अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।
।।18.53।।जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त? वैराग्यके आश्रित? एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके? शरीरवाणीमनको वशमें करके? शब्दादि विषयोंका त्याग करके और रागद्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है? वह अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।
।।18.53।। अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है।।