ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।
।।18.61।।हे अर्जुन ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है।
।।18.61।। हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है।।
।।18.61।। व्याख्या -- ईश्वरः सर्वभूतानां ৷৷. यन्त्रारूढानि मायया -- इसका तात्पर्य यह है कि जो ईश्वर सबका शासक? नियामक? सबका भरणपोषण करनेवाला और निरपेक्षरूपसे सबका संचालक है? वह अपनी,शक्तिसे उन प्राणियोंको घुमाता है? जिन्होंने शरीरको मैं औरमेरा मान रखा है।जैसे? विद्युत्शक्तिसे संचालित यन्त्र -- रेलपर कोई आरूढ़ हो जाता है? चढ़ जाता है तो उसको परवशतासे रेलके अनुसार ही जाना पड़ता है। परन्तु जब वह रेलपर आरूढ़ नहीं रहता? नीचे उतर जाता है? तब उसको रेलके अनुसार नहीं जाना पड़ता। ऐसे ही जबतक मनुष्य शरीररूपी यन्त्रके साथ मैं और मेरेपनका समबन्ध रखता है? तबतक ईश्वर उसको उसके स्वभाव (टिप्पणी प0 962) के अनुसार संचालित करता रहता है और वह मनुष्य जन्ममरणरूप संसारके चक्रमें घूमता रहता है।शरीरके साथ मैंमेरेपनका सम्बन्ध होनेसे ही रागद्वेष पैदा होते हैं? जिससे स्वभाव अशुद्ध हो जाता है। स्वभावके अशुद्ध होनेपर मनुष्य प्रकृति अर्थात् स्वभावके परवश हो जाता है। परन्तु शरीरसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर जब स्वभाव रागद्वेषसे रहित अर्थात् शुद्ध हो जाता है? तब प्रकृतिकी परवशता नहीं रहती। प्रकृति(स्वभाव)की परवशता न रहनेसे ईश्वरकी माया उसको संचालित नहीं करती।अब यहाँ यह शङ्का होती है कि जब ईश्वर ही हमारेको भ्रमण करवाता है? क्रिया करवाता है? तब यह काम करना चाहिये और यह काम नहीं करना चाहिये -- ऐसी स्वतंन्त्रता कहाँ रही क्योंकि यन्त्रारूढ़ होनेके कारण हम यन्त्रके और यन्त्रके संचालक ईश्वरके अधीन हो गये? परतन्त्र हो गये? फिर यन्त्रका संचालक (प्रेरक) जैसा करायेगा? वैसा ही होगा इसका समाधान इस प्रकार इस प्रकार है -- जैसे? बिजलीसे संचालित होनेवाले यन्त्र अनेक तरहके होते हैं। एक ही बिजलीसे संचालित होनेपर भी किसी यन्त्रमें बर्फ जम जाती है और किसी यन्त्रमें अग्नि जल जाती है अर्थात् उनमें एकदूसरेसे बिलकुल विरुद्ध काम होता है। परन्तु बिजलीका यह आग्रह नहीं रहता कि मैं तो केवल बर्फ ही जमाऊँगी अथवा केवल अग्नि ही जलाऊँगी। यन्त्रोंका भी ऐसा आग्रह नहीं रहता कि हम तो केवल बर्फ ही जमायेंगे अथवा केवल अग्नि ही जलायेंगे? प्रत्युत यन्त्र बनानेवाले कारीगरने यन्त्रोंको जैसा बना दिया है? उसके अनुसार उनमें स्वाभाविक ही बर्फ जमती है और अग्नि जलती है। ऐसे ही मनुष्य? पशु? पक्षी? देवता? यक्ष राक्षस आदि जितने भी प्राणी हैं? सब शरीररूपी यन्त्रोंपर चढ़े हुए हैं और उन सभी यन्त्रोंको ईश्वर संचालित करता है। उन अलगअलग शरीरोँमें भी जिस शरीरमें जैसा स्वभाव है? उस स्वभावके अनुसार वे ईश्वरसे प्रेरणा पाते हैं और कार्य करते हैं। तात्पर्य यह है कि उन शरीरोंसे मैंमेरेपनका सम्बन्ध माननेवालेका जैसा (अच्छा या मन्दा) स्वभाव होता है? उससे वैसी ही क्रियाएँ होती हैं। अच्छे स्वभाववाले (सज्जन) मनुष्यके द्वारा श्रेष्ठ क्रियाएँ होती हैं और मन्दे स्वभाववाले (दुष्ट) मनुष्यके द्वारा खराब क्रियाएँ होती हैं। इसलिये अच्छी या मन्दी क्रियाओंको करानेमें ईश्वरका हाथ नहीं है? प्रत्युत खुदके बनाये हुए अच्छे या मन्दे स्वभावका ही हाथ है।जैसे बिजली यन्त्रके स्वभावके अनुसार ही उसका संचालन करती है? ऐसे ही ईश्वर प्राणीके (शरीरमें स्थित) स्वभावके अनुसार उसका संचालन करते हैं। जैसा स्वभाव होगा? वैसे ही कर्म होंगे। इसमें एक बात विशेष ध्यान देनेकी है कि स्वभावको सुधारनेमें और बिगाड़नेमें सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं? कोई भी परतन्त्र नहीं है। परन्तु पशु? पक्षी? देवता आदि जितने भी मनुष्येतर प्राणी हैं? उनमें अपने स्वभावको सुधारनेका न अधिकार है और न स्वतन्त्रता ही है। मनुष्यशरीर अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है? इसलिये इसमें अपने स्वभावको सुधारनेका पूरा अधिकार? पूरी स्वतन्त्रता है। उस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके स्वभाव सुधारनेमें और स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके स्वभाव बिगाड़नेमें मनुष्य स्वयं ही हेतु है। ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयदेशमें रहता है -- यह कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वीमें सब जगह जल रहनेपर भी जहाँ कुआँ होता है? वहींसे जल प्राप्त होता है ऐसे ही परमात्मा सब जगह समान रीतिसे परिपूर्ण होते हुए भी हृदयमें प्राप्त होते हैं अर्थात् हृदय सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिका विशेष स्थान है। ऐसे ही तीसरे अध्यायमें सर्वव्यापी परमात्माको यज्ञ(निष्कामकर्म) में स्थित बताया गया है तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् (गीता 3। 15)।विशेष बातसाधककी प्रायः यह भूल होती है कि वह भजन? कीर्तन? ध्यान आदि करते हुए भी भगवान् दूर हैं वे अभी नहीं मिलेंगे यहाँ नहीं मिलेंगे अभी मैं योग्य नहीं हूँ भगवान्की कृपा नहीं है आदि भावनाएँ बनाकर भगवान्की दूरीकी मान्यता ही दृढ़ करता रहता है। इस जगह साधकको यह सावधानी रखनी चाहिये कि जब भगवान् सभी प्राणियोंमें मौजूद हैं तो मेरेमें भी हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं तो मैं जो जप करता हूँ उस जपमें भी भगवान् हैं मैं श्वास लेता हूँ तो उस श्वासमें भी भगवान् हैं मेरे मनमें भी भगवान् हैं? बुद्धिमें भी भगवान् हैं मैं जो मैंमैं कहता हूँ? उस मैं में भी भगवान् हैं। उस मैं का जो आधार है? वह अपना स्वरूप भगवान्से अभिन्न है अर्थात् मैंपन तो दूर है? पर भगवान् मैंपनसे भी नजदीक हैं। इस प्रकार अपनेमें भगवान्को मानते हुए ही भजन? जप? ध्यान आदि करने चाहिये।अब शङ्का यह होती है कि अपनेमें परमात्माको माननेसे मैं और परमात्मा दो (अलगअलग) हैं -- यह द्वैतापत्ति होगी। इसका समाधान यह है कि परमात्माको अपनेमें माननेसे द्वैतापत्ति नहीं होती? प्रत्युत अहंकार(मैंपन) को स्वीकार करनेसे जो अपनी अलग सत्ता प्रतीत होती है? उसीसे द्वैतापत्ति होती है। परमात्माको अपना और और अपनेमें माननेसे तो परमात्मासे अभिन्नता होती है? जिससे प्रेम प्रकट होता है।जैसे? गङ्गाजीमें बाढ़ आ जानेसे उसका जल बहुत बढ़ जाता है और फिर पीछे वर्षा न होनेसे उसका जल पुनः कम हो जाता है परन्तु उसका जो जल गड्ढेमें रह जाता है अर्थात् गङ्गाजीसे अलग हो जाता है? उसकोगङ्गोज्झ कहते हैं। उस गङ्गोज्झको मदिराके समान महान् अपवित्र माना गया है। गङ्गाजीसे अलग होनेके कारण वह गंदा हो जाता है और उसमें अनेक कीटाणु पैदा हो जाते हैं? जो कि रोगोंके कारण हैं। परन्तु फिर कभी जोरकी बाढ़ आ जाती है? तो वह गङ्गोज्झ वापस गङ्गाजीमें मिल जाता है। गङ्गाजीमें मिलते ही उसकी एकदेशीयता? अपवित्रता? अशुद्धि आदि सभी दोष जाते हैं और वह पुनः महान् पवित्र गङ्गाजल बन जाता है।ऐसे ही यह मनुष्य जब अहंकारको स्वीकार करके परमात्मासे विमुख हो जाता है? तब इसमें परिच्छिन्नता? पराधीनता? जडता? विषमता? अभाव? अशान्ति? अपवित्रता आदि सभी दोष (विकार) आ जाते हैं। परन्तु जब यह अपने अंशी परमात्माके सम्मुख हो जाता है? उन्हींकी शरणमें चला जाता है अर्थात् अपना अलग कोई व्यक्तित्व नहीं रखता? तब उसमें आये हुए भिन्नता? पराधीनता आदि सभी दोष मिट जाते हैं। कारण कि स्वयं (चेतन स्वरूप) में दोष नहीं हैं दोष तो अहंता(मैंपन) को स्वीकार करनेसे ही आते हैं। सम्बन्ध -- अब भगवान् यन्त्रारूढ़ हुए प्राणियोंकी परवशताको मिटानेका उपाय बताते हैं।
।।18.61।। भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश सुस्पष्ट एवं सर्वथा सन्देह रहित है। गीताचार्य कहते हैं? मेरा स्मरण ईश्वर अर्थात् सम्पूर्ण विश्व के शासक के रूप में करो। ईश्वर ही नियामक और नियन्ता है। उसकी उपस्थिति में ही जगत् की समस्त घटनाएं घट सकती हैं? अन्यथा नहीं। जैसै कि वाष्प इंजन का ईश्वर वाष्प है? जिसके बिना इंजन में गति नहीं आ सकती।ईश्वर का स्मरण केवल सगुणसाकार अर्थात् शक्ति के मानवीय रूप में ही नहीं करना चाहिये? जैसे कैलाशपति? शिवजी? या वैकुण्ठवासी विष्णु या स्वर्ग में स्थित पिता के रूप में। ईश्वर तो भूतमात्र के हृदय में निवास कर रहा अंतरयामी है। इसकी पहचान हृदय में ही हो सकती है। जिस प्रकार विशाल महानगरी में किसी व्यक्ति से मिलने के लिये उसके निवासस्थान का पता बताया जाता है? उसी प्रकार? यहाँ? भगवान् श्रीकृष्ण अपना स्थानीय पता बता रहे हैंहृदय शब्द से तात्पर्य शारीरिक अंग रूप हृदय से नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ लाक्षणिक है? शाब्दिक नहीं। प्रेम? करुणा? धृति? उत्साह? स्नेह? कोमलता? क्षमा? उदारता जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न मन ही हृदय कहलाता है। परमेश्वर ही चेतनता और शक्ति का स्रोत है? जो अपनी शक्ति प्राणीमात्र को प्रदान करता है। समस्त प्राणी ईश्वर के ही चारों ओर इस प्रकार घूमते रहते हैं? जैसे कठपुतलियां किसी के हाथों में बन्धी खेल करती है। कठपुतलियों की अपनी कोई सार्मथ्य? शक्ति या भावना नहीं होती? वे जो कुछ खेल करती दिखाई देती हैं? वह सब अदृश्य हाथ की शक्ति है जो उन कठपुतलियों को धारण किये रहता है।पारमर्थिक दृष्टि से? ईश्वर का अर्थ चैतन्यस्वरूप ब्रह्म है। इस चैतन्य के सम्बन्ध से ही शरीर? मन आदि जड़ उपाधियाँ कार्य करने में सक्षम होती हैं। अन्यथा? जड़ पदार्थ में स्वयं न कर्म करने की शक्ति है और न वस्तुओं को जानने की। इस दृष्टि से इस श्लोक का अर्थ यह होगा कि चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपस्थिति में प्राणीमात्र अपनेअपने स्वभाव के अनुसार यत्रतत्र भ्रमण करते रहते हैं। इसी तथ्य को यहाँ इस प्रकार कहा गया है कि ईश्वर अपनी माया से भूतमात्र को घुमाता है।इसी श्लोक का दूसरा अर्थ निम्न प्रकार से होगा। समष्टि माया में व्यक्त चैतन्यस्वरूप परमात्मा ही ईश्वर कहलाता है? जो सर्वज्ञसर्वशक्तिमान् है। वह ईश्वर अपनी माया से समस्त जीवों को घुमाता है इसका अर्थ यह हुआ कि वह ईश्वर समस्त जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करता है। ईश्वर के बिना व्यष्टि जीवों का अस्तित्व संभव ही नहीं है। समस्त जीवों को कर्म और ज्ञान की शक्तियां ईश्वर से ही प्राप्त होती हैं। इस प्रकार? वेदान्त के सिद्धांत को समझकर इस श्लोक के अध्ययन से यहाँ प्रयुक्त रूपक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
18.61 O Arjuna, the Lord resides in the region of the heart of all creatures, revolving through Maya all the creatures (as though) mounted on a machine!
18.61 The Lord dwells in the hearts of all beings, O Arjuna, causing all beings, by His illusive power, to revolve as if mounted on a machine.
18.61. O Arjuna ! This Lord dwells in the heart of all beings, causing, by His trick-of-Illusion, all beings to whirl round [as if they are] mounted on a [revolving] mechanical contrivance.
18.61 ईश्वरः the Lord? सर्वभूतानाम् of all beings? हृद्देशे in the hearts? अर्जुन O Arjuna? तिष्ठति dwells? भ्रामयन् causing to revolve? सर्वभूतानि all beings? यन्त्रारूढानि mounted on a machine? मायया by illusion.Commentary Isvara The Lord the Ruler of the universe Narayana.The Lord abides in the hearts of all beings. It is He Who has given a gift of this marvellous machine to you. It is by His power that all bodies move. The Lord is the real Actor within.By Maya By causing illusion.He causes all beings to revolve like wooden dolls mounted on a machine. (Cf.X.20.XIII.18)
18.61 Arjuna, O Arjuna-one whose self is naturally white (pure), i.e. one possessing a pure internal organ. This follows from the Vedic text, The day is dark and the day is arjuna (white) (Rg. 6.9.1). Isvarah, the Lord , Narayana the Ruler; tisthati, resides, remains seated; hrd-dese, in the region of the heart; sarva-bhutanam, of all creatures, of all living beings. How does He reside? In answer the Lord says: bhramayan, revolving; mayaya, through Maya, through delusion; sarva-bhutani, all the creatures; as though yantra-arudhani, mounted on a machine-like man etc., made of wood, mounted on a machine. The word iva (as though) has to be thus understood here. Bhramayan, revolving, is to be connected with tisthati, resides (conveying the idea, resides৷৷.while revolving).
18.61 See Comment under 18.62
18.61 Lord Vasudeva, who is the ruler over all, lives in the heart of all beings, i.e., in the region from which arises all knowledge which is at the root of all secular and spiritual activities. How and doing what does He exist? He exists enabling, by His Maya (power), all beings who are mounted, as it were, on the machine Prakrti in the form of body and senses created by Himself, to act in accordance with their Gunas of Sattva and others. It was already expressed in And I am seated in the hearts of all. From Me are memory, knowledge and their removal also (15.15) and in From Me proceed everything (10.8). The Srutis also proclaim He who, dwelling in the self (Br. U. Madh., 3.7.22). He now explains the way to get rid of the Maya:
Having stated the views of the propounders of innate nature (svabhava) in two verses, the Lord now states his own view. The Lord, Narayana, is the antaryami. yah prthivyam tisthan prthivya antaro, yam prthivi na veda, yasya prthivi sariram, yah prthivim antaro yamayati He is situated within the earth. The earth does not know him. The earth is his body. He controls the earth from within. Brhad Aranyaka Upanisad 3.6.3 yac ca kincij jagaty asmin drsyate sruyate ‘pi va antar-bahis ca tat sarvam vyapya narayanah sthitah Narayana is spread everywhere inside and outside of everything seen or heard of in the universe. Mahanarayana Upanisad 13.5 As is stated in these srutis, the Lord is situated in the heart. What does he do? By his own sakti (mayaya) he makes all living entities engage in their respective actions (bhramayan). The living entities, like artificial dolls attached to a device with strings, are made to move by maya. Or another meaning is: all living entities mounted in their bodies are made to move by maya.
In the two preceding verses the subservience of all jivas or embodied beings to prakriti or the material substratum pervading all existence have been given according to the viewpoint of sankhya or analytical reasoning. Now Lord Krishna declares the conclusion in this verse and the next. As has been confirmed in many of the Vedic scriptures, within the etheric heart of all jivas abides the Supreme Lord as paramatma the Supreme Soul who monitors the thoughts and activities of all living entities. The Svetasvatara Upanisad VI.XI beginning eko devah sarva bhutesu states: The Supreme Lord who is one without a second abides in the core of the heart in all created beings as the indwelling monitor. The Briharanyaka Upanisad III.VII.XIII beginning yah sarvesu bhutesu tisthan states: The Supreme Soul abides within all beings yet He is different from all beings. Whom beings do not know. Whose creations all beings are: Who controls all beings. Who is the inner ruler of all beings as well as the inner controller of all beings. How this is to be understood is inconceivable but by His illusory energy known as maya all beings are revolving in samsara the perpetual cycle of birth and death engaged in a myriad of activities. The jivas who identify with the physical body are kept revolving life after life in material existence. The jivas who identify with the Supreme Lord have the chance to transcend this by His grace.
There is no commentary for this verse.
Isvarah is the all pervading Supreme Lord as the indwelling monitor within hrid dese the core of the heart which is the source of all consciousness, the basis of all actions pravritti or passive and nivritti or energetic. The Supreme Lord abides simultaneously in the etheric heart of every jiva or embodied being in a subatomic form known as paramatma the Supreme Soul. Once so installed the Supreme Lord activates, energises and animates the physical body of the jiva or embodied being. Maya the external illusory potency bombasts and buffets the jivas interminably in the material existence in accordance to and consistent with the guna or mode of material nature which is predominate. The Brihadaranyaka Upanisad III.VI.XV beginning yah sarvesu bhutesu tisthan states: The Supreme Lord abides in all beings and controls all living entities internally.
Isvarah is the all pervading Supreme Lord as the indwelling monitor within hrid dese the core of the heart which is the source of all consciousness, the basis of all actions pravritti or passive and nivritti or energetic. The Supreme Lord abides simultaneously in the etheric heart of every jiva or embodied being in a subatomic form known as paramatma the Supreme Soul. Once so installed the Supreme Lord activates, energises and animates the physical body of the jiva or embodied being. Maya the external illusory potency bombasts and buffets the jivas interminably in the material existence in accordance to and consistent with the guna or mode of material nature which is predominate. The Brihadaranyaka Upanisad III.VI.XV beginning yah sarvesu bhutesu tisthan states: The Supreme Lord abides in all beings and controls all living entities internally.
Eeshwarah sarvabhootaanaam hriddeshe’rjuna tishthati; Bhraamayan sarvabhootaani yantraaroodhaani maayayaa.
īśhvaraḥ—the Supreme Lord; sarva-bhūtānām—in all living being; hṛit-deśhe—in the hearts; arjuna—Arjun; tiṣhṭhati—dwells; bhrāmayan—causing to wander; sarva-bhūtāni—all living beings; yantra ārūḍhani—seated on a machine; māyayā—made of the material energy