प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।
।।18.30।।हे पृथानन्दन जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको? कर्तव्य और अकर्तव्यको? भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती है? वह बुद्धि सात्त्विकी है।
।।18.30।। हे पार्थ जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति? कार्य और अकार्य? भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है? वह बुद्धि सात्विकी है।।
।।18.30।। व्याख्या -- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च -- साधकमात्रकी प्रवृत्ति और निवृत्ति -- ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कभी वह संसारका कामधंधा करता है? तो यह प्रवृत्तिअवस्था है और कभी संसारका कामधंधा छोड़कर एकान्तमें भजनध्यान करता है? तो यह निवृत्तिअवस्था है। परन्तु इन दोनोंमें सांसारिक कामनासहित प्रवृत्ति और वासनासहित निवृत्ति (टिप्पणी प0 912) -- ये दोनों ही अवस्थाएँ प्रवृत्ति हैं अर्थात् संसारमें लगानेवाली हैं? तथा सांसारिक कामनारहित प्रवृत्ति और वासनारहित निवृत्ति -- ये दोनों ही अवस्थाएँ निवृत्ति हैं अर्थात् परमात्माकी तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिये साधक इनको ठीकठीक जानकर,कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्तिको ही ग्रहण करें।वास्तवमें गहरी दृष्टिसे देखा जाय तो कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति भी यदि अपने सुख? आराम आदिके लिये की जायँ तो वे दोनों ही प्रवृत्ति हैं क्योंकि वे दोनों ही बाँधनेवाली हैं अर्थात् उनसे अपना व्यक्तित्व नहीं मिटता। परन्तु यदि कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति -- दोनों केवल दूसरोंके सुख? आराम और हितके लिये ही की जायँ? तो वे दोनों ही निवृत्ति हैं क्योंकि उन दोनोंसे ही अपना व्यक्तित्व नहीं रहता। वह अव्यक्तित्व कब नहीं रहता जब प्रवृत्ति और निवृत्ति जिसके प्रकाशसे प्रकाशित होती हैं तथा जो प्रवृत्ति और निवृत्तिसे रहित है? उस प्रकाशक अर्थात् तत्त्वकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही प्रवृत्ति और निवृत्ति की जाय। प्रवृत्ति तो की जाय प्राणिमात्रकी सेवाके लिये और निवृत्ति की जाय परम विश्राम अर्थात् स्वरूपस्थितिके लिये।कार्याकार्ये -- शास्त्र? वर्ण? आश्रमकी मर्यादाके अनुसार जो काम किया जाता है? वह कार्य है और शास्त्र आदिकी मर्यादासे विरुद्ध जो काम किया जाता है वह अकार्य है।जिसको हम कर सकते हैं? जिसको जरूर करना चाहिये और जिसको करनेसे जीवका जरूर कल्याण होता है? वह कार्य अर्थात् कर्तव्य कहलाता है और जिसको हमें नहीं करना चाहिये तथा जिससे जीवका बन्धन होता है? वह अकार्य अर्थात् अकर्तव्य कहलाता है। जिसको हम नहीं कर सकते? वह अकर्तव्य नहीं कहलाता? वह तो अपनी असामर्थ्य है।भयाभये -- भय और अभयके कारणको देखना चाहिये। जिस कर्मसे अभी और परिणाममें अपना और दुनियाका अनिष्ट होनेकी सम्भावना है? वह कर्म भय अर्थात् भयदायक है और जिस कर्मसे अभी और परिणाममें अपना और दुनियाका हित होनेकी सम्भावनना है? वह कर्म अभय अर्थात् सबको अभय करनेवाला है।मनुष्य जब करनेलायक कार्यसे च्युत होकर अकार्यमें प्रवृत्त होता है? तब उसके मनमें अपनी मनबड़ाईकी हानि और निन्दाअपमान होनेकी आशङ्कासे भय पैदा होता है। परन्तु जो अपनी मर्यादासे कभी विचलित नहीं होता? अपने मनसे किसीका भी अनिष्ट नहीं चाहता और केवल परमात्मामें ही लगा रहता है? उसके मनमें सदा अभय बना रहता है। यह अभय ही मनुष्यको सर्वथा अभयपद -- परमात्माको प्राप्त करा देता है।बन्धं मोक्षं च या वेत्ति -- जो बाहरसे तो यज्ञ? दान? तीर्थ? व्रत आदि उत्तमसेउत्तम कार्य करता है परन्तु भीतरसे असत् जड? नाशवान् पदार्थोंको और स्वर्ग आदि लोकोंको चाहता है? उसके लिये वे सभी कर्म बन्ध अर्थात् बन्धनकारक ही हैं। केवल परमात्मासे ही सम्बन्ध रखना? परमात्माके सिवाय कभी किसी अवस्थामें असत् संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध न रखना मोक्ष अर्थात् मोक्षदायक है।अपनेको जो वस्तुएँ नहीं मिली हैं? उनकी कामना होनेसे मनुष्य उनके अभावका अनुभव करता है। वह अपनेको उन वस्तुओंके परतन्त्र मानता है और वस्तुओंके मिलनेपर अपनेको स्वतन्त्र मानता है। वह समझता तो यह है कि मेरे पास वस्तुएँ होनेसे मैं स्वतन्त्र हो गया हूँ? पर हो जाता है उन वस्तुओंके परतन्त्र वस्तुओंके अभाव और वस्तुओंके भाव -- इन दोनोंकी परतन्त्रतामें इतना ही फरक पड़ता है कि वस्तुओंके अभावमें परतन्त्रता दीखती है? खटकती है और वस्तुओंके होनेपर वस्तुओंकी परतन्त्रता परतन्त्रताके रूपमें दीखती ही नहीं क्योंकि उस समय मनुष्य अन्धा हो जाता है। परन्तु हैं ये दोनों ही परतन्त्रता? और परतन्त्रता ही बन्धन है। अभावकी परतन्त्रता प्रकट विष है और भावकी परतन्त्रता छिपा हुआ मीठा विष है? पर हैं दोनों ही विष। विष तो मारनेवाला ही होता है।निष्कर्ष यह निकला कि सांसारिक वस्तुओंकी कामनासे ही बन्धन होता है और परमात्माके सिवाय किसी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? देश? काल आदिकी कामना न होनेसे मुक्ति होती है (टिप्पणी प0 913)। यदि मनमें कामना है तो वस्तु पासमें हो तो बन्धन और पासमें न हो तो बन्धन यदि मनमें कामना नहीं है तो वस्तु पासमें हो तो मुक्त और पासमें न हो तो मुक्तिबुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी -- इस प्रकार जो प्रवृत्तिनिवृत्ति? कार्यअकार्य? भयअभय और बन्धमोक्षके वास्तविक तत्त्वको जानती है? वह बुद्धि सात्त्विकी है।इनके वास्तविक तत्त्वको जानना क्या है प्रवृत्तिनिवृत्ति? कार्यअकार्य? भयअभय और बन्धमोक्ष -- इनको गहरी रीतिसे समझकर? जिसके साथ वास्तवमें हमारा सम्बन्ध नहीं है? उस संसारके साथ सम्बन्ध न मानना और जिसके साथ हमारा स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है? ऐसे (प्रवृत्तिनिवृत्ति आदिके आश्रय तथा प्रकाशक) परमात्माको तत्त्वसे ठीकठीक जानना -- यही सात्त्विकी बुद्धिके द्वारा वास्तविक तत्त्वको ठीकठीक जानना है। सम्बन्ध -- अब राजसी बुद्धिके लक्षण बताते हैं।
।।18.30।। वह बुद्धि सर्वोच्च मानी जाती है? जो अपने कार्यक्षेत्र की वस्तुओं? व्यक्तियों एवं घटनाओं को यथार्थ रूप में तत्परता से समझ सकती है। बुद्धि के अनेक कार्य हैं? जैसे निरीक्षण? विश्लेषण? वर्गीकरण? संकल्पना? कामना? स्मरण करना इत्यादि तथापि इन सब में जिस क्षमता की आवश्यकता होती है? वह है विवेक की क्षमता। विवेक के बिना यथार्थ निरीक्षण? निर्णय आदि असंभव हैं। अत बुद्धि का मुख्य कार्य है? विवेक।प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो शब्दों के परिभाषिक अर्थ क्रमश कर्ममार्ग और संन्यास मार्ग हैं। एक साधक को इन दोनों के वास्तविक स्वरूप को समझकर स्वयं की अभिरुचि एवं क्षमता के अनुसार किसी एक मार्ग का यथायोग्य अनुरक्षण करना चाहिये। अन्यथा कोई साधक कर्म में ही आसक्त होकर रह जायेगा? तो अन्य साधक संन्यास के नाम पर केवल पलायन ही करेगंे।कार्य और अकार्य सत्य और मिथ्या का विवेक करने वाली बुद्धि का प्रयोजन? कार्य और अकार्य अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक करना भी है। मनुष्य को यह जानना आवश्यक होता है कि कौन से कर्म कर्तव्य और उचित हैं तथा कौन से कर्म निषिद्ध और अनुचित हैं। इस विवेक के न होने पर मनुष्य कभीकभी क्रोधावेश या मिथ्या अभिमान के कारण अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे देता है? जिसका उसे कालान्तर में पश्चाताप होता है। अर्जुन ने भी मानसिक उन्माद की स्थिति में इस विवेक को खो दिया था? जिसका मुख्य कारण उसका मित्र? बन्धु? परिवार से अत्याधिक स्नेह ही था।भय और अभय मूढ़ लोग अत्याधिक विषयासक्ति के कारण अवैध? अनैतिक और अधार्मिक कार्य करने से भयभीत नहीं होते परन्तु शास्त्रों का अध्ययन और आत्मानुसंधान जैसे श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त होने में उन्हें भय प्रतीत होता है। संन्यास और वैराग्य जैसे शब्दों से भी उन्हें डर लगता है। अत वह बुद्धि सात्त्विक है? जो भय और अभय के कारणों का सम्यक् प्रकार से विवेक कर सकती है।बन्ध और मोक्ष अपने सच्चिदानन्दस्वरूप के अज्ञान से ही हम विषयों से सुख प्राप्ति की कामना करके कर्म में प्रवृत्त होते हैं। कर्मफल के उपभोग से वासनाएं उत्पन्न होती हैं? जो पुन हमें कर्म में प्रवृत्त करती रहती हैं। ये अज्ञानजनित वासनाएं ही हमारे बन्धन को दृढ़ करती हैं। अत आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान के नाश से ही हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। जो बुद्धि बन्धन के कारण और मोक्ष के साधन को तत्त्वत जानती है? वही सात्त्विक बुद्धि है।सारांशत? प्रवृत्ति और निवृत्ति? कार्याकार्य? भयाभय और बन्धमोक्ष के स्वरूप को यथावत् पहचानने वाली बुद्धि सात्त्विक है।सात्त्विक बुद्धि मरुस्थल में भी सुन्दर उपवन की रचना कर सकती है और विफलता की प्रत्येक आशंका से सफलता का सम्पादन कर सकती है। बुद्धि और धृति के बिना जीवन में प्राप्त होने वाले सुअवसर भी विपत्ति के कारण बन जाते हैं अथवा धूलि में मिल जाते हैं। सात्त्विक बुद्धि घोरतम त्रासदियों को श्रेष्ठतम सुख समृद्धियों में परिवर्तित कर सकती है।राजसी बुद्धि क्या है सुनो
18.30 O Partha, that intellect is born of sattva which understands action and withdrawal, duty and what is not duty, the sources of fear and fearlessness, and bondage and freedom.
18.30 The intellect which knows the path of work and renunciation, what ought to be done and what ought not to be done, fear and fearlessness, bondage and liberation that intellect is Sattvic (pure), O Arjuna.
18.30. The intellect which knows the activity and the cessation from the activity, the proper and improper actions, the fear and non-fear, and the bondage and emancipation-that intellect is considered to be of the Sattva (Strand).
18.30 प्रवृत्तिम् action? the path of work? च and? निवृत्तिम् the path of renunciation? च and? कार्याकार्ये what ought to be done and what ought not to be done? भयाभये fear and fearlessness? बन्धम् bondage? मोक्षम् liberation? च and? या which? वेत्ति knows? बुद्धिः intellect? सा that? पार्थ O Arjuna? सात्त्विकी Sattvic.Commentary The threefold nature of knowledge has been described already (verse 22 above). Now the threefold nature of the intellect is described. Knowledge is different from the intellect.Pravritti Action The cause of bondage the path of action. Nivritti Inaction The cause of liberation the path of renunciation the path of Sannyasa.Karyakarye The pure intellect knows what ought to be done and what ought not to be done at,particular places and times it knows the actions that produce visible or invisible results? that are enjoined or prohibited by the scriptures. It guides a man who relies on the scriptural ordinances for his daily conduct of life.Bhayabhaye Fear and fearlessness The cause of fear and fearlessness either visible or invisible.Bandham moksham Bondage and liberation together with their causes.Knowledge is a Vritti (function or state) of the intellect whereas intellect is what functions or undergoes the change of state. Even firmness is only a particular Vritti (modification or state) of the intellect. (Cf.XVIII.20)
18.30 O Partha, sa, that; buddhih, intellect; is sattviki, born of sattva; ya, which; vetti, understands; pravrttim, action, the path of rites and duties, which is the cause of bondage; and nivrttim, withdrawal, the path of renunciation, which is the cause of Liberation-since action and withdrawal are mentioned in the same sentence along with bondage and freedom, therefore they mean the path of rites and duties and of renunciation-; karya-akarye, duty and what is not duty, i.e. what is enjoined or prohibited, [Ast. adds laukike vaidike va (ordinary or Vedic injunctions and prohibitions) after vihita-pratisiddhe; and it adds sastrabuddheh before kartavya-akartavye-what ougth to be done or ought not to be done by one who relies on the scriptures.-Tr.] what ought to be done or ought not to be done, action and inaction. With regard to what? With regard to action leading to seen or unseen, results, undertaken according to place, time, etc. Bhaya-adhaye, the sources of fear and fearlessness, i.e. the cuases of fear and fearlessness, with regard to seen or unseen objects; bandham, bondage, along with its cause; and moksam, freedom, along with its cause. In this context, knowing is a function of the intellect; but the intellect is the possesser of the function. Fortitude also is only a particular function of the intellect.
18.30 See Comment under 18.32
18.30 Activity is that Dharma which is the means for wordly prosperity. Renunciation is that Dharma which is the means for release. The Buddhi which knows both these as they are, is Sattviki-buddhi. Further, such a Buddhi is capable of distinguishing between what ought to be done and what ought not to be done by persons of different stations in life, having as their duty activity or renunciation at particular places or times. Such a Buddhi helps them to know This ought to be done and this ought not to be done. Such a Buddhi discerns transgression of the Sastras as the cause of fear and observance of the Sastras as the cause of fearlessness. It enables one to distinguish between bondage and release, the true nature of Samsara and deliverance from it. The Buddhi that functions in these ways is Sattvika.
The person of sattvika intelligence understands the difference between fear caused by samsara and fearlessness caused by freedom from samsara.
Lord Krishna explains that those whose buddhi or intellect is situated in sattva guna the mode of goodness possess the understanding due to refined intelligence that has a natural inclination towards righteousness and abstinence from unrighteousness. They are resolute and comprehend that righteous actions lead to moksa or liberation from material existence and unrighteous actions lead to the bondage of samsara the perpetual cycle of birth and death. Innately their consciousness is aware of what is to be done and what is not to be done according to time, place and circumstance. Such consciousness should be understood as the agency and the doer is but the instrument. This can be understood by the question: Is there enough wood to cook the food? Although it is not the wood that does the cooking it is the fire. So the agent is like the wood utilised as the instrument and the fire is like the consciousness represented as the agency.
There is no commentary for this verse.
1) pravrttinca is actions performed under the auspices of dharma or righteousness 2) nivrittinca is refraining from actions opposed to dharma which gives liberation 3) karya-akarye is knowing what is appropriate according to time, place and circumstance whether adhering to pravrittinca or nivrittinca 4) bhaya-abhaye is fear stemming from not adhering to the injunctions of the Vedic scriptures and fearlessness is by observing the ordinances of the Vedic scriptures 5) bandha is samsara or enslavement in the perpetual cycle of birth and death 6) moksa is liberation from material existence and release from samsara Lord Krishna is affirming the essentials of those whose buddhi or intellect is situated in sattva guna the mode of goodness as only they have the ability to realise these points.
1) pravrttinca is actions performed under the auspices of dharma or righteousness 2) nivrittinca is refraining from actions opposed to dharma which gives liberation 3) karya-akarye is knowing what is appropriate according to time, place and circumstance whether adhering to pravrittinca or nivrittinca 4) bhaya-abhaye is fear stemming from not adhering to the injunctions of the Vedic scriptures and fearlessness is by observing the ordinances of the Vedic scriptures 5) bandha is samsara or enslavement in the perpetual cycle of birth and death 6) moksa is liberation from material existence and release from samsara Lord Krishna is affirming the essentials of those whose buddhi or intellect is situated in sattva guna the mode of goodness as only they have the ability to realise these points.
Pravrittim cha nivrittim cha karyaakaarye bhayaabhaye; Bandhammoksham cha yaa vetti buddhih saa paartha saattwikee.
pravṛittim—activities; cha—and; nivṛittim—renuncation from action; cha—and; kārya—proper action; akārye—improper action; bhaya—fear; abhaye—without fear; bandham—what is binding; mokṣham—what is liberating; cha—and; yā—which; vetti—understands; buddhiḥ—intellect; sā—that; pārtha—son of Pritha; sāttvikī—in the nature of goodness