ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41।।
।।18.41।। हे परन्तप ब्राह्मणों? क्षत्रियों? वैश्यों और शूद्रों के कर्म? स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं।।
।।18.41।। प्रकृति के तीन गुणों का विस्तृत वर्णन करने के पश्चात्? भगवान् श्रीकृष्ण उन गुणों के आधार पर ही मानव समाज का ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विवेकपूर्ण विभाजन करते हैं।इन चार वर्णों के लोगों में कर्तव्यों का विभाजन प्रत्येक वर्ग के लोगों के स्वभावानुसार किया गया है। स्वभाव का अर्थ प्रत्येक मनुष्य के अन्तकरण के विशिष्ट संस्कार हैं? जो किसी गुण विशेष के आधिक्य से प्रभावित हुए रहते हैं। कर्तव्यों के इस विभाजन में व्यक्ति के स्वभाव एवं व्यवहार को ध्यान में रखा जाता है। किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता का मापदण्ड उस व्यक्ति की शरीर रचना अथवा उसके केशों का वर्ण नहीं हो सकता श्रेष्ठता का मापदण्ड केवल उसका स्वभाव और व्यवहार ही हो सकता है।मनुष्यों के स्वभावों में विभिन्नता होने के कारण उनको सौंपे गये अधिकारों एवं कर्तव्यों में विभिन्नता होना स्वाभाविक ही है। अत ब्राह्मणादि चारों वर्णों के कर्तव्य परस्पर भिन्न भिन्न हैं तथापि सबका लक्ष्य समाजधारणा एवं सबकी आध्यात्मिक प्रगति ही है। प्रत्येक वर्ण के लिए शास्त्रों में विधान किये हुए कर्तव्यों का पालन? यदि उसउस वर्ण का व्यक्ति करता है तो वह व्यक्ति क्रमश तमस एवं रजस से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थित हो सकता है। तत्पश्चात् ही त्रिगुणातीत आत्मस्वरूप की अनुभूति में निष्ठा संभव होगी।प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान कर्म? कर्तव्य? बुद्धि एवं धृति के अध्ययन से ही उसका वर्ण निश्चित किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में? जब किसी पुरुष को सात्त्विक कहा जाता है? तो इसका अर्थ केवल इतना ही है कि सामान्यत उसमें सात्त्विक गुण का आधिक्य रहता है। कभीकभी सात्त्विक पुरुष में रजोगुण का अथवा तमोगुणी पुरुष में सत्त्वगुण का आधिक्य हो सकता है। कोई भी व्यक्ति केवल एक गुण से निर्मित नहीं है।आज भारतवर्ष में समाज की जो स्थिति है? उसमें इस चातुर्र्वण्य का वास्तविक स्वरूप बहुत कुछ लुप्त हो गया है। अब? केवल अनुवांशिक जन्मसिद्ध अधिकार और बाह्य शारीरिक भेद के आधार पर ही जातियाँ तथा अनेक उपजातियाँ उत्पन्न हो गयी हैं। एक सच्चा ब्राह्मण पुरुष वही है जो सत्त्वगुण प्रधान है? जिसमें इन्द्रियसंयम और मनसंयम है और जो आत्मस्वरूप का निदिध्यासन करने में समर्थ है। परन्तु आज का ब्राह्मण वर्ग मात्र जन्म के आधार पर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करता है? और यह दुर्भाग्य है कि उसे कोई सम्मान प्राप्त नहीं होता? क्योंकि अपने आप को उस सम्मान के योग्य बनाने का वह कभी प्रयत्न ही नहीं करता है।चार वर्णों के कर्मों में? सर्वप्रथम ब्राह्मण का कर्म बताते हुए भगवान् कहते हैं