedic scriptures. There are all variances in appearance within these eight divisions such as tall, strong, attractive, delicate, etc. Yet one who sees the one undivided, spiritual reality of the atma or immortal souls existing equally within all jivas or embodied beings and perceives that they are all inconceivably indivisible although manifesting individually sharing collectively in eternality is firmly situated in sattva guna the mode of goodness. One who sees the atma as indestructible and unchangeable within the destructible and changeable physical body and who although performing variegated prescribed activities in any capacity has comprehended that they are not the actual doer and also have no interest in the rewards of actions is situated in sattva guna.
Sarvabhooteshu yenaikam bhaavamavyayameekshate; Avibhaktam vibhakteshu tajjnaanam viddhi saattwikam.
sarva-bhūteṣhu—within all living beings; yena—by which; ekam—one; bhāvam—nature; avyayam—imperishable; īkṣhate—one sees; avibhaktam—undivided; vibhakteṣhu—in diversity; tat—that; jñānam—knowledge; viddhi—understand; sāttvikam—in the mode of goodness