सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
।।18.48।। हे कौन्तेय दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है? जैसे धुयें से अग्नि।।
।।18.48।। स्वभाव (वर्ण) और स्वधर्म (आश्रम) का इतना वर्णन करने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण विचाराधीन सिद्धांत के एक अत्यन्त सूक्ष्म पक्ष का विवेचन करते हैं। उनका उपदेश सामान्य है? जिसकी उपादेयता सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। भगवान् का यह उपदेश है कि सहज कर्म के सदोष होने पर भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए।शीघ्रता में केवल सतही दृष्टि से इस श्लोक का अध्ययन करने पर कोई भी पाठक इसे आध्यात्मिकता नहीं मानेगा। परन्तु ध्यानपूर्वक अध्ययन करने पर? सहज शब्द से इस श्लोक की गुत्थी सुलझ जाती है। सहज शब्द का अर्थ है जन्म के साथ। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म अपनी पूर्वार्जित वासनाओं के साथ ही होता है। अत सहज कर्म से तात्पर्य उन वासनाओं से है जिनके साथ मनुष्य का जन्म होता है। भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन है कि उन कर्मों को नहीं त्यागना चाहिए? जो मनुष्य की सहज अर्थात् स्वाभाविक वासनाओं से प्रेरित होते हैं? परन्तु उन्होंने यह नहीं कहा कि जिस दूषित वातावरण में मनुष्य का जन्म होता है उस वातावरण के दोषयुक्त कमर्ों को उसे करना चाहिए।दो प्रकार की शक्तियां हमारे कर्मों को प्रेरित और नियमित? सीमित और निश्चित करती हैं (1) आन्तरिक मानसिक स्वभाविक से उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियाँ? तथा (2) बाह्य वातावरण तथा विषयों से उत्पन्न होने वाली नयेनये प्रलोभन। मनुष्य को अपनी स्वाभाविक वासनाओं के सदोष होने पर भी उनका अनुसरण करना चाहिए? परन्तु उसी समय? उसमें बाह्य प्रलोभनों का त्याग करने का साहस और क्षमता होनी चाहिए।जिन संस्कारों के साथ हमारा जन्म हुआ है? उसके अनुसार हमको कर्म करने चाहिए। परन्तु स्मरण रहे कि ये कर्म निरहंकार और निस्वार्थ भाव से ही किये जाने चाहिए। बाह्य जगत् के प्रलोभन हमारे प्रलोभन को दूषित नहीं कर सकें? इसकी हमें सावधानी रखनी चाहिए। इस तथ्य पर भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देते हैं। गीता के अनुसार? मनुष्य परिस्थितियों का स्वामी है? दास नहीं। जिस मात्रा में मनुष्य अपने स्वामित्व को दृढ़तापूर्वक व्यक्त कर पायेगा? उसी मात्रा में उसका विकास संभव होगा।क्या सभी कर्म दोष से आवृत नहीं हैं भगवान् श्रीकृष्ण का युक्तिवाद यह है कि जब सभी कर्म दोषयुक्त हैं? तो स्वकर्म का त्याग कर परधर्म का आचरण क्यों करना चाहिए यह सर्वथा अनुपयुक्त है। दूसरी बात यह है कि अहंकारपूर्वक कर्म करने पर ही वे बन्धन कारक होते हैं? अन्यथा नहीं। अत साधक को निरहंकार भाव से सहज कर्म का पालन करना चाहिए। इस तथ्य को यहाँ आरम्भ शब्द से इंगित किया गया है। इसके पूर्व? हम आरम्भ शब्द का वास्तविक अर्थ देख चुके हैं कि कर्तृत्वाभिमान रहितकर्म। कर्तृत्व का अभिमान ही वासनाओं को उत्पन्न करके कर्म को दोषयुक्त बना देता है।अज्ञान अवस्था में यह दोष अपरिहार्य है? जैसे अग्नि के साथ धूम्र। परन्तु यदि चूल्हे को बाहर खुले वातावरण में रखा जाये? तो धुंआ नष्ट हो जाता है और अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इसी प्रकार? ईश्वर का स्मरण करके निरहंकार भाव से जगत् कर्म करने पर अहंकार के अभाव में वासनाओं का आवरण नष्ट होकर स्वयं का शुद्ध चैतन्य स्वरूप स्पष्ट अनुभव होता है।सहज कर्म के पालन का फल क्या है सुनो