व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।18.75।।
।।18.75।।व्यासजीकी कृपासे मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीताग्रन्थ) को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णसे सुना है।
।।18.75।। व्यास जी की कृपा से मैंने इस परम् गुह्य योग को साक्षात् कहते हुए स्वयं योगोश्वर श्रीकृष्ण भगवान् से सुना।।
।।18.75।। व्याख्या -- व्यासप्रसादात् श्रुतवान् -- सञ्जयने जब भगवान् श्रीकृष्ण और महात्मा अर्जुनका पूरा संवाद सुना? तब वे बड़े प्रसन्न हुए। अब उसी प्रसन्नतामें वे कह रहे हैं कि ऐसा परम गोपनीय योग मैंने भगवान् व्यासजीकी कृपासे सुना व्यासजीकी कृपासे सुननेका तात्पर्य यह है कि भगवान्ने यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया (10। 1)? इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् (18। 64)? मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे (18। 65)? अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः (18। 66) आदिआदि प्यारे वचनोंसे अपना हृदय खोलकर अर्जुनसे जो बातें कही हैं? उन बातोंको सुननेमें केवल व्यासदेवजीकी कृपा ही है अर्थात् सब बातें मैंने व्यासजीकी कृपासे ही सुनी हैं।एतद् गुह्यं परं योगम् -- समस्त योगोंके महान् ईश्वरके द्वारा कहा जानेसे यह गीताशास्त्रयोग अर्थात् योगशास्त्र है। यह गीताशास्त्र अत्यन्त श्रेष्ठ और गोपनीय है। इसके समान श्रेष्ठ और गोपनीय दूसरा कोई संवाद देखनेसुननेमें नहीं आता।जीवका भगवान्के साथ जो नित्यसम्बन्ध है? उसका नामयोग है। उस नित्ययोगकी पहचान करानेके लिये कर्मयोग? ज्ञानयोग आदि योग कहे गये हैं। उन योगोंके समुदायका वर्णन गीतामें होनेसे गीता भीयोग,अर्थात् योगशास्त्र है।योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् -- सञ्जयके आनन्दकी कोई सीमा नहीं रही है। इसलिये वे हर्षोल्लासमें भरकर कह रहे हैं कि इस योगमें मैंने समस्त योगोंके महान् ईश्वर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे सुना है। सञ्जयको योगेश्वरात्? कृष्णात्? साक्षात्? कथयतः? स्वयम् -- ये पाँच शब्द कहनेकी क्या आवश्यकता थी सञ्जय इन शब्दोंका प्रयोग करके यह कहना चाहते हैं कि मैंने यह संवाद परम्परामें नहीं सुना है और किसीने मुझे सुनाया हैऐसी बात भी नहीं इसको तो मैंने खुद भगवान्के कहतेकहते सुना है
।।18.75।। महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होने के पूर्व? महर्षि व्यास जी ने धृतराष्ट्र को दिव्य दृष्टि का वरदान देने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। परन्तु धृतराष्ट्र में उस वरदान को स्वीकार करने का साहस नहीं था। अत धृतराष्ट्र के अनुरोधानुसार युद्ध का सम्पूर्ण वृतान्त जानने के लिए संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की गयी। इस प्रकार? संजय सम्पूर्ण युद्धभूमि को देख सकने तथा वहाँ के संवादों को सुनने में भी समर्थ हुआ था। वैभवशाली राज प्रासाद में बैठकर वही अन्ध धृतराष्ट्र को युद्ध का वृतान्त सुनाता था। श्रीकृष्णार्जुन के संवाद के द्वारा परम् गुह्य ज्ञान के श्रवण का सुअवसर पाकर संजय कृतार्थ हो गया था। स्वाभाविक है कि वह सिद्ध कवि महर्षि व्यास जी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है और वह मन ही मन महाभारत के रचयिता? अतुलनीय सिद्ध कवि वेदव्यासजी को प्रणाम करता है।साक्षात् योगेश्वर श्रीकृष्ण से सुना ऐसी बात नहीं है कि संजय ने इसके पूर्व कभी औपनिषदिक ज्ञान को सुना ही नहीं था? जिससे वह इस अवसर पर विस्मयविमुग्ध हो जाय। उसके आनन्द का कारण यह था कि उसे इस ज्ञान का श्रवण करने का ऐसा अवसर मिला? जब साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही इस ज्ञान का उपदेश अपने मुखारविन्द से दे रहे थे।यहाँ? पुन? संजय का प्रयत्न धृतराष्ट्र को यह सूचित करना है कि गीताचार्य श्रीकृष्ण कोई देवकीपुत्र गोपबाल ही नहीं थे? वरन् वे सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही थे। स्वयं उन्होंने ने ही अर्जुन को मोहनिद्रा से जगाया था और वे अपने भक्त के रथ के सारथी के रूप में कार्य भी कर रहे थे। वह अन्ध राजा को स्मरण कराता है कि यद्यपि धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना पाण्डवों की सेना से अधिक विशाल और शास्त्रास्त्रों से सुसज्जित थी? तथापि उसका विनाश अवश्यंभावी था? क्योंकि उन्हें अपने शत्रुपक्ष में स्वयं अनन्त परमात्मा का ही सामना करना था।संजय आगे कहता है
18.75 Through the favour of Vyasa I heard this secret concerning the supreme Yoga from Krsna, the Lord of yogas, while He Himself was actually speaking!
18.75 Through the grace of Vyasa I have heard this supreme and most secret Yoga direct from Krishna, the Lord of Yoga, Himself declaring it.
18.75. Through the grace of Vyasa, I have heard this highly secret supreme Yoga from Krsna, the Lord of the Yogins, while He was Himself imparting it personally.
18.75 व्यासप्रसादात् through the grace of Vyasa? श्रुतवान् have heard? एतत् this? गुह्यम् secret? अहम् I? परम् supreme? योगम् Yoga? योगेश्वरात् from the Lord of Yoga? कृष्णात् from Krishna? साक्षात् directly? कथयतः declaring? स्वयम् Himself.Commentary Through the grace of Vyasa By obtaining the divine eye from him.Yoga This dialogue between Krishna and Arjuna? I have heard it direct from Him. This dialogue is called Yoga because it treats of Yoga and it leads to the attainment of union with the Lord.
18.75 And vyasa-prasadat, through the favour of Vyasa, by having received divine vision from him; aham, I; srutvan, heard; etat [The Commentator uses etam in the masculine gender, in place of etat in the text, because it refers to the masculine word samvada.] (should rather be etam), this; guhyam, secret dialogue, such as it is; concerning the param, supreme; Yogam, Yoga-or, this dialogue itself is the Yoga because it is meant for it-; krsnat, from Krsna; yogeswarat, from the Lord of yogas; kathayatah, while He was speaking; svayam, Himself; saksat, actually; not indirectly through others.
18.75 See Comment under 18.78
18.75 By the grace of Vyasa i.e., by the benefit of the divine sense of perception, granted by him, I have heard this supreme mystery called Yoga from Sri Krsna himself - Sri Krsna who is the treasure-house of knowledge, strength, sovereignty, valour, power and brilliance.
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur.
Now Sanjaya describes how he was able to describe the events on the battlefield many miles away. Vedavyasa gave him inner vision to see the whole battle in detail internally. By this inner vision which Vyasadeva bestowed, Sanjaya was able to see and hear Lord Krishna and every word He spoke in this divine discourse, this supreme doctrine, this ultra confidential treatise. As well Sanjaya could see by his inner vision all the events that transpired everywhere on the battlefield simultaneously. Sanjaya heard Srimad Bhagavad-Gita directly from the holy mouth of the Supreme Lord Krishna.
There is no commentary for this verse.
The phrase vyasa-prasadat means by the grace of Krishna Dvaipayana Vedavyasa the author of Vedanta Sutras, the Puranas, Mahaharata, etc. This grace gave Sanjaya celestial vision and clairaudience to directly see and hear all that transpired on the battlefield and thus he was able to recite verbatim the divine discourse spoken by Lord Krishna known as Srimad Bhagavad-Gita exactly as Lord Krishna originally revealed it.
The phrase vyasa-prasadat means by the grace of Krishna Dvaipayana Vedavyasa the author of Vedanta Sutras, the Puranas, Mahaharata, etc. This grace gave Sanjaya celestial vision and clairaudience to directly see and hear all that transpired on the battlefield and thus he was able to recite verbatim the divine discourse spoken by Lord Krishna known as Srimad Bhagavad-Gita exactly as Lord Krishna originally revealed it.
Vyaasaprasaadaacchrutavaan etadguhyamaham param; Yogam yogeshwaraat krishnaat saakshaat kathayatah swayam.
vyāsa-prasādāt—by the grace of Ved Vyas; śhrutavān—have heard; etat—this; guhyam—secret; aham—I; param—supreme; yogam—Yog; yoga-īśhvarāt—from the Lod of Yog; kṛiṣhṇāt—from Shree Krishna; sākṣhāt—directly; kathayataḥ—speaking; svayam—himself