स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।18.45।।
।।18.45।।अपनेअपने कर्ममें तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि(परमात्मा)को प्राप्त कर लेता है। अपने कर्ममें लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धिको प्राप्त होता है? उस प्रकारको तू मेरेसे सुन।
।।18.45।। अपनेअपने स्वाभाविक कर्म में अभिरत मनुष्य संसिद्धि को प्राप्त कर लेता है। स्वकर्म में रत मनुष्य किस प्रकार सिद्धि प्राप्त करता है? उसे तुम सुनो।।
।।18.45।। व्याख्या -- स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः -- गीताके अध्ययनसे ऐसा मालूम होता है कि मनुष्यकी जैसी स्वतःसिद्ध स्वाभाविक प्रकृति (स्वभाव) है? उसमें अगर वह कोई नयी उलझन पैदा न करे? रागद्वेष न करे तो वह प्रकृति उसका स्वाभाविक ही कल्याण कर दे। तात्पर्य है कि प्रकृतिके द्वारा प्रवाहरूपसे अपनेआप होनेवाले जो स्वाभाविक कर्म हैं? उनका स्वार्थत्यागपूर्वक प्रीति और तत्परतासे आचरण करे परन्तु कर्मोंके प्रवाहके साथ न राग हो? न द्वेष हो और न फलेच्छा हो। रागद्वेष और फलेच्छासे रहित होकर क्रिया करनेसे करनेका वेग शान्त हो जाता है और कर्ममें आसक्ति न होनेसे नया वेग पैदा नहीं होता। इससे प्रकृतिके पदार्थों और क्रियाओँके साथ निर्लिप्तता (असंगता) आ जाती है। निर्लिप्तता होनेसे प्रकृतिकी क्रियाओंका प्रवाह स्वाभाविक ही चलता रहता है और उनके साथ अपना कोई सम्बन्ध न रहनेसे साधककी अपने स्वरूपमें स्थिति हो जाती है? जो कि प्राणिमात्रकी स्वतःस्वाभिवक है। अपने स्वरूपमें स्थिति होनेपर उसका परमात्माकी तरफ स्वाभाविक आकर्षण हो जाता है। परन्तु यह सब होता है कर्मोंमें अभिरति होनेसे? आसक्ति होनेसे नहीं।कर्मोंमें एक तो अभिरति होती है और एक आसक्ति होती है। अपने स्वाभाविक कर्मोंको केवल दूसरोंके हितके लिये तत्परता और उत्साहपूर्वक करनेसे अर्थात् केवल देनेके लिये कर्म करनेसे मनमें जो प्रसन्नता होती है? उसका नाम अभिरति है। फलकी इच्छा से कुछ करना अर्थात् कुछ पानेके लिये कर्म करना आसक्ति है। कर्मोंमें अभिरतिसे कल्याण होता है और आसक्तिसे बन्धन होता है।इस प्रकरणके स्वे स्वे कर्मणि? स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य? स्वभावनियतं कर्म? सहजं कर्म आदि पदोंमें कर्म शब्द एकवचनमें आया है। इसका तात्पर्य है कि मनुष्य प्रीति और तत्परतापूर्वक चाहे एक कर्म करे? चाहे अनेक कर्म करे? उसका उद्देश्य केवल परमात्मप्राप्ति होनेसे उसकी कर्तव्यनिष्ठा एक ही होती है। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको लेकर मनुष्य जितने भी कर्म करता है? वे सब कर्म अन्तमें उसी उद्देश्यमें ही लीन हो जाते हैं अर्थात् उसी उद्देश्यकी पूर्ति करनेवाले हो जाते हैं। जैसे गङ्गाजी हिमालयसे निकलकर गङ्गासागरतक जाती हैं तो नद? नदियाँ? झरने? सरोवर? वर्षका जल -- ये सभी उसकी धारामें मिलकर गङ्गासे एक हो जाते हैं? ऐसे ही उद्देश्यवालेके सभी कर्म उसके उद्देश्यमें मिल जाते हैं। परन्तु जिसकी कर्मोंमें आसक्ति है? वह एक कर्म करके अनेक फल चाहता है अथवा अनेक कर्म करके एक फल चाहता है अतः उसका उद्देश्य एक परमात्माकी प्राप्तिका न होनेसे उसकी कर्तव्यनिष्ठा एक नहीं होती (गीता 2। 41)।स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु -- अपने कर्मोंमें प्रीतिपूर्वक तत्परतासे लगा हुआ मनुष्य परमात्माको जैसे प्राप्त होता है? वह सुनो अर्थात् कर्ममात्र परमात्मप्राप्तिका साधन है? इस बातको सुनो और सुन करके ठीक तरहसे समझो।विशेष बातमालिककी सुखसुविधाकी सामग्री जुटा देना? मालिकके दैनिक कार्योंमें अनुकूलता उपस्थित कर देना आदि कार्य तो वेतन लेनेवाला नौकर भी कर सकता है और करता भी है। परन्तु उसमें क्रिया की (कि इतना काम करना है) और समय की (कि इतने घंटे काम करना है) प्रधानता रहती है। इसलिये वह कामधंधा सेवा नहीं बन सकता। यदि मालिकका वह कामधन्धा आदरपूर्वक सेव्यबुद्धिसे? महत्त्वबुद्धिसे किया जाय तो वह सेवा हो जाता है।सेव्यबुद्धि? महत्त्वबुद्धि चाहे जन्मके सम्बन्धसे हो? चाहे विद्याके सम्बन्धसे चाहे वर्णआश्रमके सम्बन्धसे हो चाहे योग्यता? अधिकार? सद्गुणसदाचारके सम्बन्धसे। जहाँ महत्त्वबुद्धि हो जाती है? वहाँ सेव्यको सुखआराम कैसे मिले सेव्यकी प्रसन्नता किस बातमें है सेव्यका क्या रुख है क्या रुचि है -- ऐसे भाव होनेसे जो भी काम किया जाय? वह सेवा हो जाता है।सेव्यका वही काम पूजाबुद्धि? भगवद्बुद्धि? गुरुबुद्धि आदिसे किया जाय और पूज्यभावसे चन्दन लगाया जाय? पुष्प चढ़ाये जायँ? माला पहनायी जाय? आरती की जाय? तो वह काम पूजन हो जाता है। इससे सेव्यके चरणस्पर्श अथवा दर्शनमात्रसे चित्तकी प्रसन्नता? हृदयकी गद्गदता? शरीरका रोमाञ्चित होना आदि होते हैं और सेव्यके प्रति विशेष भाव प्रकट होते हैं। उससे सेव्यकी सेवामें कुछ शिथिलता आ सकती है परन्तु भावोंके बढ़नेपर अन्तःकरणशुद्धि? भगवत्प्रेम? भगवद्दर्शन आदि हो जाते हैं।मालिकका समयसमयपर कामधंधा करनेसे नौकरको पैसे मिल जाते हैं और सेव्यकी सेवा करनेसे सेवकको अन्तःकरणशुद्धिपूर्वक भगवत्प्राप्ति हो जाती है परन्तु पूजाभावके बढ़नेसे तो पूजकको तत्काल भगवत्प्राप्ति हो जाती है। तात्पर्य है कि चरणचाँपी तो नौकर भी करता है? पर उसको सेवाका आनन्द नहीं मिलता क्योंकि उसकी दृष्टि पैसोंपर रहती है। परन्तु जो सेवाबुद्धिसे चरणचाँपी करता है? उसको सेवामें विशेष आनन्द मिलता है क्योंकि उसकी दृष्टि सेव्यके सुखपर रहती है। पूजामें तो चरण छूनेमात्रसे शरीर रोमाञ्चित हो जाता है और अन्तःकरणमें एक पारमार्थिक आनन्द होता है। उसकी दृष्टि पूज्यकी महत्तापर और अपनी लघुतापर रहती है। ऐसे देखा जाय तो नौकरके कामधंधेसे मालिकको आराम मिलता है? सेवामें सेव्यको विशेष आराम तथा सुख मिलता है और पूजामें पूजकके भावसे पूज्यको प्रसन्नता होती है। पूजामें शरीरके सुखआरामकी प्रधानता नहीं होती।अपने स्वभावज कर्मोंके द्वारा पूजा करनेसे पूजकका भाव बढ़ जाता है तो उसके स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरसे होनेवाली (चेष्टा? चिन्तन? समाधि आदि) सभी छोटीबड़ी क्रियाएँ सब प्राणियोंमें व्यापक परमात्माकी पूजनसामग्री बन जाती है। उसकी दैनिकचर्या अर्थात् खानापीना आदि सब क्रियाएँ भी पूजनसामग्री बन जाती हैं।जैसे ज्ञानयोगीका मैं कुछ भी नहीं करता हूँ यह भाव हरदम बना रहता है? ऐसे ही अनेक प्रकारकी,क्रियाएँ करनेपर भी भक्तके भीतर एक भगवद्भाव हरदम बना रहता है। उस भावकी गाढ़तामें उसका अहंभाव भी छूट जाता है।
।।18.45।। अपने स्वभाव एवं विकास की स्थिति को पहचान कर प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वाभाविक कर्म का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। इसी कर्तव्य पालन से प्रथम चित्तशुद्धि एवं तदुपरान्त परमात्मस्वरूप की अनुभूति की संसिद्धि प्राप्त हो सकती है।केवल सतही दृष्टिकोण से अवलोकन करने पर मनुष्यों का उपर्युक्त चतुर्विध वर्गीकरण स्पष्टत बोधगम्य नहीं हो सकता। परन्तु जीवन में श्रेष्ठ उपलब्धियों को प्राप्त किये महान् पुरुषों के जीवन चरित्र इस वर्गीकरण की सत्यता का बारम्बार उद्घोष करते हैं। एक छोटे से बालक ने भेड़ पालन के कार्य को अस्वीकार कर दिया और पेरिस जा पहुँचा? जो कालान्तर में विश्व में नेपोलियन के नाम से प्रसिद्ध महानतम सेनापति बना। गोल्डस्मिथ या कीट्स व्यापारिक कार्य द्वारा आराम एवं सुखसुविधाओं का जीवन जीने की अपेक्षा किसी अटारी में रहते हुए काव्य रचना करना अधिक पसन्द करेगा। प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुरूप कार्यक्षेत्र में कर्म करते हुए ही सुख एवं पूर्णता का अनुभव करता है।मानव के लौकिक व्यवहार? मानसिक स्वभाव एवं बौद्धिक अभिरुचि के आधार पर किया गया यह विवकपूर्ण वर्गीकरण केवल भारत में ही नहीं? वरन् सर्वत्र प्रयोज्य (लागू करने योग्य) है। जीवन में इसकी प्रयोज्यता तथा मनुष्य के विकास के लिए इसकी उपादेयता सार्वभौमिक है।अब भगवान् श्रीकृष्ण सिद्धि प्राप्ति की साधना बताते हैं
18.45 Being devoted to his own duty, man attains complete success. Hear that as to how one devoted to his own duty achieves success.
18.45 Each man devoted to his own duty attains perfection. How he attains perfection while being engaged in his own duty, hear now.
18.45. A man, devoted to his own respective action, attains success. Devoted to ones own action, how one attains success that you must hear from Me.
18.45 स्वे in own? स्वे in own? कर्मणि to duty? अभिरतः devoted? संसिद्धिम् perfection? लभते attains? नरः a man? स्वकर्मनिरतः engaged in his own duty? सिद्धिम् perfection? यथा how? विन्दति finds? तत् that? श्रृणु hear.Commentary This is the division of labour for which each caste is fitted according to its own nature. The duty prescribed is your sole support? and the highest service you can render to the Supreme is to carry it out wholeheartedly? without expectation of fruits? with the attitutde of dedication to the Lord. This will surely lead you to the Supreme. All the impurities of the mind will be washed away by the performance of ones own duty and you will be fit for Selfknowledge.Sve sve karmani Each devoted to his own duty in accordance with his nature (Guna) or caste. It is impossible to attain Moksha by works alone but works purify the heart and prepare the aspirant for receiving the divine light.The attitude of worshipfulness is prescribed for work
18.45 Sve sve karmani abhiratah, being devoted to his own duty, which has different characteristics as stated above; narah, man, the person alified therefor; labhate, attains; samsiddhim, complete success, characterized as the ability for steadfastness in Knowledge, which follows from the elimination of the impurities of body and mind as a result of fulfilling his own duty. Does the complete success follow merely from the fulfilment of ones own duty? No. How then? Srnu, hear; tat, that; yatha, as to how, through what means; sva-karma-niratah, one devoted to his own duty; vindati, acheives; siddim, success.
18.45 See Comment under 18.60
18.45 When one is devoted to his own duty in a way mentioned earlier, he attains perfection i.e., the supreme state. When a person is devoted to his duty, how he attains perfection, i.e., attains the supreme state, listen.
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur.
How the acquisition of knowledge is achieved is being stated by Lord Krishna. Fully engaged in duty by devotion to performing the prescribed Vedic activities according to what is ordained by ones particular class in society according to qualification one obtains fitness for advancing in knowledge. The following verse will delineate by what method a sincere aspirant engaged daily in executing their prescribed duties gains knowledge of the ultimate truth.
There is no commentary for this verse.
Every human achieves samsiddham or self-realisation by perfectly executing their own natural prescribed duty according to qualification as ordained by Vedic scriptures. How this is accomplished is explained next by Lord Krishna.
Every human achieves samsiddham or self-realisation by perfectly executing their own natural prescribed duty according to qualification as ordained by Vedic scriptures. How this is accomplished is explained next by Lord Krishna.
Swe swe karmanyabhiratah samsiddhim labhate narah; Swakarmaniratah siddhim yathaa vindati tacchrinu.
sve sve—respectively; karmaṇi—work; abhirataḥ—fulfilling; sansiddhim—perfection; labhate—achieve; naraḥ—a person; sva-karma—to one’s own prescribed duty; nirataḥ—engaged; siddhim—perfection; yathā—as; vindati—attains; tat—that; śhṛiṇu—hear