इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।
।।18.67।।यह सर्वगुह्यतम वचन अतपस्वीको मत कहना अभक्तको कभी मत कहना जो सुनना नहीं चाहता? उसको मत कहना और जो मेरेमें दोषदृष्टि करता है? उससे भी मत कहना।
।।18.67।। यह ज्ञान ऐसे पुरुष से नहीं कहना चाहिए? जो अतपस्क (तपरहित) है? और न उसे जो अभक्त है उसे भी नहीं जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है और उस पुरुष से भी नहीं कहना चाहिए? जो मुझ (ईश्वर) से असूया करता है? अर्थात् मुझ में दोष देखता है।।