यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।
।।18.46।।जिस परमात्मासे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है? उस परमात्माका अपने कर्मके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
।।18.46।। व्याख्या -- यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् -- जिस परमात्मासे संसार पैदा हुआ है? जिससे सम्पूर्ण संसारका संचालन होता है? जो सबका उत्पादक? आधार और प्रकाशक है और जो सबमें परिपूर्ण है अर्थात् जो परमात्मा अनन्त ब्रह्माण्डोंकी उत्पत्तिसे पहले भी था? जो अनन्त ब्रह्माण्डोंके लीन होनेपर भी रहेगा और अनन्त ब्रह्माण्डोंके रहते हुए भी जो रहता है तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डोंमें व्याप्त है? उसी परमात्माका अपनेअपने स्वभावज (वर्णोचित स्वाभाविक) कर्मोंके द्वारा पूजन करना चाहिये।स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य -- मनुस्मृतिमें ब्राह्मणोंके लिये छः कर्म बताये गये हैं -- स्वयं पढ़ना और दूसरोंको पढ़ाना? स्वयं यज्ञ करना और दूसरोंसे यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरोंको दान देना (टिप्पणी प0 938.1) (इनमें पढ़ाना? यज्ञ कराना और दान लेना -- ये तीन कर्म जीविकाके हैं और पढ़ना? यज्ञ करना और दान देना -- ये तीन कर्तव्यकर्म हैं)। उपर्युक्त शास्त्रनियत छः कर्म और शमदम आदि नौ स्वभावज कर्म तथा इनके अतिरिक्त खानापीना? उठनाबैठना आदि जितने भी कर्म हैं? उन कर्मोंके द्वारा ब्राह्मण चारों वर्णोंमें व्याप्त परमात्माका पूजन करें। तात्पर्य है कि परमात्माकी आज्ञासे? उनकी प्रसन्नताके लिये ही भगवद्बुद्धिसे निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें।ऐसे ही क्षत्रियोंके लिये पाँच कर्म बताये गये हैं -- प्रजाकी रक्षा करना? दान देना? यज्ञ करना? अध्ययन करना और विषयोंमें आसक्त न होना (टिप्पणी प0 938.2)। इन पाँच कर्मों तथा शौर्य? तेज आदि सात स्वभावज कर्मोंके द्वारा और खानापीना आदि सभी कर्मोंके द्वारा क्षत्रिय सर्वत्र व्यापक परमात्माका पूजन करें।वैश्य यज्ञ करना? अध्ययन करना? दान देना और ब्याज लेना तथा कृषि? गौरक्ष्य और वाणिज्य (टिप्पणी प0 939.1) -- इन शास्त्रनियत और स्वभावज कर्मोंके द्वारा और शूद्र शास्त्रविहित तथा स्वभावज कर्म सेवा (टिप्पणी प0 939.2) के द्वारा सर्वत्र व्यापक परमात्माका पूजन करें अर्थात् अपने शास्त्रविहित? स्वभावज और खानापीना? सोनाजागना आदि सभी कर्मोंके द्वारा भगवान्की आज्ञासे? भगवान्की प्रसन्नताके लिये भगवद्बुद्धिसे निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें।शास्त्रोंमें मनुष्यके लिये अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार जोजो कर्तव्यकर्म बताये गये हैं? वे सब संसाररूप परमात्माकी पूजाके लिये ही हैं। अगर साधक अपने कर्मोंके द्वारा भावसे उस परमात्माका पूजन करता है? तो उसकी मात्र क्रियाएँ परमात्माकी पूजा हो जाती है। जैसे? पितामह भीष्मने (अर्जुनके साथ युद्ध करते हुए) अर्जुनके सारथि बने हुए भगवान्की अपने युद्धरूप कर्मके द्वारा (बाणोंसे) पूजा की। भीष्मके बाणोंसे भगवान्का कवच टूट गया? जिससे भगवान्के शरीरमें घाव हो गये और हाथकी अंगुलियोंमें छोटेछोटे बाण लगनेसे अंगुलियोंसे लगाम पकड़ना कठिन हो गया। ऐसी पूजा करके अन्तसमयमें शरशय्यापर पड़े हुए पितामह भीष्म अपने बाणोंद्वारा पूजित भगवान्का ध्यान करते हैं -- युद्धमें मेरे तीखे बाणोंसे जिनका कवच टूट गया है? जिनकी त्वचा विच्छिन्न हो गयी है? परिश्रमके कारण जिनके मुखपर स्वेदकण सुशोभित हो रहे हैं? घोड़ोंकी टापोंसे उड़ी हुई रज जिनकी सुन्दर अलकावलिमें लगी हुई है? इस प्रकार बाणोंसे अलंकृत भगवान् कृष्णमें मेरे मनबुद्धि लग जायँ (टिप्पणी प0 939.3)।,लौकिक और पारमार्थिक कर्मोंके द्वारा उस परमात्माका पूजन तो करना चाहिये? पर उन कर्मोंमें और उनको करनेके करणोंउपकरणोंमें ममता नहीं रखनी चाहिये। कारण कि जिन वस्तुओं? क्रियाओँ आदिमें ममता हो जाती है? वे सभी चीजें अपवित्र हो जानेसे (टिप्पणी प0 939.4) पूजासामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल? फूर आदि भगवान्पर नहीं चढ़ते)। इसलिये मेरे पास जो कुछ है? वह सब उस सर्वव्यापक परमात्माका ही है?,मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्तिसे उनका पूजन करना है -- इस भावसे जो कुछ किया जाय? वह सबकासब परमात्माका पूजन हो जाता है। इसके विपरीत उन क्रियाओँ? वस्तुओँ आदिको मनुष्य जितनी अपनी मान लेता है? उतनी ही वे (अपनी मानी हुई) क्रियाएँ? वस्तुएँ (अपवित्र होनेसे) परमात्माके पूजनसे वञ्चित रह जाती हैं।सिद्धिं विन्दति मानवः -- सिद्धिको प्राप्त होनेका तात्पर्य है कि अपने कर्मोंसे परमात्माका पूजन करनेवाला मनुष्य प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित होकर स्वतः अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। स्वरूपमें स्थित होनेपर पहले जो परमात्माके समर्पण किया था? उस संस्कारके कारण उसका प्रभुमें अनन्यप्रेम जाग्रत् हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी पाना बाकी नहीं रहता।यहाँ मानवः पदका तात्पर्य केवल ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य? शूद्र और ब्रह्मचारी? गृहस्थ? वानप्रस्थ? संन्यास -- इन वर्णों और आश्रमों आदिसे ही नहीं है? प्रत्युत हिन्दू? मुसलमान? ईसाई? बौद्ध? पारसी? यहूदी आदि सभी जातियों और सम्प्रदायोंसे है। किसी भी जाति? सम्प्रदाय आदिके कोई भी व्यक्ति क्यों न हों? सबकेसब ही परमात्माके पूजनके अधिकारी हैं क्योंकि सभी परमात्माके अपने हैं। जैसे घरमें स्वभाव आदिके भेदसे अनेक तरहके बालक होते हैं? पर उन सबकी माँ एक ही होती है और उन बालकोंकी तरहतरहकी जितनी भी क्रियाएँ होती हैं? उन सब क्रियाओंसे माँ प्रसन्न होती रहती है क्योंकि उन बालकोंमें माँका अपनापन होता है। ऐसे ही भगवान्के सम्मुख हुए मनुष्योंकी सभी क्रियाओँको भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं और प्रसन्न होते हैं।इसी अध्यायके सत्तरवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि कोई भी मनुष्य हम दोनोंके संवादका अध्ययन करेगा? उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित हो जाऊँगा। इससे यह सिद्ध होता है कि कोई गीताका पाठ करे? अध्ययन करे तो उसको भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं। ऐसे ही जो उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओँसे विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाता है? उसकी क्रियाओँको भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं।विशेष बातकर्मयोगमें कर्मोंके द्वारा जडतासे असङ्गता होती है और भक्तियोगमें संसारसे असङ्गतापूर्वक परमात्माके प्रति पूज्यभाव होनेसे परमात्माकी सम्मुखता रहती है।कर्मयोगी तो अपने पास शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि जो कुछ संसारका जडअंश है? उसको स्वार्थ? अभिमान? कामनाका त्याग करके संसारकी सेवामें लगा देता है। इससे अपनी मानी हुई चीजोंसे अपनापन छूटकर उनसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है? और जो स्वतःस्वाभाविक असङ्गता है? वह प्रकट हो जाती है।भक्त अपने वर्णोचित स्वाभाविक कर्मों और समयसमयपर किये गये पारमार्थिक कर्मों(जप? ध्यान आदि) के द्वारा सम्पूर्ण संसारमें व्याप्त परमात्माका पूजन करता है।इन दोनोंमें भावकी भिन्नता होनेसे इतना ही अन्तर हुआ कि कर्मयोगीकी सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह सबको सुख पहुँचानेमें लग जाता है? तो क्रियाओँको करनेका वेग मिटकर स्वयंमें असङ्गता आ जाती है और भक्तकी सम्पूर्ण क्रियाएँ परमात्माकी पूजनसामग्री बन जानेसे जडतासे विमुखता होकर भगवान्की सम्मुखता आ जाती है और प्रेम बढ़ जाता है।भक्त तो पहलेसे ही भगवान्के सम्मुख होकर अपनेआपको भगवान्के अर्पित कर देता है। स्वयंके,अनन्यतापूर्वक भगवान्के समर्पित हो जानेसे खानापीना? कामधंधा आदि लौकिक और जप? ध्यान? सत्सङ्ग? स्वाध्याय आदि पारमार्थिक क्रियाएँ भी भगवान्के अर्पण हो जाती हैं। उसकी लौकिकपारमार्थिक क्रियाओंमें केवल बाहरसे भेद देखनेमें आता है परन्तु वास्तवमें कोई भेद नहीं रहता।कर्मयोगी और ज्ञानयोगी -- ये दोनों अन्तमें एक हो जाते हैं। जैसे? कर्मयोगी कर्मोंके द्वारा जडताका त्याग करता है अर्थात् सेवाके द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ संसारके अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है और ज्ञानयोगी विचारके द्वारा जडताका त्याग करता है अर्थात् विचारके द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ प्रकृतिके अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है। तात्पर्य है कि दोनोंके अर्पण करनेके प्रकारमें अन्तर है? पर असङ्गतामें दोनों एक हो जाते हैं (टिप्पणी प0 940)। इस असङ्गतामें कर्मयोगी और ज्ञानयोगी -- दोनों स्वतन्त्र हो जाते हैं। उनके लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्मोंका बन्धन नहीं रहता। केवल कर्तव्यपालनके लिये ही कर्तव्यकर्म करनेसे कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं (गीता 4। 23)? और ज्ञानरूप अग्निसे ज्ञानयोगीके सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं (गीता 4। 37)। परन्तु इस स्वतन्त्रतामें भी जिसको संतोष नहीं होता अर्थात् स्वतन्त्रतासे जिसको उपरति हो जाती है? उसमें भगवत्कृपासे प्रेम प्रकट हो सकता है। , सम्बन्ध -- स्वभावज (सहज) कर्मोंको निष्कामभावपूर्वक और पूजाबुद्धिसे करते हुए उसमें कोई कमी रह भी जाय? तो भी उसमें साधकको हताश नहीं होना चाहिये -- इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।