सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।18.20।।
।।18.20।। जिस ज्ञान से मनुष्य? विभक्त रूप में स्थित समस्त भूतों में एक अविभक्त और अविनाशी (अव्यय) स्वरूप को देखता है? उस ज्ञान को तुम सात्त्विक जानो।।
।।18.20।। प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञान? कर्म और कर्ता का जो त्रिविध वर्गीकरण किया जा रहा है? उसका उद्देश्य अन्य लोगों के गुणदोष को देखकर उनका वर्गीकरण करने का नहीं है। यह तो साधक के अपने आत्मनिरीक्षण के लिए है। आत्मविकास के इच्छुक साधक को यथासंभव सत्त्वगुण में निष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम अपने अवगुणों को समझकर उनका तत्काल निराकरण कर सकते हैं।सात्त्विक ज्ञान के द्वारा हम भूतमात्र में स्थित एक अव्यय सत्य को देख सकते हैं। यद्यपि उपाधियाँ असंख्य हैं? तथापि उनका सारभूत आत्मतत्त्व एक ही है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ द्वैत्प्रपंच के अदर्शन को सात्त्विक ज्ञान नहीं कहा गया है? वरन् समस्त भेदों को देखते हुए भी उनके एक मूलस्वरूप को पहचानने को सात्त्विक ज्ञान कहा गया है। उदाहरणार्थ? तरंगों को नहीं देखना जल का ज्ञान नहीं कहा जा सकता? बल्कि विविध तरंगों को देखते हुए भी उनके एक जलस्वरूप को पहचानना ज्ञान है।यद्यपि विभिन्न एवं विभक्त उपाधियों के कारण प्रतिदेह आत्मतत्त्व भिन्न प्रतीत होता है? किन्तु वास्तव में आत्मतत्त्व एक? अखण्ड और अविभाज्य है। कैसे जैसे? विभिन्न घट उपाधियों के कारण सर्वगत आकाश विभक्त हुआ प्रतीत होता है? परन्तु स्वयं आकाश सदैव अखण्ड और अविभक्त ही रहता है। जिस ज्ञान के द्वारा हम उस एकमेव अद्वितीय परमात्मा के इस विलास को समझ पाते हैं? वही ज्ञान सात्त्विक है।