सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।18.64।।
।।18.64।।सबसे अत्यन्त गोपनीय वचन तू फिर मेरेसे सुन। तू मेरा अत्यन्त प्रिय है? इसलिये मैं तेरे हितकी बात कहूँगा।
।।18.64।। पुन एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम परम वचन (उपदेश) को सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो? इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात कहूंगा।।
।।18.64।। व्याख्या -- सर्वगुह्यतमं भूयः श्रुणु मे परमं वचः -- पहले तिरसठवें श्लोकमें भगवान्ने गुह्य (कर्मयोगकी) और गुह्यतर (अन्तर्यामी निराकारकी शरणागतिकी) बात कही और इदं तु ते गुह्यतमम् (9। 1) तथा इति गुह्यतमं शास्त्रम् (15। 20) -- इन पदोंसे गुह्यतम (अपने प्रभावकी) बात कह दी? पर सर्वगुह्यतम बात गीतामें पहले कहीं नहीं कही। अब यहाँ अर्जुनकी घबराहटको देखकर भगवान् कहते हैं कि मैं सर्वगुह्यतम अर्थात् सबसे अत्यन्त गोपनीय बात फिर कहूँगा? तू मेरे परम? सर्वश्रेष्ठ वचनोंको सुन।इस श्लोकमें सर्वगुह्यतमम् पदसे भगवान्ने बताया कि यह हरेकके सामने प्रकट करनेकी बात नहीं है और सड़सठवें श्लोकमें इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन पदसे भगवान्ने बताया कि इस बातको असहिष्णु और अभक्तसे कभी मत कहना। इस प्रकार दोनों तरफसे निषेध करके बीचमें (छियासठवें श्लोकमें) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज -- इस सर्वगुह्यतम बातको रखा है। दोनों तरफसे निषेध करनेका तात्पर्य है कि यह गीताभरमें अत्यन्त रहस्यमय खास उपदेश है। (टिप्पणी प0 966)दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें धर्मसम्मूढचेताः कहकर अर्जुन अपनेको धर्मका निर्णय करनेमें अयोग्य समझते हुए भगवान्से पूछते हैं? उसके शिष्य बनते हैं और शिक्षा देनेके लिये कहते हैं। अतः भगवान् यहाँ (18। 66 में) कहते हैं कि तू धर्मके निर्णयका भार अपने ऊपर मत ले? वह भार मेरेपर छोड़ दे -- मेरे ही अर्पण कर दे और अनन्यभावसे केवल मेरी शरणमें आ जा। फिर तेरेको जो पाप आदिका डर है? उन सब पापोंसे मैं तुझे मुक्त कर दूँगा। तू सब चिन्ताओंको छोड़ दे। यही भगवान्का सर्वगुह्यतम परम वचन है।भूयः श्रृणु का तात्पर्य है कि मैंने यही बात दूसरे शब्दोंमें पहले भी कही थी? पर तुमने ध्यान नहीं दिया। अतः मैं फिर वही बात कहता हूँ। अब इस बातपर तुम विशेषरूपसे ध्यान दो।यह सर्वगुह्यतमवाली बात भगवान्ने पहले मत्परः ৷৷. मच्चित्तः सततं भव (18। 57) और मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादत्तरिष्यसि (18। 58) पदोंसे कह दी थी परन्तु सर्वगुह्यतमम् पद पहले नहीं कहा? और अर्जुनका भी उस बातपर लक्ष्य नहीं गया। इसलिये अब फिर उस बातपर अर्जुनका लक्ष्य करानेके लिये और,उस बातका महत्त्व बतानेके लिये भगवान् यहाँ सर्वगुह्यतमम् पद देते हैं।इष्टोऽसि मे दृढमिति -- इससे पहले भगवान्ने कहा था कि जैसी मरजी आये? वैसा कर। जो अनुयायी है? आज्ञापालक है? शरणागत है? उसके लिये ऐसी बात कहनेके समान दूसरा क्या दण्ड दिया जा सकता है अतः इस बातको सुनकर अर्जुनके मनमें भय पैदा हो गया कि भगवान् मेरा त्याग कर रहे हैं। उस भयको दूर करनेके लिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि तुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो (टिप्पणी प0 967.1)।यदि अर्जुनके मनमें भय या संदेह न होता? तो भगवान्कोतुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो -- यह कहकर सफाई देनेकी क्या जरूरत थी सफाई देना तभी बनता है? जब दूसरेके मनमें भय हो? सन्देह हो? हलचल हो। इष्टः कहनेका दूसरा भाव यह है कि भगवान् अपने शरणागत भक्तको अपना ईष्टदेव मान लेते हैं। भक्त सब कुछ छोड़कर केवल भगवान्को अपना इष्ट मानता है? तो भगवान् भी उसको अपना इष्ट मान लेते हैं क्योंकि भक्तिके विषयमें भगवान्का यह कानून है -- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4। 11) अर्थात् जो भक्त जैसे मेरे शरण होते हैं? मैं भी उनको वैसे ही आश्रय देता हूँ। भगवान्की दृष्टिमें भक्तके समान और कोई श्रेष्ठ नहीं है। भागवतमें भगवान् उद्धवजीसे कहते हैं -- तुम्हारेजैसे प्रेमी भक्त मुझे जितने प्यारे हैं? उतने प्यारे न ब्रह्माजी हैं? न शंकरजी हैं? न बलरामजी हैं और तो क्या? मेरे शरीरमें निवास करनेवाली लक्ष्मीजी और मेरी आत्मा भी उतनी प्यारी नहीं है (टिप्पणी प0 967.2)।दृढम् कहनेका तात्पर्य है कि जब तुमने एक बार कह दिया कि मैं आपके शरण हूँ (2। 7) तो अब तुम्हें बिलकुल भी भय नहीं करना चाहिये। कारण कि जो मेरी शरणमें आकर एक बार भी सच्चे हृदयसे कह देता है कि मैं आपका ही हूँ ? उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय (सुरक्षित) कर देता हूँ -- यह मेरा व्रत है (टिप्पणी प0 967.3)। ततो वक्ष्यामि ते हितम् -- तू मेरा अत्यन्त प्यारा मित्र है? इसलिये अपने हृदयकी अत्यन्त गोपनीय और अपने दरबारकी श्रेष्ठसेश्रेष्ठ बात तुझे कहूँगा। दूसरी बात? मैं जो आगे शरणागतिकी बात कहूँगा? उसका यह तात्पर्य नहीं है कि मेरी शरणमें आनेसे मुझे कोई लाभ हो जायगा? प्रत्युत इसमें केवल तेरा ही हित होगा। इससे सिद्ध होता है कि प्राणिमात्रका हित केवल इसी बातमें है कि वह किसी दूसरेका सहारा न लेकर केवल भगवान्की ही शरण ले।भगवान्की शरण होनेके सिवाय जीवका कहीं भी? किञ्चन्मात्र भी हित नहीं है। कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्माका अंश है। इसलिये वह परमात्माको छोड़कर किसीका भी सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं। जब संसारकी कोई भी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? अवस्था आदि स्थिर नहीं है? तो फिर उनका सहारा कैसे स्थिर रह सकता है उनका सहारा तो रहेगा नहीं? पर चिन्ता? शोक? दुःख आदि रह जायँगे जैसे? अग्निसे अङ्गार दूर हो जाता है तो वह काला कोयला बन जाता है -- कोयला होय नहीं उजला? सौ मन साबुन लगाय। पर वही कोयला जब पुनः अग्निसे मिल जाता है? तब वह अङ्गार (अग्निरूप) बन जाता है और चमक उठता है। ऐसे ही यह जीव भगवान्से विमुख हो जाता है तो बारबार जन्मतामरता और दुःख पाता रहता है? पर जब यह भगवान्के सम्मुख हो जाता है अर्थात् अनन्यभावसे भगवान्की शरणमें हो जाता है? तब यह भगवत्स्वरूप बन जाता है और चमक उठता है? तथा संसारमात्रका कल्याण करनेवाला हो जाता है।
।।18.64।। सम्भवत? जब भगवान् ने यह देखा कि अर्जुन अभी तक कुछ निश्चित निर्णय नहीं ले पा रहा है? तब स्नेहवश वे पुन अपने उपदेश के मुख्य सिद्धांत को दोहराने का वचन देते हैं। इस पुनरुक्ति का प्रमुख कारण केवल मित्रप्रेम और अर्जुन के हित की कामना ही है।वह गुह्यतम उपदेश क्या है
18.64 Listen again to My highest utterance which is the profoundest of all. Since you are ever dear to Me, therefore I shall speak what is beneficial to you.
18.64 Hear thou again My supreme word, most secret of all; because thou art dearly beloved of Me, I will tell thee what is good.
18.64. Yet again, you must listen to My ultimate (or supreme) message which is the highest secret of all. You are My dear one and have a firm intellect. Hence I shall tell you what is good to you :
18.64 सर्वगुह्यतमम् the most secret of all? भूयः again? श्रृणु hear? मे My? परमम् supreme? वचः word? इष्टः beloved? असि (thou) art? मे of Me? दृढम् dearly? इति thus? ततः therefore? वक्ष्यामि (I) will speak? ते thy? हितम् what is good.Commentary Now listen once more with rapt attention to My words. Thou art very dear to Me. Thou art a sincere aspirant. Therefore I am telling thee this most mysterious truth. Hear from Me this mystery of all mysteries. I shall tell it to you again to make a deep impression on your mind? although it has been declared more than once. I do not hope to get any reward from thee. Thou art My most beloved friend and disciple. Therefore I will speak what is good for thee? the means of attaining Selfrealisation. This is the supreme good or the highest of all kinds of good for thee.
18.64 Srnu, listen; bhuyah, again; to me, My; paramam, highest; vacah, utternace; which is sarva-guhyatamam, profundest of all, most secret of all secrets, though it has been repeatedly stated. Neither from fear nor even for the sake of money am I speaking! What then? Iti, since, considering that; asi, you are; drdham, ever, unwaveringly; istah, dear; me, to Me; tatah, therefore, for that reason; vaksyami, I shall speak; what is hitam, beneficial; te, to you, what is the highest means of attaining Knowledge. That is indeed the most beneficial of all beneficial things. What is that (You are going to tell me)? In answer the Lord says:
18.64 See Comment under 18.65
18.64 It has been said that Bhakti Yoga is the most secret of all secrets, in such texts as I will declare to you, who does not cavil, this most mysterious knowledge (9.1). Hear again My supreme word concerning it (i.e., Bhakti Yoga). As you are exceedingly dear to Me, therefore, I shall declare what is good for you.
Glancing at Arjuna, his very dear friend, standing silently as he began to review the very deep meaning of the Gita scripture, the Lord, his heart melting like butter due to his mercy, spoke. “O my dear friend Arjuna, I will now speak the essence of the whole scripture in eight verses. Forget about the difficulties in having to review everything in order to understand it.” Again (bhuyah) hear the most secret knowledge. He says “again” because he said the same thing at the end of the ninth chapter: man-mana bhava mad-bhakto mad-yaji mam namaskuru mam evaisyasi yuktvaivam atmanam mat-parayanah – Bhagavad Gita 9.34 Those were the highest words (paramam vacah), the most secret (guhyatamam), the essence of even the Gita, which is the essence of the meaning of all scriptures. There is no secret greater than this, anywhere, or from anywhere, in any way, at all. He then gives the reason for speaking this. Because you are very (drdham) dear (istah), my friend, I speak for your benefit. Without having such friendship no one speaks any most confidential topic. Drdha matir (with fixed mind) instead of drdham iti is another reading of the text.
For those due to some unexplainable obstacle or impediment who are unable to reflect on the profound and sublime teachings of Srimad Bhagavad-Gita in its entirety, the Supreme Lord Krishna will reveal the essence of Srimad Bhagavad-Gita in verses 65 and 66. Although confidential teachings have been collectively revealed throughout the preceding 17 chapters. Now Lord Krishna will reveal the most concise form of the teachings that consolidates them all. Graciously He commands sarva-guhytamam bhuyah srnu meaning: Hear again My most confidential teachings. But now He will bequeath the consummate conclusion of all conclusions in their purest essence. Why does the Supreme Lord bestow this? Because He considers the reality of how dear His devotees existing in the turbulent and unstable material existence are so beloved by Him. For this reason He reveals the absolute essential teachings in the next two verses for the ultimate benefit of His loving devotees. Some anvayas interpret drdham hitam as most beneficial. Others interpret drdhamati as of firm resolve; but we interpret drdham istah as extremely dear which is how a beloved is.
There is no commentary for this verse.
Among the three paths mentioned in the previous verse: bhakti yoga or facilitating communion by exclusive loving devotion unto the Supreme Lord Krishna or any of His authorised avatars or incarnations and expansions according to Vedic scriptures is considered the most exalted and pre- eminent and thus it is the most confidential. Because Lord Krishna is extremely affectionate to His devotees who have Him alone as their sole refuge, He will mercifully reveal in the next two verses the absolute conclusion and final essence of the entire divine discourse of Srimad Bhagavad-Gita.
Among the three paths mentioned in the previous verse: bhakti yoga or facilitating communion by exclusive loving devotion unto the Supreme Lord Krishna or any of His authorised avatars or incarnations and expansions according to Vedic scriptures is considered the most exalted and pre- eminent and thus it is the most confidential. Because Lord Krishna is extremely affectionate to His devotees who have Him alone as their sole refuge, He will mercifully reveal in the next two verses the absolute conclusion and final essence of the entire divine discourse of Srimad Bhagavad-Gita.
Sarvaguhyatamam bhooyah shrinu me paramam vachah; Ishto’si me dridhamiti tato vakshyaami te hitam.
sarva-guhya-tamam—the most confidential of all; bhūyaḥ—again; śhṛiṇu—hear; me—by me; paramam—supreme; vachaḥ—instruction; iṣhṭaḥ asi—you are dear; me—to me; dṛiḍham—very; iti—thus; tataḥ—because; vakṣhyāmi—I am speaking; te—for your; hitam—benefit