नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।18.23।।
।।18.23।।जो कर्म शास्त्रविधिसे नियत किया हुआ और कर्तृत्वाभिमानसे रहित हो तथा फलेच्छारहित मनुष्यके द्वारा बिना रागद्वेषके किया हुआ हो? वह सात्त्विक कहा जाता है।
।।18.23।। जो कर्म (शास्त्रविधि से) नियत और संगरहित है? तथा फल को न चाहने वाले पुरुष के द्वारा बिना किसी राग द्वेष के किया गया है? वह (कर्म) सात्त्विक कहा जाता है।।
।।18.23।। व्याख्या -- नियतं सङ्गरहितम् ৷৷. सात्त्विकमुच्यते -- जिस व्यक्तिके लिये वर्ण और आश्रमके अनुसार जिस परिस्थितिमें और जिस समय शास्त्रोंने जैसा करनेके लिये कहा है? उसके लिये वह कर्म नियत हो जाता है।यहाँ नियतम् पदसे एक तो कर्मोंका स्वरूप बताया है और दूसरे? शास्त्रनिषिद्ध कर्मका निषेध किया है।सङ्गरहितम् पदका तात्पर्य है कि वह नियतकर्म कर्तृत्वाभिमानसे रहित होकर किया जाय। कर्तृत्वाभिमानसे रहित कहनेका भाव है कि जैसे वृक्ष आदिमें मूढ़ता होनेके कारण उनको कर्तृत्वका भान नहीं होता? पर उनकी भी ऋतु आनेपर पत्तोंका झड़ना? नये पत्तोंका निकलना? शाखा कटनेपर घावका मिल जाना? शाखाओंका बढ़ना? फलफूलका लगना आदि सभी क्रियाएँ समष्टि शक्तिके द्वारा अपनेआप ही होती हैं ऐसे ही इन सभी शरीरोंका बढ़नाघटना? खानापीना? चलनाफिरना आदि सभी क्रियाएँ भी समष्टि शक्तिके द्वारा अपनेआप हो रही हैं। इन क्रियाओँके साथ न अभी कोई सम्बन्ध है? न पहले कोई सम्बन्ध था और न आगे ही कोई सम्बन्ध होगा। इस प्रकार जब साधकको प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है? तो फिर उसमें कर्तृत्व नहीं रहता। कर्तृत्व न रहनेपर उसके द्वारा जो कर्म होता है? वह सङ्गरहित अर्थात् कर्तृत्वाभिमानरहित ही होता है। ,यहाँ सांख्यप्रकरणमें कर्तृत्वका त्याग मुख्य होनेसे और आगे अरागद्वेषतः कृतम् पदोंमें भी आसक्तिके त्यागकी बात आनेसे यहाँ सङ्गरहितम् पदका अर्थ कर्तृत्वअभिमानरहित लिया गया है (टिप्पणी प0 905)।अरागद्वेषतः कृतम् पदोंका तात्पर्य है कि रागद्वेषसे रहित हो करके कर्म किया जाय अर्थात् कर्मका ग्रहण रागपूर्वक न हो और कर्मका त्याग द्वेषपूर्वक न हो तथा कर्म करनेके जितने साधन (शरीर? इन्द्रियाँ? अन्तःकरण आदि) हैं? उनमें भी रागद्वेष न हो।अरागद्वेषतः पदसे वर्तमानमें रागका अभाव बताया है और अफलप्रेप्सुना पदसे भविष्यमें रागका अभाव बताया है। तात्पर्य यह है कि भविष्यमें मिलनेवाले फलकी इच्छासे रहित मनुष्यके द्वारा कर्म किया जाय अर्थात् क्रिया और पदार्थोंसे निर्लिप्त रहते हुए असङ्गतापूर्वक कर्म किया जाय तो वह सात्त्विक कहा जाता है।इस सात्त्विक कर्ममें सात्त्विकता तभीतक है? जबतक अत्यन्त सूक्ष्मरूपसे भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है। जब प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है? तब यह कर्म अकर्म हो जाता है। सम्बन्ध -- अब राजस कर्मका वर्णन करते हैं।
।।18.23।। त्रिविध कर्मों में सात्त्विक कर्म सर्वश्रेष्ठ है? जो कर्ता के मन में शान्ति तथा उसके कर्मक्षेत्र में सामञ्जस्य उत्पन्न करता है। प्राय मनुष्य फल में आसक्त होकर अपने व्यक्तिगत राग और द्वेष से प्रेरित होकर कर्म करता है। परन्तु यहाँ कहा गया है कि नियत अर्थात् कर्तव्य कर्म को अनासक्त भाव से तथा राग द्वेष से रहित होकर करने पर ही वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। सात्त्विक पुरुष कर्म को इसीलिए करता है? क्योंकि कर्म कर्तव्य है और वही ईश्वर की पूजा है। ऐसी भावना और प्रेरणा से युक्त होने पर मनुष्य अपनी ही सामान्य कार्यकुशलता एवं श्रेष्ठता से कहीं अधिक ऊँचा उठ जाता है। अर्पण की भावना से किये गये कर्मों में राग और द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता।समस्त साधु सन्तों का सेवाकार्य इस तथ्य का प्रमाण है। अनेक अवसरों पर हम भी इसी भावना से कर्म करते हैं। ऐसा विशिष्ट उदाहरण? उस अवसर का है जब हमारे पैर में कोई चोट लग जाती है। उस समय हम झुक कर पैर को देखने लग जाते हैं और शरीर के समस्त अंग उसकी सेवा में जुट जाते हैं। इस सेवा कार्य में हम यह नहीं कह सकते कि हमें अपने पैर से अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक प्रेम है। मनुष्य अपने सम्पूर्ण शरीर में निवास करता है और उसके लिए शरीर के सभी अंग समान होते हैं।इसी प्रकार? जो सात्त्विक पुरुष एकमेव अद्वितीय? सच्चित्स्वरूप सर्वव्यापी परमात्मा को आत्मस्वरूप में पहचान लेता है? तो उस पुरुष के लिए कोढ़ी और राजकुमार? स्वस्थ और अस्वस्थ? दरिद्र और सम्पन्न ये सभी लोग अपने आध्यात्मिक शरीर के विभिन्न अंगों के समान ही प्रतीत होते हैं। ऐसा पुरुष अनुप्राणित आनन्द और कृतार्थता की भावना से जगत् की सेवा करता है।इस प्रकार? सात्त्विक कर्मों की पूर्णता उनके करने में ही होती है। फलप्राप्ति का विचार भी उसमें उत्पन्न नहीं होता है।
18.23 The daily obligatory action which is performed without attachment and without likes or dislikes by one who does not hanker for rewards, that is said to be born of sattva.
18.23 An action which is ordained, which is free from attachment, and which is done without love or hatred by one who is not desirous of any reward that action is declared to be Sattvic.
18.23. The object that has been acired with determination, without attachment and without desire or hatred, by one who does not crave to reap the fruit [of his action] - that is declared to be of the Sattva (Strand).
18.23 नियतम् ordained? सङ्गरहितम् free from attachment? अरागद्वेषतः without love or hatred? कृतम् done? अफलप्रेप्सुना by one not desirous of the fruit? कर्म action? यत् which? तत् that? सात्त्विकम् Sattvic (pure)? ुच्यते is declared.Commentary Niyatam Ordained Obligatory. One is not excited to perform an obligatory action through love or hatred.This is a pure act. The performer of such pure action experiences great joy. He does his duty or any other work wholeheartedly not caring for the reward but offering it willingly at the feet of the Lord. He works in accordancw with the dictates of the scriptures. Now I will explain to thee? O Arjuna? the nature of action which is Rajasic or passionate. Do thou listen to Me with rapt attention.
18.23 Niyatam, the daily obligatory; karma, action; yat, which; is krtam, performed; sanga-rahitam, without attachment; araga-dvesatah, without likes or dislikes; aphala-prepsuna, by one who does not hanker for rewards, by an agent who is the opposite of one who is desirous of the fruits of action; tat, that (action); ucyate, is said to be; sattvikam, born of sattva.
18.23 See Comment under 18.25
18.23 Obligatory act is that which is appropriate to ones own station and stage of life. Doing it without attachment means devoid of attachment to agency etc., and without desire or aversion means that it is not done through desire to win fame and aversion to win notoriety, i.e., is performed without ostentation - when obligatory works are performed in the above-mentioned way by one who is not after their fruits, they are said to be Sattvika.
Having explained the three types of knowledge, the Lord now explains the three types of action. The work which is performed regularly (niyatam), which is without attachment (sanga rahitam), performed with neither like or dislike (araga dvesatah), done without desire for results (aphala prepsuna), is called sattvika work.
Now the three fold influences of the three gunas or modes of material nature in respect to actions will be described by Lord Krishna in three verses. Actions that are prescribed and ordained in the Vedic scriptures and performed as a matter of duty without attachment and without conceptions of attraction, such as love of ones family nor repulsion such as hatred of ones enemies and are devoid of the desire for coveting rewards; such actions are known to be situated in sattva guna the mode of goodness.
In chapter three, verse 30 Lord Krishna spoke of surrendering all actions with mind fixed on the Supreme Lord. This is because not performing actions according to duty, time and circumstance will cause demerits and give obstacles. Thus the performance of prescribed Vedic activities with the results surrendered unto the Supreme Lord due to knowing and appreciating His sublime magnificence as the creator of all is known as regulated duties in sattva guna the mode of goodness. Now begins the summation. The statement in verse thirty of fixating the consciousness should be understood in meditating on the principle form of the Supreme Lord one is attracted to. The act of surrendering all actions to the Supreme Lord is such that consciousness is fixed blissfully without cessation. Such actions of communion with the Supreme Lord Krishna or any of His authorised incarnations as revealed in Vedic scriptures is known by the enlightened as situated fully in sattva guna the mode of goodness.
Lord Krishna uses the word niyatma meaning consistency and refers to the regulated performance of prescribed Vedic activities as a matter of duty according to varnasrama the position and status one is situated in society. The words sanga-rahitam means free from attachment and egoism that one is the doer. The words araga-dvestha mean devoid of attraction to fame, power and an enjoying nature as well as void of aversion for defeat, failure and obscurity. Acts performed without a mentality of attraction and aversion are without vanity and ego and bereft of desire for phala or rewards and are firmly situated in sattva guna the mode of goodness.
Lord Krishna uses the word niyatma meaning consistency and refers to the regulated performance of prescribed Vedic activities as a matter of duty according to varnasrama the position and status one is situated in society. The words sanga-rahitam means free from attachment and egoism that one is the doer. The words araga-dvestha mean devoid of attraction to fame, power and an enjoying nature as well as void of aversion for defeat, failure and obscurity. Acts performed without a mentality of attraction and aversion are without vanity and ego and bereft of desire for phala or rewards and are firmly situated in sattva guna the mode of goodness.
Niyatam sangarahitam araagadweshatah kritam; Aphalaprepsunaa karma yattat saattwikamuchyate.
niyatam—in accordance with scriptures; saṅga-rahitam—free from attachment; arāga-dveṣhataḥ—free from attachment and aversion; kṛitam—done; aphala-prepsunā—without desire for rewards; karma—action; yat—which; tat—that; sāttvikam—in the mode of goodness; uchyate—is called