तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।
।।18.77।।हे राजन् भगवान् श्रीकृष्णके उस अत्यन्त अद्भुत विराट्रूपको याद करकरके मेरेको बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा है और मैं बारबार हर्षित हो रहा हूँ।
।।18.77।। हे राजन श्री हरि के अति अद्भुत रूप को भी पुन पुन स्मरण करके मुझे महान् विस्मय होता है और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।।
।।18.77।। व्याख्या -- तच्च संस्मृत्य ৷৷. पुनः पुनः -- सञ्जयने पीछेके श्लोकमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादको तोअद्भुत बताया? पर यहाँ भगवान्के विराट्रूपकोअत्यन्त अद्भुत बताते हैं। इसका तात्पर्य है कि संवादको तो अब भी पढ़ सकते हैं? उसपर विचार कर सकते हैं? पर उस विराट्रूपके दर्शन अब नहीं हो सकते। अतः वह रूप अत्यन्त अद्भुत है।ग्यारहवें अध्यायके नवें श्लोकमें सञ्जयने भगवान्को महायोगेश्वरः कहा था। यहाँ विस्मयो मे महान् पदोंसे कहते हैं कि ऐसे महायोगेश्वर भगवान्के रूपको याद करनेसे महान् विस्मय होगा ही। दूसरी बात? अर्जुनको,तो भगवान्ने कृपासे द्रवित होकर विश्वरूप दिखाया? पर मेरेको तो व्यासजीकी कृपासे देखनेको मिल गयायद्यपि भगवान्ने रामावतारमें कौसल्या अम्बाको विराट्रूप दिखाया और कृष्णावतारमें यशोदा मैयाको तथा कौरवसभामें दुर्योधन आदिको विराट्रूप दिखाया तथापि वह रूप ऐसा अद्भुत नहीं था कि जिसकी दाढ़ोंमें बड़ेबड़े योद्धालोग फँसे हुए हैं और दोनों सेनाओँका महान् संहार हो रहा है। इस प्रकारके अत्यन्त अद्भुत रूपको याद करके सञ्जय कहते हैं कि राजन् यह सब जो व्यासजी महाराजकी कृपासे ही मेरेको देखनेको मिला है। नहीं तो ऐसा रूप मेरेजैसेको कहाँ देखनेको मिलता सम्बन्ध -- गीताके आरम्भमें धृतराष्ट्रका गूढ़ाभिसन्धिरूप प्रश्न था कि युद्धका परिणआम क्या होगा अर्थात् मेरे पुत्रोंकी विजय होगी या पाण्डुपुत्रोंकी आगेके श्लोकमें सञ्जय धृतराष्ट्रके उसी प्रश्नका उत्तर देते हैं।
।।18.77।। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दर्शाया था जिसका यहाँ संजय स्मरण कर रहा है। सहृदय व्यक्ति के लिए यह विश्वरूप इतना ही प्रभावकारी है? जितना कि गीता का ज्ञान एक बुद्धिमान व्यक्ति के लिए अविस्मरणीय है। वेदों में वर्णित विराट् पुरुष का दर्शन चौंका देने वाला है और गीता में? निसन्देह वह अति प्रभावशाली है। परन्तु कोई आवश्यक नहीं है कि यह महर्षि व्यास जी की केवल काव्यात्मक कल्पना ही हो दूसरे भी अनेक लोग हैं? जिनके अनुभव भी प्राय इसी के समान ही हैं।यदि गीता का तत्त्वज्ञान? मानव जीवन के गौरवशाली प्रयोजन को उद्घाटित करते हुए मनुष्य के बौद्धिक पक्ष को अनुप्राणित और हर्षित करता है? तो प्रत्येक नामरूप? अनुभव और परिस्थिति में मन्दस्मित वृन्दावनबिहारी भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन प्रेमरस से मदोन्मत्त भक्तों के हृदयों को जीवन प्रदायक हर्ष से आह्लादित कर देता है।मेरा ऐसा विचार है कि यदि संजय को स्वतन्त्रता दी जाती? तो उसने श्रीमद्भगवद्गीता पर एक सम्पूर्ण संजय गीता की रचना कर दी होती जब ज्ञान के मौन से बुद्धि हर्षित होती है? और प्रेम के आलिंगन में हृदय उन्मत्त होता है? तब मनुष्य अनुप्राणित कृतकृत्यता के भाव में आप्लावित हो जाता है।कृतकृत्यता के सन्तोष का वर्णन करने में भाषा एक दुर्बल माध्यम है इसलिए? अपनी मन की प्रबलतम भावना का और अधिक विस्तार किये बिना? संजय अपने दृढ़विश्वास को? गीता के इस अन्तिम एक श्लोक में? सारांशत घोषित करता है
18.77 O king, repeatedly recollecting that greatly extraordinary form of Hari, I am struck with wonder. And I rejoice again and again.
18.77 And, remembering again and again, also that most wonderful form of Hari, great is my wonder, O King; and I rejoice again and again.
18.77. O great king ! On recalling in the mind that extremely wonderful supreme form of Hari, I am amazed and I feel joyous again and again.
18.77 तत् that? च and? संस्मृत्य having remembered? संस्मृत्य having remembered? रूपम् the form? अत्यद्भुतम् the most wonderful? हरेः of Hari? विस्मयः wonder? मे my? महान् great? राजन् O King? हृष्यामि (I) rejoice? च and? पुनः again? पुनः again.Commentary Form The Cosmic Form. (Cf.XI)
18.77 And, rajan, O King; samsmrtya samsmrtya, repeatedly recollecting; tat, that; ati-adbhutam, greatly extraordinary; rupam, form, the Cosmic form; hareh, of Hari; mahan vismayah me, I am struck with great wonder. And hrsyami, I rejoice; punah punah, again and again.
18.77 See Comment under 18.78
18.77 Great amazement is caused in me, stirred by joy born of the repeated remembrance of that most marvellous and sovereign form of the Lord revealed to Arjuna and directly witnessed by me. I rejoice again and again. Why say more?
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur.
When Sanjaya reflects on the immaculate and amazing, wonderous and astounding visvarupa or universal form He is inundated by waves of ecstasy.
There is no commentary for this verse.
The phrase rupam atyadbhutam refers to the phenomenal visvarupa or universal form exhibited by Lord Krishna on the battlefield that was described in chapter 11 which Sanjaya had observed in astonishment by the power of his celestial vision. The more he remembered this amazing and astonishing visvarupa the more rapturous and ecstatic he became by its transcendental magnificence. Marvelling in wondrous ecstasy he is incessantly inundated by waves of rapture.
The phrase rupam atyadbhutam refers to the phenomenal visvarupa or universal form exhibited by Lord Krishna on the battlefield that was described in chapter 11 which Sanjaya had observed in astonishment by the power of his celestial vision. The more he remembered this amazing and astonishing visvarupa the more rapturous and ecstatic he became by its transcendental magnificence. Marvelling in wondrous ecstasy he is incessantly inundated by waves of rapture.
Taccha samsmritya samsmritya roopamatyadbhutam hareh; Vismayo me mahaan raajan hrishyaami cha punah punah.
tat—that; cha—and; sansmṛitya saṁsmṛitya—remembering repeatedly; rūpam—cosmic form; ati—most; adbhutam—wonderful; hareḥ—of Lord Krishna; vismayaḥ—astonishment; me—my; mahān—great; rājan—King; hṛiṣhyāmi—I am thrilled with joy; cha—and; punaḥ punaḥ—over and over again