सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।18.50।।
।।18.50।।हे कौन्तेय सिद्धि(अन्तःकरणकी शुद्धि) को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्मको? जो कि ज्ञानकी परा निष्ठा है? जिस प्रकारसे प्राप्त होता है? उस प्रकारको तुम मुझसे संक्षेपमें ही समझो।
।।18.50।। व्याख्या -- सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे -- यहाँ सिद्धि नाम अन्तःकरणकी शुद्धिका है? जिसका वर्णन पूर्वश्लोकमें आये असक्तबुद्धिः? जितात्मा और विगतस्पृहः पदोंसे हुआ है। जिसका अन्तःकरण इतना शुद्ध हो गया है कि उसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारकी कामना? ममता और आसक्ति नहीं रही? उसके लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति आदिकी जरूरत नहीं पड़ती अर्थात् उसके लिये कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। इसलिये इसको सिद्धि कहा है।लोकमें तो ऐसा कहा जाता है कि मनचाही चीज मिल गयी तो सिद्धि हो गयी? अणिमादि सिद्धियाँ मिल गयीं तो सिद्धि हो गयी। पर वास्तवमें यह सिद्धि नहीं है क्योंकि इसमें पराधीनता होती है? किसी बातकी कमी रहती है? और किसी वस्तु? परिस्थिति आदिकी जरूरत पड़ती है। अतः जिस सिद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी कामना पैदा न हो? वही वास्तवमें सिद्धि है। जिस सिद्धिके मिलनेपर कामना बढ़ती रहे? वह सिद्धि वास्तवमें सिद्धि नहीं है? प्रत्युत एक बन्धन ही है।अन्तःकरणकी शुद्धिरूप सिद्धिको प्राप्त हुआ साधक ही ब्रह्मको प्राप्त होता है। वह जिस क्रमसे ब्रह्मको प्राप्त होता है? उसको मुझसे समझ -- निबोध मे। कारण कि सांख्ययोगकी जो सारसार बातें हैं? वे सांख्ययोगीके लिये अत्यन्त आवश्यक हैं और उन बातोंको समझनेकी बहुत जरूरत है।निबोध पदका तात्पर्य है कि सांख्ययोगमें क्रिया और सामग्रीकी प्रधानता नहीं है। किन्तु उस तत्त्वको समझनेकी प्रधानता है। इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भी सांख्ययोगीके विषयमें निबोध पद आया है।समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा -- सांख्ययोगीकी जो आखिरी स्थिति है? जिससे बढ़कर साधककी कोई स्थिति नहीं हो सकती? वही ज्ञानकी परा निष्ठा कही जाती है। उस परा निष्ठाको अर्थात् ब्रह्मको सांख्ययोगका साधक जिस प्रकारसे प्राप्त होता है? उसको मैं संक्षेपसे कहूँगा अर्थात् उसकी सारसार बातें,कहूँगा। सम्बन्ध -- ज्ञानकी परा निष्ठा प्राप्त करनेके लिये साधनसामग्रीकी आवश्यकता है? उसको आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं।