कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।18.72।।
।।18.72।।हे पृथानन्दन क्या तुमने एकाग्रचित्तसे इसको सुना और हे धनञ्जय क्या तुम्हारा अज्ञानसे उत्पन्न मोह नष्ट हुआ
।।18.72।। व्याख्या -- कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा -- एतत् शब्द अत्यन्त समीपका वाचक होता है और यहाँ अत्यन्त समीप इकहत्तरवाँ श्लोक है। उनहत्तरवेंसत्तरवें श्लोकोंमें जो गीताका प्रचार और अध्ययन करनेवालेकी महिमा कही है? उस प्रचार और अध्ययनका तो अर्जुनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं था। इसलिये पीछेके (इकहत्तरवें) श्लोकका लक्ष्य करके भगवान् अर्जुनसे कहते हैं किमनुष्य श्रद्धापूर्वक और दोषदृष्टिरहित होकर गीता सुने -- यह बात तुमने ध्यानपूर्वक सुनी कि नहीं अर्थात् तुमने श्रद्धापूर्वक और दोषदृष्टिरहित होकर गीता सुनी कि नहींएकाग्रेण चेतसा कहनेका तात्पर्य है कि गीतामें भी जिस अत्यन्त गोपनीय रहस्यको अभी पहले चौंसठवें श्लोकमें कहनेकी प्रतिज्ञा की? सड़सठवें श्लोकमें इदं ते नातपस्काय कहकर निषेध किया और मेरे वचनोंमें जिसको मैंने परम वचन कहा? उस सर्वगुह्यतम शरणागतिकी बात (18। 66) को तुमने ध्यानपूर्वक सुना कि नहीं उसपर खयाल किया कि नहींकच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय -- भगवान् दूसरा प्रश्न करते हैं कि तुम्हारा अज्ञानसे उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ कि नहीं अगर मोह नष्ट हो गया तो तुमने मेरा उपदेश सुन लिया और अगर मोह नष्ट नहीं हुआ,तो तुमने मेरा यह रहस्यमय उपदेश एकाग्रतासे सुना ही नहीं क्योंकि यह एकदम पक्का नियम है कि जो दोषदृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक गीताके उपदेशको सुनता है? उसका मोह नष्ट हो ही जाता है।पार्थ सम्बोधन देकर भगवान् अपनेपनसे? बहुत प्यारसे पूछ रहे हैं कि तुम्हारा मोह नष्ट हुआ कि नहीं पहले अध्यायके पचीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने अर्जुनको सुननेके उन्मुख करनेके लिये पार्थ सम्बोधन देकर सबसे प्रथम बोलना आरम्भ किया और कहा कि हे पार्थ युद्धके लिये इक्ट्ठे हुए इन कुटुम्बियोंको देखो। ऐसा कहनेका तात्पर्य यह था कि अर्जुनके अन्तःकरणमें छिपा हुआ जो कौटुम्बिक मोह है? वह जाग्रत् हो जाय और उस मोहसे छूटनेके लिये उनको चटपटी लग जाय? जिससे वे केवल मेरे सम्मुख होकर सुननेके लिये तत्पर हो जायँ। अब यहाँ उसी मोहके दूर होनेकी बातका उपसंहार करते हुए भगवान् पार्थ सम्बोधन देते हैं।धनञ्जय सम्बोधन देकर भगवान् कहते हैं कि तुम लौकिक धनको लेकर धनञ्जय (राजाओंके धनको जीतनेवाले) बने हो। अब इस वास्तविक तत्त्वरूप धनको प्राप्त करके अपने मोहका नाश कर लो और सच्चे अर्थोंमेंधनञ्जय बन जाओ। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जो प्रश्न किया था? उसका उत्तर अर्जुन आगेके श्लोकमें देते हैं।