अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।18.70।।
।।18.70।।जो मनुष्य हम दोनोंके इस धर्ममय संवादका अध्ययन करेगा? उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा -- ऐसा मेरा मत है।
।।18.70।। जो पुरुष? हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा? उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा ऐसा मेरा मत है।।
।।18.70।। व्याख्या -- अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः -- तुम्हारा और हमारा यह संवाद शास्त्रों? सिद्धान्तोंके साररूप धर्मसे युक्त है। यह बहुत विचित्र बात है कि परस्पर साथ रहते हुए तुम्हारेहमारे बहुत वर्ष बीत गये परन्तु हम दोनोंका ऐसा संवाद कभी नहीं हुआ ऐसा धर्ममय संवाद तो कोई विलक्षण? अलौकिक अवसर आनेपर ही होता है।जबतक मनुष्यकी संसारसे उकताहट न हो? वैराग्य या उपरति न हो और हृदयमें जोरदार हलचल न मची हो? तबतक उसकी असली जिज्ञासा जाग्रत् नहीं होती। किसी कारणवश जब यह मनुष्य अपने कर्तव्यका निर्णय करनेके लिये व्याकुल हो जाता है? जब अपने कल्याणके लिये कोई रास्ता नहीं दीखता? बिना समाधानके और कोई सांसारिक वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदि किञ्चिन्मात्र भी अच्छी नहीं लगती? एकमात्र हृदयका सन्देह दूर करनेकी धुन (चटपटी) लग जाती है? एक ही जोरदार जिज्ञासा होती है और दूसरी तरफसे मन सर्वथा हट जाता है? तब यह मनुष्य जहाँसे प्रकाश और समाधान मिलनेकी सम्भावना होती है? वहाँ अपना हृदय खोलकर बात पूछता है? प्रार्थना करता है? शरण हो जाता है? शिष्य हो जाता है।पूछनेवालेके मनमें जैसीजैसी उत्कण्ठा बढ़ती है? कहनेवालेके मनमें वैसीवैसी बड़ी विचित्रता और विलक्षणतासे समाधान करनेवाली बातें पैदा होती हैं। जैसे दूध पीनेके समय बछड़ा जब गायके थनोंपर मुहँसे,बारबार धक्का मारता है और थनोंसे दूध खींचता है? तब गायके शरीरमें रहनेवाला दूध थनोंमें एकदम उतर आता है। ऐसे ही मनमें जोरदार दूध थनोंमें एकदम उतर आता है। ऐसे ही मनमें जोरदार जिज्ञासा होनेसे जब जिज्ञासु बारबार प्रश्न करता है? तब कहनेवालेके मनमें नयेनये उत्तर पैदा होते हैं। सुननेवालेको ज्योंज्यों नयी बातें मिलती हैं? त्योंत्यों उसमें सुननेकी नयीनयी उत्कण्ठा पैदा होती रहती है। ऐसा होनेपर ही वक्ता और श्रोता -- इन दोनोंका संवाद बढ़िया होता है।अर्जुनने ऐसी उत्कण्ठासे पहले कभी बात नहीं पूछी और भगवान्के मनमें भी ऐसी बातें कहनेकी कभी नहीं आयी। परन्तु जब अर्जुनने जिज्ञासापूर्वक स्थितप्रज्ञस्य का भाषा ৷৷. (2। 54) -- यहाँसे पूछना प्रारम्भ किया? वहींसे उन दोनोंका प्रश्नोत्तररूपसे संवाद प्रारम्भ हुआ है। इसमें वेदों तथा उपनिषदोंका सार और भगवान्के हृदयका असली भाव है? जिसको धारण करनेसे मनुष्य भयंकरसेभयंकर परिस्थितिमें भी अपने मनुष्यजन्मके ध्येयको सुगमतापूर्वक सिद्ध कर सकता है। प्रतिकूलसेप्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी घबराये नहीं? प्रत्युत प्रतिकूल परिस्थितिका आदर करते हुए उसका सदुपयोग करे अर्थात् अनुकूलताकी इच्छाका त्याग करे क्योंकि प्रतिकूलता पहले किये पापोंका नाश करने और आगे अनुकूलताकी इच्छाका त्याग करनेके लिये ही आती है। अनुकूलताकी इच्छा जितनी ज्यादा होगी? उतनी ही प्रतिकूल अवस्था भयंकर होगी। अनुकूलताकी इच्छाका ज्योंज्यों त्याग होता जायगा? त्योंत्यों अनुकूलताका राग और प्रतिकूलताका भय मिटता जायगा। राग और भय -- दोनोंके मिटनेसे समता आ जायगी। समता परमात्माका साक्षात् स्वरूप है। गीतामें समताकी बात विशेषतासे बतायी गयी और गीताने इसीको योग कहा है। इस प्रकार कर्मयोग? ज्ञानयोग? भक्तियोग? ध्यानयोग? प्राणायाम आदिकी विलक्षणविलक्षण बातोंका इसमें वर्णन हुआ है।अध्येष्यते का तात्पर्य है कि इस संवादको कोई ज्योंज्यों पढ़ेगा? पाठ करेगा? याद करेगा? उसके भावोंको समझनेका प्रयास करेगा? त्योंहीत्यों उसके हृदयमें उत्कण्ठा बढ़ेगी। वह ज्योंज्यों समझेगा? त्योंत्यों उसकी शङ्काका समाधान होगा। ज्योंज्यों समाधान होगा? त्योंत्यों इसमें अधिक रुचि पैदा होगी। ज्योंज्यो रुचि अधिक पैदा होगी? त्योंत्यों गहरे भाव उसकी समझमें आयेंगे और फिर वे भाव उसके आचरणोंमें? क्रियाओंमें? बर्तावमें आने लगेंगे। आदरपूर्वक आचरण करनेसे वह गीताकी मूर्ति बन जायगा? उसका जीवन गीतारूपी साँचेमें ढल जायगा अर्थात् वह चलतीफिरती भगवद्गीता हो जायगी। उसको देखकर लोगोंको गीताकी याद आने लगेगी जैसे निषादराज गुहको देखकर माताओंको और दूसरे लोगोंको लखनलालकी याद आती है (टिप्पणी प0 991)।ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्याम -- यज्ञ दो प्रकारके होते हैं -- द्रव्ययज्ञ और ज्ञानयज्ञ। जो यज्ञ पदार्थों और क्रियाओंकी प्रधानतासे किया जाता है? वहद्रव्ययज्ञ कहलाता है और उत्कण्ठासे केवल अपनी आवश्यक वास्तविकताको जाननेके लिये जो प्रश्न किये जाते हैं? विज्ञ पुरुषोंद्वारा उनका समाधान किया जाता है? उनका गहरा विचार किया जाता है? विचारके अनुसार अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव किया जाता है तथा वास्तविक तत्त्वको जानकर ज्ञातज्ञातव्य हो जाता है? वहज्ञानयज्ञ कहलाता है। परन्तु यहाँ भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तुम्हारेहमारे संवादका कोई पाठ करेगा तो मैं उसके द्वारा भी ज्ञानयज्ञसे पूजित हो जाऊँगा। इसमें कारण यह है कि जैसे प्रेमी भक्तको कोई भगवान्की बात सुनाये? उसकी याद दिलाये तो वह बड़ा प्रसन्न होता है? ऐसे ही कोई गीताका पाठ करे? अभ्यास करे तो भगवान्को अपने अनन्य भक्तकी? उसकी उत्कण्ठापूर्वक जिज्ञासाकी और उसे दिये हुए उपदेशकी याद आ जाती है और वे बड़े प्रसन्न होते हैं एवं उस पाठ? अभ्यास आदिको ज्ञानयज्ञ मानकर उससे पूजित होते हैं। कारण कि पाठ? अभ्यास आदि करनेवालेके हृदयमें उसके भावोंके अनुसार भगवान्का नित्यज्ञान विशेषतासे स्फुरित होने लगता है।इति मे मतिः -- ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि जब कोई गीताका पाठ करता है तो मैं उसको सुनता हूँ क्योंकि मैं सब जगह रहता हूँ -- मया ततमिदं सर्वम् (गीता 9। 4) और सब जगह ही मेरे कान हैं -- सर्वतःश्रुतिमल्लोके (गीता 13। 13)। अतः उस पाठको सुनते ही मेरे हृदयमें विशेषतासे ज्ञान? प्रेम? दया,आदिका समुद्र लहराने लगता है और गीतोपदेशकी यादमें मेरी बुद्धि सराबोर हो जाती है। वह पूजन करता है -- ऐसी बात नहीं है? वह तो पाठ करता है परन्तु मैं उससे पूजित हो जाता हूँ अर्थात् उसको ज्ञानयज्ञका फल मिल जाता है।दूसरा भाव यह है कि पाठ करनेवाला यदि उतने गहरे भावोंमें नहीं उतरता? केवल पाठमात्र या यादमात्र करता है तो भी उससे मेरे हृदयमें तेरे और मेरे सारे संवादकी (उत्कण्ठापूर्वक किये गये तेरे प्रश्नोंकी और मेरे दिये हुये गहरे वास्तविक उत्तरोंकी) एक गहरी मीठीमीठी स्मृति बारबार आने लगती है। इस प्रकार गीताका अध्ययन करनेवाला मेरी बड़ी भारी सेवा करता है? ऐसा मैं मान लेता हूँ।विदेशमें किसी जगह एक जलसा हो रहा था। उसमें बहुतसे लोग इकट्ठे हुए थे। एक पादरी उस जलसेमें एक लड़केको ले आया। वह लड़का पहले नाटकमें काम किया करता था। पादरीने उस लड़केको दसपन्द्रह मिनटका एक बहुत बढ़िया व्याख्यान सिखाया। साथ ही ढंगसे उठना? बैठना? खड़े होना? इधरउधर ऐसाऐसा देखना आदि व्याख्यानकी कला भी सिखायी। व्याख्यानमें बड़े ऊँचे दर्जेकी अंग्रेजीका प्रयोग किया गया था। व्याख्यानका विषय भी बहुत गहरा था। पादरीने व्याख्यान देनेके लिये उस बालकको मेजपर खड़ा कर दिया। बच्चा खड़ा हो गया और बड़े मिजाजसे दायेंबायें देखने लगा और बोलनेकी जैसीजैसी रिवाज है? वैसेवैसे सम्बोधन देकर बोलने लगा। वह नाटकमें रहा हुआ था? उसको बोलना आता ही था अतः वह गंभीरतासे? मानो अर्थोंको समझते हुएकी मुद्रामें ऐसा विलक्षण बोला कि जितने सदस्य बैठे थे? वे सब अपनीअपनी कुर्सियोंपर उछलने लगे। सदस्य इतने प्रसन्न हुए कि व्याख्यान पूरा होते ही वे रुपयोंकी बौछार करने लगे। अब वह बालक सभाके ऊपरहीऊपर घुमाया जाने लगा। उसको सब लोग अपनेअपने कन्धोंपर लेने लगे। परन्तु उस बालकको यह पता ही नहीं था कि मैंने क्या कहा है वह तो बेचारा ज्यादा पढ़ालिखा न होनेसे अंग्रेजीके भावोंको भी पूरा नहीं समझता था? पर सभावाले सभी लोग समझते थे। इसी प्रकार कोई गीताका अध्ययन करता है? पाठ करता है तो वह भले ही उसके अर्थको? भावोंको न समझे? पर भगवान् तो उसके अर्थको? भावोंको समझते हैं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि मैं उसके अध्ययनरूप? पाठरूप ज्ञानयज्ञसे पूजित हो जाता हूँ। सभामें जैसे बालकके व्याख्यानसे सभापति तो खुश हुआ ही? पर उसके साथसाथ सभासद् भी बड़े खुश हुए और उत्साहपूर्वक बच्चेका आदर करने लगे? ऐसे ही गीता पाठ करनेवालेसे भगवान् ज्ञानयज्ञसे पूजित होते हैं तथा स्वयं वहाँ निवास करते हैं? साथहीसाथ प्रयोग आदि तीर्थ? देवता? ऋषि? योगी? दिव्य नाग? गोपाल? गोपिकाएँ? नारद? उद्धव आदि भी वहाँ निवास करते हैं (टिप्पणी प0 992.1)। सम्बन्ध -- जो गीताका प्रचार और अध्ययन भी न कर सके? इसके लिये आगेके श्लोकमें उपाय बताते हैं।
।।18.70।। गीता के समस्त उपदेष्टाओं को गौरवान्वित करने के पश्चात्? अब भगवान् श्रीकृष्ण उन विद्यार्थियों की भी प्रशंसा करते हैं? जो इस पवित्र भगवद्गीता का पठन करते हैं। अनन्तस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण और परिच्छिन्न जीवरूप अर्जुन के इस संवादरूप जीवन के तत्त्वज्ञान का अपना एक प्रबल आकर्षण है। जो लोग केवल इसका सतही पठन करते हैं? वे भी शनैशनै इसकी पावन गहराइयों में खिंचे चले जाते हैं। ऐसा पाठक अनजाने में ही आत्मदेव की तीर्थयात्रा पर चल पड़ता है? और फिर स्वाभाविक ही है कि ज्ञानयज्ञ के द्वारा वह आत्मविकास प्राप्त करता हैकर्मकाण्ड की यज्ञविधि में? एक यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित करके उसमें अग्नि देवता का आह्वान किया जाता है। तत्पश्चात् यजमान उसमें द्रव्यरूप आहुतियाँ अर्पण करता है। इसी साम्य से? गीता में इस मौलिक शब्द ज्ञानयज्ञ का प्रयोग किया गया है। अध्यात्मशास्त्रों के अध्ययन तथा उनके तात्पर्यार्थ पर चिन्तन मनन करने से साधकों के मन में ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है। इस ज्ञानाग्नि में एक विवेकी साधक अपने अज्ञान? मिथ्या धारणाएं एवं दुष्प्रवृत्तियों की आहुतियाँ प्रदान करता है। रूपक की भाषा में प्रयुक्त इस शब्द ज्ञानयज्ञ का यही आशय है। इसलिए? जो साधकगण श्रवण? मनन और निदिध्यासन के द्वारा प्रज्वलित ज्ञानाग्नि में अपने अहंकार? स्वार्थ एवं अन्य वासनाओं की आहुतियां देकर शुद्ध हो जाते हैं? वे पुरुष निश्चय ही? ईश्वर के महान पूजक और भक्त है। वे सर्वथा अभिनन्दन के पात्र हैं।अब? इस ज्ञान के श्रोता की भी प्रशंसा करते हुए उसे प्राप्त होने वाले फल को बताते हैं