एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्िचतं मतमुत्तमम्।।18.6।।
।।18.6।।हे पार्थ (पूर्वोक्त यज्ञ? दान और तप -- ) इन कर्मोंको तथा दूसरे भी कर्मोंको आसक्ति और फलोंका त्याग करके करना चाहिये -- यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।
।।18.6।। हे पार्थ इन कर्मों को भी? फल और आसक्ति को त्यागकर करना चाहिए? यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।।
।।18.6।। व्याख्या -- एतान्यपि तु कर्माणि ৷৷. निश्चितं मतमुत्तमम् -- यहाँ एतानि पदसे पूर्वश्लोकमें कहे यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंकी तथा अपि पदसे शास्त्रविहित पठनपाठन? खेतीव्यापार आदि जीविकासम्बन्धी कर्म शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार खानापीना? उठनाबैठना? सोनाजागना आदि शारीरिक कर्म और परिस्थितिके अनुसार सामने आये अवश्य कर्तव्यकर्म -- इन सभी कर्मोंको लेना चाहिये। इन समस्त कर्मोंको आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके जरूर करना चाहिये। अपनी कामना? ममता और आसक्तिका त्याग करके कर्मोंको केवल प्राणिमात्रके हितके लिये करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारके लिये और योग अपने लिये हो जाता है। परन्तु कर्मोंको अपने लिये करनेसे कर्म बन्धनकारक हो जाते हैं -- अपने व्यक्तित्वको नष्ट नहीं होने देते।गीतामें कहीं सङ्ग(आसक्ति) के त्यागकी बात आती है और कहीं कर्मोंके फलके त्यागकी बात आती है। इस श्लोकमें सङ्ग और फल -- दोनोंके त्यागकी बात आयी है। इसका तात्पर्य यह है कि गीतामें जहाँ सङ्गके त्यागकी बात कही है? वहाँ उसके साथ फलके त्यागकी बात भी समझ लेनी चाहिये और जहाँ फलके त्यागकी बात कही है? वहाँ उसके साथ सङ्गके त्यागकी बात भी समझ लेनी चाहिये। यहाँ अर्जुनने त्यागके तत्त्वकी बात पूछी है अतः भगवान्ने त्यागका यह तत्त्व बताया है कि सङ्ग (आसक्ति) और फल -- दोनोंका ही त्याग करना चाहिये? जिससे साधकको यह जानकारी स्पष्ट हो जाय कि आसक्ति न तो कर्ममें रहनी चाहिये और न फलमें ही रहनी चाहिये। आसक्ति न रहनेसे मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर आदि कर्म करनेके औजारों(करणों)में तथा प्राप्त वस्तुओँमें ममता नहीं रहती (गीता 5। 11)।सङ्ग (आसक्ति या सम्बन्ध) सूक्ष्म होता है और फलेच्छा स्थूल होती है। सङ्ग या आसक्तिकी सूक्ष्मता वहाँतक है? जहाँ चेतनस्वरूपने नाशवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ा है। वहीँसे आसक्ति पैदा होती है? जिससे जन्ममरण आदि सब अनर्थ होते -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। आसक्तिका त्याग करनेसे नाशवान्के साथ जोड़े हुए सम्बन्धका विच्छेद हो जाता है और स्वतःस्वाभाविक रहनेवाली असङ्गताका अनुभव हो जाता है।इस विषयमें एक और बात समझनेकी है कि कई दार्शनिक इस नाशवान् संसारको असत् मानते हैं क्योंकि यह पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा? इसलिये वर्तमानमें भी यह नहीं है जैसे -- स्वप्न। कई दार्शनिकोंका यह मत है कि संसार परिवर्तनशील है? हरदम बदलता रहता है? कभी एक रूप नहीं रहता जैसे -- अपना शरीर। कई यह मानते हैं कि परिवर्तनशील होनेपर भी संसारका कभी अभाव नहीं होता? प्रत्युत तत्त्वसे सदा रहता है जैसे -- जल (जल ही बर्फ? बादल? भाप और परमाणुरूपसे हो जाता है? पर स्वरूपसे वह मिटता नहीं)। इस तरह अनेक मतभेद हैं किन्तु नाशवान् जडका अपने अविनाशी चेतनस्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है? इसमें किसी भी दार्शनिकका मतभेद नहीं है। सङ्गं त्यक्त्वा पदोंसे भगवान्ने उसी सम्बन्धका त्याग कहा है।प्रकृति सत् है या असत् है अथवा सत्असत्से विलक्षण है अनादिसान्त है या अनादिअनन्त है इस झगड़ेमें पड़कर साधकको अपना अमूल्य समय खर्च नहीं करना चाहिये? प्रत्युत इस प्रकृतिसे तथा प्रकृतिके कार्य शरीरसंसारसे अपना सम्बन्धविच्छेद करना चाहिये? जो कि स्वतः हो ही रहा है। स्वतः होनेवाले सम्बन्धविच्छेदका केवल अनुभव करना है कि शरीर तो प्रतिक्षण बदलता ही रहता है और स्वयं निर्विकाररूपसे सदा ज्योंकात्यों रहता है।अब प्रश्न यह होता है कि फल क्या है प्रारब्धकर्मके अनुसार अभी हमें जो परिस्थिति? वस्तु? देश? काल आदि प्राप्त हैं? वह सब कर्मोंका प्राप्त फल है और भविष्यमें जो परिस्थिति? वस्तु आदि प्राप्त होनेवाली है? वह सब कर्मोंका अप्राप्त फल है। प्राप्त तथा अप्राप्त फलमें आसक्ति रहनेके कारण ही प्राप्तमें ममता और अप्राप्तकी कामना होती है। इसलिये भगवान्ने त्यक्त्वा फलानि च (टिप्पणी प0 873) कहकर फलोंका त्याग करनेकी बात कही है।कर्मफलका त्याग क्यों करना चाहिये क्योंकि कर्मफल हमारे साथ रहनेवाला है ही नहीं। कारण यह है कि जिन कर्मोंसे फल बनता है? उन कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है अतः उनका फल भी प्राप्त और नष्ट होनेवाला ही है। इसलिये कर्मफलका त्याग करना है। फलके त्यागमें वस्तुतः फलकी आसक्तिका? कामनाका ही त्याग करना है। वास्तवमें आसक्ति हमारे स्वरूपमें है नहीं? केवल मानी हुई है।दूसरी बात? जो अपना स्वरूप होता है? उसका त्याग नहीं होता जैसे -- प्रज्वलित अग्नि उष्णता और प्रकाशका त्याग नहीं कर सकती। जो चीज अपनी नहीं होती? उसका भी त्याग नहीं होता जैसे -- संसारमें अनेक वस्तुएँ पड़ी हैं परन्तु उनका हम त्याग करें -- ऐसा कहना भी नहीं बनता क्योंकि वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं। इसलिये त्याग उसीका होता है? जो वास्तवमें अपना नहीं है? पर जिसको अपना मान लिया है। ऐसे ही प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदि हमारे नहीं हैं? फिर भी उनको हम अपना मानते हैं? तो इस अपनेपनकी मान्यताका ही त्याग करना है। मनुष्यके सामने कर्तव्यरूपसे जो कर्म आ जाय? उसको फल और आसक्तिका त्याग करके सावधानीके साथ तत्परतापूर्वक करना चाहिये -- कर्तव्यानि। कर्मयोगमें विधिनिषेधको लेकर अमुक काम करना है और अमुक काम नहीं करना है -- ऐसा विचार तो करना ही है परन्तु अमुक काम ब़ड़ा है और अमुक काम छोटा है -- ऐसा विचार नहीं करना है। कारण कि जहाँ कर्म और उसके फलसे अपना कोई सम्बन्ध ही नहीं है? वहाँ यह कर्म बड़ा है? यह कर्म छोटा है इस कर्मका फल बड़ा है? इस कर्मका फल छोटा है -- ऐसा विचार हो ही नहीं सकता। कर्मका बड़ा या छोटा होना फलकी इच्छाके कारण ही दीखता है? जब कि कर्मयोगमें फलेच्छाका त्याग होता है। ,कर्म करना रागपूर्तिके लिये भी होता है और रागनिवृत्तिके लिये भी। कर्मयोगी रागनिवृत्तिके लिये अर्थात् करनेका राग मिटानेके लिये ही सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म करता है -- आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता 6। 3)? न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते (गीता 3। 4)। अपने लिये कर्म करनेसे करनेका राग बढ़ता है। इसलिये कर्मयोगी कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता? प्रत्युत केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है। उसके स्थूलशरीरमें होनेवाली क्रिया? सूक्ष्मशरीरमें होनेवाला परहितचिन्तन तथा कारणशरीरमें होनेवाली स्थिरता -- तीनों ही दूसरोंके हितके लिये होती हैं? अपने लिये नहीं। इसलिये उसका करनेका राग सुगमतासे मिट जाता है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें संसारका राग ही बाधक है। अतः राग मिटनेपर कर्मयोगीको परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति अपनेआप हो जाती है (गीता 4। 38)।कर्तव्य शब्दका अर्थ होता है -- जिसको हम कर सकते हैं तथा जिसको जरूर करना चाहिये और जिसको करनेसे उद्देश्यकी सिद्धि जरूर होती है। उद्देश्य वही कहलाता है? जो नित्यसिद्ध और अनुत्पन्न है अर्थात् जो अनादि है और जिसका कभी विनाश नहीं होता। उस उद्देश्यकी सिद्धि मनुष्यजन्ममें ही होती है और उसकी सिद्धिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है? न कि कर्मजन्य परिस्थितिरूप सुखदुःख भोगनेके लिये। कर्मजन्य परिस्थिति वह होती है? जो उत्पन्न और नष्ट होती हो। वह परिस्थिति तो मनुष्यके अलावा पशुपक्षी? कीटपतङ्ग? वृक्षलता? नारकीयस्वर्गीय आदि योनियोंके प्राणियोंको भी मिलती है? जहाँ कर्तव्यका कोई प्रश्न ही नहीं है और जहाँ उद्देश्यकी पूर्तिका अधिकार भी नहीं है।भगवान्के द्वारा अपने मतको निश्चितम् कहनेका तात्पर्य है कि इस मतमें सन्देहकी कोई गुंजाइश नहीं है? यह मत अटल है अर्थात् यह किञ्चिन्मात्र भी इधरउधर नहीं हो सकता और उत्तमम् कहनेका तात्पर्य है कि,इस मतमें शास्त्रीय दृष्टिसे कोई कमी नहीं है? प्रत्युत यह पूर्णताको प्राप्त करानेवाला है। सम्बन्ध -- इसी अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्ने तीन प्रकारके त्यागकी बात कही थी। अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसी त्रिविध त्यागका वर्णन करते हैं।
।।18.6।। इन यज्ञ? दान और तपरूप कर्मों का भी पालन करना चाहिए। सम्पूर्ण गीता में संग अर्थात् आसक्ति शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है? जिसका अपना एक विशेष अर्थ है। यह शब्द? कर्तृत्वाभिमानी जीव का अपने कर्मफल के साथ संबंध बताने वाला है। उदाहरणार्थ? नव विवाहित दम्पत्ति को पुत्र की इच्छा होती है। यह सामान्य इच्छा है। परन्तु? यदि वे कहें? हमें पुत्र ही चाहिए? पुत्री नहीं? तो उनका यह आग्रह संग या आसक्ति है। ऐसा आग्रह रखना अविवेक का ही लक्षण है।आसक्ति से अभिभूत पुरुष अपने इष्टफल को प्राप्त करने में अविवेकपूर्ण या आत्मघातक चिन्ताओं से ग्रस्त हो जाता है। फल प्राप्ति के पूर्व ही उसके विषय में चिन्ता और व्याकुलता होने से मनुष्य की कार्यकुशलता समाप्तप्राय हो जाती है। इसलिए भगवान् का उपदेश है कि यज्ञादिक कर्म भी फलासक्ति के बिना करने चाहिए। यह भगवान् श्रीकृष्ण का अपना मत है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि उनका यह सर्वथा मौलिक मत है। वेदों में भी निष्काम कर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है।कर्मयोग के जीवन को अपनाने से अन्तकरण की शुद्धि के द्वारा मनुष्य अपने नित्य शुद्धबुद्ध मुक्त स्वरूप का साक्षात्कार कर सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को स्नेहपूर्वक पार्थ कहकर सम्बोधित करते हैं? जो निकट का संबंध बताने वाला नाम है। भगवान् चाहते हैं कि अर्जुन इसी जीवन पद्धति का,अवलम्बन करे।यज्ञादि कर्मों की कर्तव्यता को दर्शाने के पश्चात्? भगवान् आगे कहते हैं