त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।18.3।।
।।18.3।।श्रीभगवान् बोले -- कई विद्वान् काम्यकर्मोंके त्यागको संन्यास कहते हैं और कई विद्वान् सम्पूर्ण कर्मोंके फलके त्यागको त्याग कहते हैं। कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये और कई विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये।
।।18.3।। व्याख्या -- दार्शनिक विद्वानोंके चार मत हैं --,1 -- काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः -- कई विद्वान् कहते हैं कि काम्यकर्मोंके त्यागका नाम संन्यास है अर्थात् इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्तिके लिये जो कर्म किये जाते हैं? उनका त्याग करनेका नाम संन्यास है।2 -- सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः -- कई विद्वान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मोंके फलकी इच्छाका त्याग करनेका नाम त्याग है अर्थात् फल न चाहकर कर्तव्यकर्मोंको करते रहनेका नाम त्याग है।3 -- त्याज्यं दोष (टिप्पणी प0 870.1) वदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः -- कई विद्वान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये।4 -- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे -- अन्य विद्वान् कहते हैं कि दूसरे सब कर्मोंका भले ही त्याग कर दें? पर यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये।उपर्युक्त चारों मतोंमें दो विभाग दिखायी देते हैं -- पहला और तीसरा मत संन्यास(सांख्ययोग) का है तथा दूसरा और चौथा मत त्याग(कर्मयोग) का है। इन दो विभागोंमें भी थोड़ाथोड़ा अन्तर है। पहले मतमें केवल काम्यकर्मोंका त्याग है और तीसरे मतमें कर्ममात्रका त्याग है। ऐसे ही दूसरे मतमें कर्मोंके फलका त्याग है और चौथे मतमें यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंके त्यागका निषेध है।दार्शनिकोंके उपर्युक्त चार मतोंमें क्याक्या कमियाँ हैं और उनकी अपेक्षा भगवान्के मतमें क्याक्या विलक्षणताएँ हैं? इसका विवेचन इस प्रकार है --,1 -- काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासम् -- संन्यासके इस पहले मतमें केवल काम्यकर्मोंका त्याग बताया गया है परन्तु इसके अलावा भी नित्य? नैमित्तिक आदि आवश्यक कर्तव्यकर्म बाकी रह जाते हैं (टिप्पणी प0 870.2)। अतः यह मत पूर्ण नहीं है क्योंकि इसमें न तो कर्तृत्वका त्याग बताया है और न स्वरूपमें स्थिति ही बतायी है। परन्तु भगवान्के मतमें कर्मोंमें कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है जैसे -- इसी अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें जिसमें अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि कर्मफलमें लिप्त नहीं होती -- ऐसा कहकर कर्तृत्वाभिमानका त्याग बताया है और अगर वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे? तो भी न मारता है? न बँधता है -- ऐसा कहकर स्वरूपमें स्थिति बतायी है।2 -- त्याज्यं दोषवदित्येके -- संन्यासके इस दूसरे मतमें सब कर्मोंको दोषकी तरह छोड़नेकी बात है। परन्तु सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग कोई कर ही नहीं सकता (गीता 3। 5) और कर्ममात्रका त्याग करनेसे जीवननिर्वाह भी नहीं हो सकता (गीता 3। 8)। इसलिये भगवान्ने नित्य कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेको राजसतामस त्याग बताया है (18। 78)।3 -- सर्वकर्मफलत्यागम् -- त्यागके इस पहले मतमें केवल फलका त्याग बताया है। यहाँ फलत्यागके अन्तर्गत केवल कामनाके त्यागकी ही बात आयी है (टिप्पणी प0 871.1)। ममताआसक्तिके त्यागकी बात इसके अन्तर्गत नहीं ले सकते क्योंकि ऐसा लेनेपर दार्शनिकों और भगवान्के मतोंमें कोई अन्तर नहीं रहेगा। भगवान्के मतमें कर्मकी आसक्ति और फलकी आसक्ति -- दोनोंके ही त्यागकी बात आयी है -- सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च (गीता 18। 6)।4 -- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यम् -- त्याग अर्थात् कर्मयोगके इस दूसरे मतमें यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग न करनेकी बात है। परन्तु इन तीनोंके अलावा वर्ण? आश्रम? परिस्थिति आदिको लेकर जितने कर्म आते हैं? उनको करने अथवा न करनेके विषयमें कुछ नहीं कहा गया है -- यह इसमें अधूरापन है। भगवान्के मतमें इन कर्मोंका केवल त्याग ही नहीं करना चाहिये? प्रत्युत इनको न करते हों? तो जरूर करना चाहिये और इनके अतिरिक्त तीर्थ? व्रत आदि कर्मोंको भी फल एवं आसक्तिका त्याग करके करना चाहिये (18। 56)। सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें दार्शनिक विद्वानोंके चार मत बतानेके बाद अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें पहले त्यागके विषयमें अपना मत बताते हैं।