इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।
।।18.67।। यह ज्ञान ऐसे पुरुष से नहीं कहना चाहिए? जो अतपस्क (तपरहित) है? और न उसे जो अभक्त है उसे भी नहीं जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है और उस पुरुष से भी नहीं कहना चाहिए? जो मुझ (ईश्वर) से असूया करता है? अर्थात् मुझ में दोष देखता है।।
।।18.67।। प्राय अध्यात्मशास्त्र के समस्त ग्रन्थों के अन्तिम भाग में शास्त्रसंप्रदाय की विधि अर्थात् ज्ञान के अधिकारी का वर्णन किया जाता है। इसी महान् परम्परा का अनुसरण करते हुए? इस श्लोक में? भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह ज्ञान किसे नहीं देना चाहिए। इसी के द्वारा यहाँ इसका भी बोध कराया गया है कि ज्ञान के योग्य अधिकारी में कौन से गुण होने चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि इन गुणों के उल्लेख से गीता की ज्ञान निधि के चारों ओर प्राचीरें खड़ी की गई हैं। कोई यह न समझे कि कतिपय लोगों की स्वार्थसिद्धि के लिए और उन्हें इस ज्ञाननिधि के व्यापार का एकाधिकार प्रदान करने के लिए इस सम्प्रदाय विधि का निर्माण किया गया है।यहाँ उल्लिखित गुणों के अध्ययन से ज्ञात होगा कि साधक के आन्तरिक व्यक्तित्व के सुगठन के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। साधन सम्पन्न साधक ही इस ज्ञान का ग्रहण? धारण एवं स्मरण करने में समर्थ होता है। वही इस ज्ञानानन्द का अनुभव एवं अर्जन करके उसे अपने जीवन में प्रकट कर सकता है।यह ज्ञान ऐसे पुरुष को नहीं देना चाहिए जो (1) तपरहित है शरीर? वाणी और मन का संयम ही तप है जिसके द्वारा हम समस्त शक्तियों का संचय कर सकते हैं। संयमरूपी तप से रहित पुरुष में इस ज्ञान को ग्रहण करने की मानसिक और बौद्धिक क्षमता ही नहीं होती। इसलिए? तप रहित व्यक्ति से ज्ञान नहीं कहना चाहिए? क्योंकि इससे उस व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होगा। इस कथन में रंचमात्र भी पूर्वाग्रह और दुराग्रह नहीं है। यह कथन इसी प्रकार का है कि? कृपया चट्टानों पर बीजारोपण मत करो। कारण यह है कि कृषक को इससे कोई फसल प्राप्त नहीं होगी।(2) जो अभक्त है तपयुक्त हो किन्तु भक्त न हो? तो उस पुरुष से भी यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए। जो साधक अपने लक्ष्य के साथ तादात्म्य नहीं कर सकते? उससे प्रेम नहीं कर सकते? वे इस ज्ञान के अधिकारी नहीं हैं। प्रेम के अभाव में त्याग और उत्साह संभव नहीं है। प्रेमालिंगन में अपने आदर्श को बांध लेना ही भक्ति है।(3) जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है यदि कोई पुरुष तपस्वी और भक्त है? परन्तु गुरुसेवा और जनसेवा करने में संकोच करता है? तो वह भी योग्य विद्यार्थी नहीं कहा जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण गीता में निस्वार्थ सेवा पर विशेष बल दिया है? क्योंकि चित्तशुद्धि का वही सर्वश्रेष्ठ साधन है। स्वार्थी लोग कभी भी इस ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पाते हैं और न ही उसके आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।(4) जो मुझे से असूया अर्थात् मुझमें दोष देखता है गुणों में दोष देखना असूया है? जो लोग ईश्वर? गुरु और शास्त्रप्रमाण में भी दोष देखते हैं? वे किस प्रकार आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं मुझसे असूया का अर्थ परमात्मा से असूया है। उसी प्रकार? तत्त्वज्ञान का अनादर करने वाले लोग भी अभ्यसूयक कहलाते हैं। बल प्रयोग के द्वारा कराये गये धर्म परिवर्तन से उस मत के अनुयायियों का संख्याबल तो बढ़ाया जा सकता है? परन्तु? ऐसे प्रयोग से आत्मविकास नहीं कराया जा सकता। किसी के भी ऊपर धर्म को नहीं थोपना चाहिए। यदि तत्त्वज्ञान के प्रति मन में तिरस्कार का भाव है? तो बुद्धि से उसे समझने पर भी हम उसे अपने जीवन म्ों कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं। इसलिए? असूया युक्त पुरुष इस ज्ञान का अधिकारी नहीं है।इस प्रकार के श्लोकों का प्रयोजन साधकों को साधन मार्ग दर्शाना होता है। गीता के अध्ययन से तत्काल ही किसी लाभ की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रातोरात व्यक्तित्व का सुगठन नहीं किया जा सकता। गीता इस प्रकार के चमत्कार का आश्वासन नहीं देती।इस श्लोक का अभिप्राय यह हुआ कि तप? भक्ति? सेवाभाव और आदर से युक्त पुरुष ही आत्मज्ञान का उत्तम अधिकारी है। यदि हम शास्त्र के अध्ययन से अधिक लाभान्वित नहीं होते हैं? तो? निश्चय ही हममें किसी आवश्यक गुण का अभाव होना चाहिए। उस स्थिति में आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम आत्मशोधन करें। जैसे? दर्पण पर जमी धूल को स्वच्छ कर देने से प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देता है? उसी प्रकार अन्तकरण के शुद्ध और स्थिर होने पर आत्मानुभव स्पष्ट होता है।अब? संप्रदाय के प्रवर्तक एवं प्रचारक को प्राप्त होने वाले फल को बताते हैं