यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।18.35।।
।।18.35।।हे पार्थ दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धृतिके द्वारा निद्रा? भय? चिन्ता? दुःख और घमण्डको भी नहीं छोड़ता? वह धृति तामसी है।
।।18.35।। हो पार्थ दुर्बुद्धि पुरुष जिस धारणा के द्वारा? स्वप्न? भय? शोक? विषाद और मद को नहीं त्यागता है? वह धृति तामसी है।।
।।18.35।। व्याख्या -- यया स्वप्नं भयं ৷৷. सा पार्थ तामसी -- तामसी धारणशक्तिके द्वारा मनुष्य ज्यादा निद्रा? बाहर और भीतरका भय? चिन्ता? दुःख और घमण्ड -- इनका त्याग नहीं करता? प्रत्युत इन सबमें रचापचा रहता है। वह कभी ज्यादा नींदमें पड़ा रहता है? कभी मृत्यु? बीमारी? अपयश? अपमान? स्वास्थ्य? धन आदिके भयसे भयभीत होता रहता है? कभी शोकचिन्तामें डूबा रहता है? कभी दुःखमें मग्न रहता है और कभी अनुकूल पदार्थोंके मिलनेसे घमण्डमें चूर रहता है।निद्रा? भय? शोक आदिके सिवाय प्रमाद? अभिमान? दम्भ? द्वेष? ईर्ष्या आदि दुर्गुणोंको तथा हिंसा? दूसरोंका अपकार करना? उनको कष्ट देना? उनके धनका किसी तरहसे अपहरण करना आदि दुराचोंको भी एव च पदोंसे मान लेना चाहिये।इस प्रकार निद्रा? भय आदिको और दुर्गुणदुराचारोंको पकड़े रहनेवाली अर्थात् उनको न छोड़नेवाली धृति तामसी होती है।भगवान्ने तैंतीसवेंचौंतीसवें श्लोकोंमें धारयते पदसे सात्त्विक और राजस मनुष्यके द्वारा क्रमशः सात्त्विकी और राजसी धृतिको धारण करनेकी बात कही है परन्तु यहाँ तामस मनुष्यके द्वारा तामसी धृतिको धारण,करनेकी बात नहीं कही। कारण यह है कि जिसकी बुद्धि बहुत ही दुष्टा है? जिसकी बुद्धिमें अज्ञता? मूढता भरी हुई है? ऐसा मिलन अन्तःकरणवाला तामस मनुष्य निद्रा? भय? शोक आदि भावोंको छोड़ता ही नहीं। वह उनमें स्वाभाविक ही रचापचा रहता है।सात्त्विकी? राजसी और तामसी -- इन तीनों धृतियोंके वर्णनमें राजसी और तामसी धृतिमें तो क्रमशः फलाकाङ्क्षी और दुर्मेधाः पदसे कर्ताका उल्लेख किया है? पर सात्त्विकी धृतिमें कर्ताका उल्लेख किया ही नहीं। इसका कारण यह है कि सात्त्विकी धृतिमें कर्ता निर्लिप्त रहता है अर्थात् उसमें कर्तृत्वका लेप नहीं होता परन्तु राजसी और तामसी धृतिमें कर्ता लिप्त होता है।विशेष बातमानवशरीर विवेकप्रधान है। मनुष्य जो कुछ करता है? उसे वह विचारपूर्वक ही करता है। वह ज्यों ही विचारपूर्वक काम करता है? त्यों ही विवेक ज्यादा स्पष्ट प्रकट होता है। सात्त्विक मनुष्यकी धृति(धारणशक्ति) में यह विवेक साफसाफ प्रकट होता है कि मुझे तो केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है। राजस मनुष्यकी धृतिमें संसारके पदार्थों और भोगोंमें रागकी प्रधानता होनेके कारण विवेक वैसा स्पष्ट नहीं होता फिर भी इस लोकमें सुखआराम? मानआदर मिले और परलोकमें अच्छी गति मिले? भोग मिले -- इस विषयमें विवेक काम करता है और आचरण भी मर्यादाके अनुसार ही होता है। परन्तु तामस मनुष्यकी धृतिमें विवेक बिलकुल ही दब जाता है। तामस भावोंमें उसकी इतनी दृढ़ता हो जाती है कि उसे उन भावोंको धारण करनेकी आवश्यकता ही नहीं रहती। वह तो निद्रा? भय आदि तामसभावोंमें ही रचापचा रहता है।पारमार्थिक मार्गमें क्रिया इतना काम नहीं करती जितना अपना उद्देश्य काम करता है। स्थूल क्रियाकी प्रधानता स्थूलशरीरमें? चिन्तनकी प्रधानता सूक्ष्मशरीरमें और स्थिरताकी प्रधानता कारणशरीरमें होती है? यह सब क्रिया ही है। क्रिया तो शरीरोंमें होती है? पर मेरेको तो केवल पारमार्थिक मार्गपर ही चलना है -- ऐसा उद्देश्य या लक्ष्य स्वयं(चेतनस्वरूप) में ही रहता है। स्वयंमें जैसा लक्ष्य होता है? उसके अनुसार स्वतः क्रियाएँ होती हैं। जो चीज स्वयंमें रहती है? वह कभी बदलती नहीं। उस लक्ष्यकी दृढ़ताके लिये सात्त्विकी बुद्धिकी आवश्यकता है और बुद्धिके निश्चयको अटल रखनेके लिये सात्त्विकी धृतिकी आवश्यकता है। इसलिये यहाँ तीसवेंसे पैंतीसवें श्लोकतक कुल छः श्लोकोंमें छः बार पार्थ सम्बोधनका प्रयोग करके भगवान् साधकमात्रके प्रतिनिधि अर्जुनको चेताते हैं कि पृथानन्दन लौकिक वस्तुओं और व्यक्तियोंके लिये चिन्ता न करके तुम अपने लक्ष्यको दृढ़तासे धारण किये रहो। अपनेमें कभी भी राजसतामसभाव न आने पायें -- इसके लिये निरन्तर सजग रहो, सम्बन्ध -- मनुष्योंकी कर्मोंमें प्रवृत्ति सुखके लोभसे ही होती है अर्थात् सुखकर्मसंग्रहमें हेतु है। अतः आगेके चार श्लोकोंमें सुखके भेद बताते हैं।
।।18.35।। इस श्लोक में वर्णित तामसी धृति को समझना कठिन नहीं है? क्योंकि हममें से अधिकांश लोगों की धृति इसी श्रेणी की है निद्रा भयादि को धारण करने वाली धृति तामसी कही गयी है।स्वप्न यह शब्द उस मन की प्रक्षेपित कल्पनाओं को इंगित करता है? जो प्राय निद्रावस्था में डूबा रहता है। अनुभव की वह अवस्था स्वप्न है? जहाँ वास्तव में वस्तुओं का अभाव होते हुए भी मनकल्पित मिथ्या विषयों का भोग होता है। तमोगुणी लोग बाह्य वस्तुओं पर अपने मन के द्वारा सुन्दरता एवं सुख का आरोप करके फिर उनकी प्राप्ति के लिए परिश्रम और संघर्षरत रहते हैं।भय ऐसे अविवेकी लोग व्यर्थ में ही अन्धकारमय भविष्य की कल्पना करके उससे भयभीत होते हैं। संभव है कि वह भयप्रद घटना कभी घटित ही न हो? किन्तु उसका काल्पनिक भय ही मनुष्य के सन्तुलन? संयम एवं सन्तोष को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है। हममें से कितने ही लोगों ने इस प्रकार के भय का अनुभव अपने जीवन में किया होगा। कुछ लोगों को भय होता है कि कल वे मरने वाले हैं? और प्रतिदिन वे पूर्व के समान ही स्वस्थ व्यक्ति के रूप में ही जागते हैं मानसिक दृष्टि से? ऐसे लोग भयोन्माद के रोगी होते हैं। और जिस दृढ़ता से वे इस भय ग्रन्थि को ग्रहण किये रहते हैं? वह वास्तव में अपूर्व होती है।शोक? विषाद और मद मनुष्य की सार्मथ्य को क्षीण करने वाले ये तीन कारण हैं। तामसी पुरुष इन्हें धारण करके एक प्रकार की आन्तरिक रिक्तता और थकान का अनुभव करता है। अतीत में हुई अनिष्ट घटना का मनुष्य को शोक होता है भविष्य को अन्धकारमय देखकर उसका मन विषाद से भर जाता है और वर्तमान काल मे कामुकतापूर्ण अनैतिक जीवन का गर्व करने में ही मूढ़ पुरुष को मद का अनुभव होता है।उपर्युक्त स्वप्नादि पाँच जीवन मूल्यों को धारण करने वाले पुरुष दुर्मेधा हैं और ऐसे पुरुषों की धृति तामसी कही जाती है।इसके पश्चात्? अब? कर्म के फल सुख का वर्णन करते हैं? जो भी त्रिविध है। भगवान् कहते हैं
18.35 That firmness is considered [Some editions read partha in place of mata (considered).-Tr.] to be born of tamas due to which a person with a corrupt intellect does not give up sleep, fear, sorrow, despondency as also sensuality.
18.35 That, by which a stupid man does not abandon sleep, fear, grief, despair and also conceit that firmness, O Arjuna, is Tamasic.
18.35. The content, whery a foolish man does not give up his sleep, fear, grief, despondency and also arrogancethat content is deemed to be of the Tamas (Strand).
18.35 यया by which? स्वप्नम् sleep? भयम् fear? शोकम् grief? विषादम् despair? मदम् conceit? एव indeed? च and? न not? विमुञ्चति abandons? दुर्मेधाः a stupid man? धृतिः firmness? सा that? पार्थ O Arjuna? तामसी Tamasic (dark).Commentary The man who is an embodiment of darkness is made up of every possible kind of evil. He is very indolent and sinful. He is inordinately addicted to sleep. He considers these to be only proper. He experiences sorrow on account of his evil actions. As he is very much attached to the body he entertains great fear. He is ever discontented at heart. He is lustful and selfconceited. He does not know how to behave. He is rude and insolent. He indulges much in sensual pleasures.
18.35 That firmness is mata, considered to be; tamasi, born of tamas; yaya, due to which; durmedha, a person with a corrupt intellect; na vimuncati, does not give up-indeed, holds fast to; svapnam, sleep; bhayam, fear; sokam, sorrow; visadam, despondency; eva ca, as also; madam, sensuality, enjoyment of objects-mentally holding these as things that must always be resorted to, considering them to be greatly important to himself, like a drunkard thinking of wine. The threefold division of action as also of agents according to the differences of the gunas has been stated. After that, now is being stated the threefold division of results and happiness:
18.33-35 Dhrtya etc. upto Tamasi mata. One restrains the activities of his mind, living breath and senses, with Yoga : i.e., thinking What is the use for me by enjoying etc. ? Let me be delighted in the Self by all means. Conseently : not with much indulgence. That content whery one fixes pleasure as his goal only in sleep, fight etc.-that content is of the Tamas (Strand).
18.35 That Dhrti by which a foolish person does not give up, i.e. persists in, sleep, and sensuous indulgence through the activities of the mind, vital force etc., - that Dhrti is of the nature of Tamas. The terms fear, grief and depression indicate the objects generating fear, grief etc. That Dhrti by which one maintains the activities of the mind, the vital force etc., as a means for these, is of the nature of Tamas.
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur.
The dhrita or determination whereby a jiva or embodied being due to acute lack of intelligence is unable to abandon sleep, fear, grief, dejection and delusion is declared by Lord Krishna as situated in tama guna the mode of ignorance.
One who exhibits dhriti or determination yet follows dharma or righteousness in a haphazard way sometimes adhering and sometimes opposing is situated in raja guna the mode of passion and one who is so deluded that they are unable to discriminate between what is real and what is unreal, what is appropriate and what is inappropriate and what is beneficial and what is detrimental is situated in tama guna or mode of ignorance. Fear, lamentation and dejection which are the indication of delusion are the by products. Exclusive loving devotion to the Supreme Lord is known as bhakti and is situated exclusively in sattva guna the mode of goodness. Because bhakti is transcendental and not mundane it is virtuous and blissful. What is recommended by the Vaisnavas, saintly sages and learned elderly as well as what is prescribed in the Vedic scriptures is always considered undeniably to be situated in sattva guna and whatever is done contrary to this is in raja guna and whatever repudiates this in tama guna. This is well corroborated in the Bhagavat Purana. The Padma Purana states that by the grace of the Supreme Lord one becomes internally elated and such elation becomes luminous.
The word svapnam means slumber inferring slothfulness. Madam is the delusion of enjoying sense objects. The dharmedah or unintelligent fools do not oppose their mind from allowing their senses to buffet then hither and thither in pursuit of sense gratification. They even sanction such treatment to satisfy their desires. The terms bhayam or dread, sokam or grief and nisadam or dejection are the by products of this delusion and those who occupy their time and energy and waste their invaluable human life as such Lord Krishna confirms are indispensably situated in tama guna.
The word svapnam means slumber inferring slothfulness. Madam is the delusion of enjoying sense objects. The dharmedah or unintelligent fools do not oppose their mind from allowing their senses to buffet then hither and thither in pursuit of sense gratification. They even sanction such treatment to satisfy their desires. The terms bhayam or dread, sokam or grief and nisadam or dejection are the by products of this delusion and those who occupy their time and energy and waste their invaluable human life as such Lord Krishna confirms are indispensably situated in tama guna.
Yayaa swapnam bhayam shokam vishaadam madameva cha; Na vimunchati durmedhaa dhritih saa paartha taamasee.
yayā—in which; svapnam—dreaming; bhayam—fearing; śhokam—grieving; viṣhādam—despair; madam—conceit; eva—indeed; cha—and; na—not; vimuñchati—give up; durmedhā—unintelligent; dhṛitiḥ—resolve; sā—that; pārtha—Arjun, the son of Pritha; tāmasī—in the mode of ignorance