ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।
।।18.54।। ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है)? प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक? समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।।
।।18.54।। अहंकार और उसकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के परित्याग से साधक का मन शान्त हो जाता है। प्राय मन के असंयमित होने तथा जीवन के त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन के कारण ही अन्तकरण में विक्षेप और संभ्रम उत्पन्न होते हैं। उनकी निवृत्ति से मन आपेक्षिक शान्ति को प्राप्त करता है। प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की गयी शान्ति स्वरूपानुभव से स्वाभाविक बन जाती है।कृत्रिम शान्ति को स्वाभाविक शान्ति में परिवर्तित करने के लिए शारीरिक प्रयत्नों की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए तो मन की सतत सजगता की ही अपेक्षा होती है। प्राय यह देखा जाता है कि कर्तृत्व के अभिमान का त्याग करने पर भी? साधक में यदि वैराग्य की कुछ न्यूनता हो? तो उसके मन में भोक्तृत्व का अभिमान उत्पन्न हो जाता है। इसी भोक्तृत्वाभिमान के कारण अनेक साधकगण पुन भोगों में आसक्त हो जाते हैं। इसीलिए? साधक को अत्यधिक सजग रहना चाहिए। कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों का नाश होना अनिवार्य है।इस श्लोक में प्रयुक्त ब्रह्मभूत शब्द उस साधक को दर्शाता है? जिसने अध्यात्म शास्त्र का श्रवण और मनन करके अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि उसने ब्रह्मस्वरूप में निष्ठा प्राप्त कर ली है? तथापि? इस ज्ञान के कारण मन के विक्षेपों की संख्या घटती जाती है। उपाधितादात्म्य से ही विक्षेप उत्पन्न होते हैं? परन्तु विवेकी पुरुष का प्रयत्न उस तादात्म्य की निवृत्ति के लिए ही होता है। जिस मात्रा में वह अपने विवेकी स्वरूप का भान बनाये रखने में समर्थ होता है? उसी मात्रा में उसका अन्तकरण प्रसन्न? अर्थात् शान्त? शुद्ध और स्थिर रहता है।उपर्युक्त गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक की विषयोपभोग की इच्छा समाप्त प्राय हो जाती है। वह भोग की आकांक्षा नहीं करता ( न कांक्षति)। इच्छा के न होने पर शोक का भी अभाव हो जाता है (न शोचति)। इष्ट फल के प्राप्त न होने पर अथवा उसके नष्ट हो जाने पर दुख अवश्यंभावी है। परन्तु विवेकी साधक इन दोनों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इच्छा? शोक आदि अहंकार के धर्म है? शुद्ध आत्मा के नहीं।जिस विवेकी साधक का सुख बाह्यविषयनिरपेक्ष हो जाता है? वह अपने उस आत्मस्वरूप का दर्शन करता है? जो भूतमात्र की आत्मा है। अत वह समस्त भूतों के प्रति सम हो जाता है।उक्त गुणों से युक्त साधक मेरी परा भक्ति को प्राप्त कर लेता है। इसके पूर्व? एक सम्पूर्ण अध्याय में भक्तियोग का विस्तृत विवेचन किया गया था। भक्ति प्रेमस्वरूप है। प्रेम का मापदण्ड है? प्रियतम के साथ तादात्म्य उस के साथ पूर्णत एकरूप हो जाना। इस पूर्ण तादात्म्य के लिए साधक का उपाधियों के साथ तादात्म्य तथा विषय संग सर्वथा समाप्त हो जाना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण के तीन श्लोकों में उल्लिखित गुणों से युक्त पुरुष ही परमात्मा की परा भक्ति का अधिकारी होता है।साधना के अन्तिम सोपान को अगले श्लोक में बताया गया है