यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।।
।।18.78।। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री? विजय? विभूति और ध्रुव नीति है? ऐसा मेरा मत है।।
।।18.78।। सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। अधिकांश व्याख्याकारों ने इस श्लोक पर पर्याप्त विचार नहीं किया है और इसकी उपयुक्त व्याख्या भी नहीं की है। प्रथम दृष्टि में इसका शाब्दिक अर्थ किसी भी बुद्धिमान पुरुष को प्राय निष्प्राण और शुष्क प्रतीत होगा। आखिर इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है? जिसे गीता के पाठक स्वीकार करे ही? ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। संजय का कथन यह है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं? वहाँ समृद्धि (श्री)? विजय? विस्तार और अचल नीति है? यह मेरा मत है।यदि संजय का उद्देश्य अपने व्यक्तिगत मत को हम पर थोपने का होता? और इस श्लोक में किसी विशेष सत्य का प्रतिपादन नहीं किया होता? तो? सार्वभौमिक शास्त्र के रूप में गीता को प्राप्त मान्यता समाप्त हो गयी होती।पूर्ण सिद्ध महर्षि व्यास इस प्रकार की त्रुटि कभी नहीं कर सकते थे? इस श्लोक का गम्भीर आशय है? जिसमें अकाट्य सत्य का प्रतिपादन किया गया है।योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में? श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान है? जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल हो रहा है। गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी विधि से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।धनुर्धारी पार्थ इस ग्रन्थ में? पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित? परिच्छिन्न? असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है? तो निसन्देह? वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता। परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है? तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं? जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है।इस प्रकार? योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है? तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती। संक्षेप में? गीता का यह मत है कि आध्यात्मिकता को अपने व्यावहारिक जीवन में जिया जा सकता है? और अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान जीवन संघर्ष में रत मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पदा है।आज समाज में सर्वत्र एक दुर्व्यवस्था और अशांति फैली हुई दृष्टिगोचर हो रही है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी? आज का मानव? जीवन की आक्रामक घटनाओं के समक्ष दीनहीन और असहाय हो गया है। इसका एकमात्र कारण यह है कि उसके हृदय का योगेश्वर उपेक्षित रहा है। मनुष्य की उन्नति का मार्ग है? लौकिक सार्मथ्य और आध्यात्मिक ज्ञान का सुखद मिलन। यही गीता में उपदिष्ट मार्ग है। मनुष्य के सुखद जीवन के विषय में श्री वेद व्यास जी की यही कल्पना है। केवल भौतिक उन्नति से जीवन में गति और सम्पत्ति तो आ सकती है? परन्तु मन में शांति नहीं। आन्तरिक शांति रहित समृद्धि एक निर्मम और घोर अनर्थ हैपरन्तु यह श्लोक दूसरे अतिरेक को भी स्वीकार नहीं करता है। कुरुक्षेत्र के समरांगण में युद्ध के लिए तत्पर धनुर्धारी अर्जुन के बिना योगेश्वर श्रीकृष्ण कुछ नहीं कर सकते थे। केवल आध्यात्मिकता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से हमारा भौतिक जीवन गतिशील और शक्तिशाली नहीं हो सकता। सम्पूर्ण गीता में व्याप्त समाञ्जस्य के इस सिद्धांत को मैंने यथाशक्ति एवं यथासंभव सर्वत्र स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मनुष्य के चिरस्थायी सुख का यही एक मार्ग है।संजय इसी मत की पुष्टि करते हुए कहता है कि जिस समाज या राष्ट्र के लोग संगठित होकर कार्य करने? विपत्तियों को सहने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं (धनुर्धारी अर्जुन)? और इसी के साथ ये लोग अपने हृदय में स्थित आत्मतत्त्व के प्रति जागरूक हैं (योगेश्वर श्रीकृष्ण)? तो ऐसे राष्ट्र में समृद्धि? विजय? भूति (विस्तार) और दृढ़ नीति होना स्वाभाविक और निश्चित है।समृद्धि? विजय? विस्तार और दृढ़ नीति का उल्लिखित क्रम भी तर्कसिद्ध है। विश्व इतिहास के समस्त विद्यार्थियों की इसकी युक्तियुक्तता स्पष्ट दिखाई देती है। अर्वाचीन काल और राजनीति के सन्दर्भ में? हम यह जानते हैं कि किसी एक विवेकपूर्ण दृढ़ राजनीति के अभाव में कोई भी सरकार राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा सकती। दृढ़ नीति के द्वारा ही राष्ट्र की प्रसुप्त क्षमताओं का विस्तार सम्भव होता है? और केवल तभी परस्पर सहयोग और बन्धुत्व की भावना से किसी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है। दृढ़ नीति और क्षमताओं के विस्तार के साथ विजय कोई दूर नहीं रह जाती। और इन तीनों की उपस्थिति में राष्ट्र का समृद्धशाली होना निश्चित ही है। आधुनिक राजनीति के सिद्धांतों में भी इससे अधिक स्वस्थ सिद्धांत हमें देखने को नहीं मिलता है।अत यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल संजय का ही व्यक्तिगत मत नहीं है? वरन् सभी आत्मसंयमी तत्त्वचिन्तकों का भी यह दृढ़ निश्चय है।गीता के अनेक व्याख्याकार? हमारा ध्यान गीता के प्रारम्भिक श्लोक के प्रथम शब्द धर्म तथा इस अन्तिम श्लोक के अन्तिम शब्द मम की ओर आकर्षित करते हैं। इन दो शब्दों के मध्य सात सौ श्लोकों के सनातन सौन्दर्य की यह माला धारण की गई है। अत इन व्याख्याकारों का यह मत है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय है मम धर्म अर्थात् मेरा धर्म। मम धर्म से तात्पर्य मनुष्य के तात्विक स्वरूप और उसके लौकिक कर्तव्यों से है। जब इन दोनों का गरिमामय समन्वय किसी एक पुरुष में हो जाता है? तब उसका जीवन आदर्श बन जाता है। इसलिए? गीता के अध्येताओं को चाहिए कि उनका जीवन आत्मज्ञान? प्रेमपूर्ण जनसेवा एवं त्याग के समन्वय से युक्त हो। यही आदर्श जीवन है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्याय।।इस प्रकार? श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय समाप्त होता है।इस अन्तिम अध्याय का शार्षक मोक्षसंन्यासयोग है। यह नाम हमें वेदान्त के अस्पर्शयोग का स्मरण कराता है? जिसकी परिभाषा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में दी है। जीवन के असत् मूल्यों का परित्याग करने का अर्थ ही अपने स्वत सिद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करना है। हममें स्थित पशु का त्याग (संन्यास) करना ही? हममें स्थित दिव्यतत्त्व का मोक्ष है।मेरे सद्गुरु स्वामी तपोवनजी महाराज को समर्पित।।