दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।18.8।।
।।18.8।।जो कुछ कर्म है? वह दुःखरूप ही है -- ऐसा समझकर कोई शारीरिक क्लेशके भयसे उसका त्याग कर दे? तो वह राजस त्याग करके भी त्यागके फलको नहीं पाता।
।।18.8।। जो मनुष्य? कर्म को दुख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है? वह पुरुष उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।।
।।18.8।। व्याख्या -- दुःखमित्येव यत्कर्म -- यज्ञ? दान आदि शास्त्रीय नियत कर्मोंको करनेमें केवल दुःख ही भोगना पड़ता है? और उनमें है ही क्या क्योंकि उन कर्मोंको करनेके लिये अनेक नियमोंमें बँधना पड़ता है और खर्चा भी करना पड़ता है -- इस प्रकार राजस पुरुषको उन कर्मोंमें केवल दुःखहीदुःख दीखता है। दुःख दीखनेका कारण यह है कि उनका परलोकपर? शास्त्रोंपर? शास्त्रविहित कर्मोंपर और उन कर्मोंके परिणामपर श्रद्धाविश्वास नहीं होता।,कायक्लेशभयात्त्यजेत् -- राजस मनुष्यको शास्त्रमर्यादा और लोकमर्यादाके अनुसार चलनेसे शरीरमें क्लेश अर्थात् परिश्रमका अनुभव होता है (टिप्पणी प0 876)। राजस मनुष्यको अपने वर्ण? आश्रम आदिके धर्मका पालन करनेमें और मातापिता? गुरु? मालिक आदिकी आज्ञाका पालन करनेमें पराधीनता और दुःखका अनुभव होता है तथा उनकी आज्ञा भङ्ग करके जैसी मरजी आये? वैसा करनेमें स्वाधीनता और सुखका अनुभव होता है। राजस मनुष्योंके विचार यह होते हैं कि गृहस्थमें आराम नहीं मिलता? स्त्रीपुत्र आदि हमारे अनुकूल नहीं हैं अथवा सब कुटुम्बी मर गये हैं? घरमें काम करनेके लिये कोई रहा नहीं? खुदको तकलीफ उठानी पड़ती है? इसलिये साधु बन जायँ तो आरामसे रहेंगे? रोटी? कपड़ा आदि सब चीजें मुफ्तमें मिल जायँगी? परिश्रम नहीं करना पड़ेगा कोई ऐसी सरकारी नौकरी मिल जाय? जिससे काम कम करना पड़े और रुपये आरामसे मिलते रहें? हम काम न करें तो भी उस नौकरीसे हमें कोई छुड़ा न सके? हम नौकरी छोड़ देंगे तो हमें पेंशन मिलती रहेगी? इत्यादि। ऐसे विचारोंके कारण उन्हें घरका कामधन्धा करना अच्छा नहीं लगता और वे उसका त्याग कर देते हैं।यहाँ शङ्का होती है कि ज्ञानप्राप्तिके साधनोंमें दुःख और दोषको बारबार देखनेकी बात कही है (गीता 13। 8) और यहाँ कर्मोंमें दुःख देखकर उनका त्याग करनेको राजस त्याग कहा है अर्थात् कर्मोंके त्यागका निषेध किया है -- इन दोनों बातोंमें परस्पर विरोध प्रतीत होता है। इसका समाधान है कि वास्तवमें इन दोनोंमें विरोध नहीं है? प्रत्युत इन दोनोंका विषय अलगअलग है। वहाँ (गीता 13। 8 में) भोगोंमें दुःख और दोषको देखनेकी बात है और यहाँ नियत कर्तव्यकर्मोंमें दुःखको देखनेकी बात है। इसलिये वहाँ भोगोंका त्याग करनेका विषय है और यहाँ कर्तव्यकर्मोंका त्याग करनेका विषय है। भोगोंका तो त्याग करना चाहिये? पर कर्तव्यकर्मोंका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कारण कि जिन भोगोंमें सुखबुद्धि और गुणबुद्धि हो रही है? उन भोगोंमें बारबार दुःख और दोषको देखनेसे भोगोंसे वैराग्य होगा? जिससे परमात्मतत्त्वकी प्राप्त होगी परन्तु नियत कर्तव्यकर्मोंमें दुःख देखकर उन कर्मोंका त्याग करनेसे सदा पराधीनता और दुःख भोगना पड़ेगा -- यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः (गीता 3। 9)। तात्पर्य यह हुआ कि भोगोंमें दुःख और दोष देखनेसे भोगासक्ति छूटेगी? जिससे कल्याण होगा और कर्तव्यमें दुःख देखनेसे कर्तव्य छूटेगा? जिससे पतन होगा।कर्तव्यकर्मोंका त्याग करनेमें तो राजस और तामस -- ये दो भेद होते हैं? पर परिणाम(आलस्य? प्रमाद? अतिनिद्रा आदि) में दोनों एक हो जाते हैं अर्थात् परिणाममें दोनों ही तामस हो जाते हैं? जिसका फल अधोगति होता है -- अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)।एक शङ्का यह भी हो सकती है कि सत्सङ्ग? भगवत्कथा? भक्तचरित्र सुननेसे किसीको वैराग्य हो जाय तो वह प्रभुको पानेके लिये आवश्यक कर्तव्यकर्मोंको भी छोड़ देता है और केवल भगवान्के भजनमें लग जाता है। इसलिये उसका वह कर्तव्यकर्मोंका त्याग राजस कहा जाना चाहिये ऐसी बात नहीं है। सांसारिक कर्मोंको छोड़कर जो भजनमें लग जाता है? उसका त्याग राजस या तामस नहीं हो सकता। कारण कि भगवान्को प्राप्त करना मनुष्यजन्मका ध्येय है अतः उस ध्येयकी सिद्धिके लिये कर्तव्यकर्मोंका त्याग करना वास्तवमें कर्तव्यका त्याग करना नहीं है? प्रत्युत असली कर्तव्यको करना है। उस असली कर्तव्यको करते हुए आलस्य? प्रमाद आदि दोष नहीं आ सकते क्योंकि उसकी रुचि भगवान्में रहती है। परन्तु राजस और तामस त्याग करनेवालोंमें आलस्य? प्रमाद आदि दोष आयेंगे ही क्योंकि उसकी रुचि भोगोंमें रहती है।स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् -- त्यागका फल शान्ति है। राजस मनुष्य त्याग करके भी त्यागके फल(शान्ति) को नहीं पाता। कारण कि उसने जो त्याग किया है? वह अपने सुखआरामके लिये ही किया है। ऐसा त्याग तो पशुपक्षी आदि भी करते हैं। अपने सुखआरामके लिये शुभकर्मोंका त्याग करनेसे राजस मनुष्यको शान्ति तो नहीं मिलती? पर शुभकर्मोंके त्यागका फल दण्डरूपसे जरूर भोगना पड़ता है।
।।18.8।। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्म को दुखदायक समझकर कायाक्लेश के भय से त्याग दे? तो उसका त्याग राजस कहा जायेगा। इसका अभिप्राय यह है कि यदि कर्तव्य कर्म दुखदायक और थकाने वाले न हों? तो रजोगुणी पुरुष उन्हें करने में तत्पर रहेगा? परन्तु कर्मशील पुरुष होकर जो अपनी व्यक्तिगत सुखसुविधाओं का त्याग नहीं कर सकता? उसे श्रेष्ठ और साहसी पुरुष कदापि नहीं कहा जा सकता। ऐसे कर्मों का कोई विशेष पुरस्कार नहीं मिलता। भगवान् तो कहते हैं? वह अपने त्याग का कोई फल प्राप्त नहीं करता है।वस्तुत अपने कर्तव्यों का पालन ही महानतम त्याग है? और विशेषत तब वह और भी अधिक श्रेष्ठ बन जाता है? जब मनुष्य को अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं का भी त्याग करना पड़ता है। स्वयं अर्जुन भी युद्ध करने में संकोच करके अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था। इस प्रकार? उसका त्याग राजस श्रेणी का ही कहा जा सकता था।वास्तविक त्याग हमें सदैव आत्माभिव्यक्ति के विशालतर क्षेत्र में पहुँचाता है? जहाँ हम श्रेष्ठतर दिव्य आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। त्याग के द्वारा ही एक कली खिलकर फूल बन जाती है? और वह फूल अपनी कोमल पंखुड़ियों और मनमोहक सुगन्ध का त्याग कर ही फल के सम्पन्न पद को प्राप्त होता हैं।
18.8 Whatever action one may relinish merely as being painful, from fear of physical suffering, he, having resorted to renunciation based on rajas, will surely not acire the fruits of renunciation.
18.8 He who abandons action on account of the fear of bodily trouble (because it is painful), does not obtain the merit of renunciation by doing such Rajasic renunciation.
18.8. He who would, out of fear of bodily exertion, relinish an action, just because it is painful-that person, having [thus] made relinishment, an act of the Rajas (Strand), would not at all gain the fruit of [that] relinishment.
18.8 दुःखम् (it is) painful? इति thus? एव even? यत् which? कर्म action? कायक्लेशभयात् from fear of bodily trouble? त्यजेत् abandons? सः he? कृत्वा performing? राजसम् Rajasic? त्यागम् abandonment? न not? एव even? त्यागफलम् the fruit of abandonment? लभेत् obtains.Commentary Phalam Fruit or reward Moksha or emancipation which is the reward of renunciation of all actions accompanied with wisdom.Determination and persistence are reired for the performance of religious duties and actions. One may begin action but may relinish it before it is completed on account of some difficulties or physical suffering. What then is Sattvic renunciation The Lord says --
18.8 Yat, whatever; karma, action; tyajet, one may relinish, eva, merely; iti, as being; kuhkham, painful; [As being impossible to accomplish.] kaya-klesa-bhayat, from fear of physical suffering, out of fear of bodily pain; sah, he; krtva, having resorted; tyagam, to renunciation; rajasam, based on rajas, arising from rajas; will eva, surely; na labhet (shuld rather be labhate), not acire; tyaga-phalam, fruits of renunciation, the result called Liberation, which follows from renunciation of all actions as a conseence of Illumination. Which, again, is the renunciation based on sattva?
18.8 See Comment under 18.11
18.8 Although actions constitute the indirect menas for release, yet they produce mental depression, since they can be done only by collecting materials involving painful effort and since they cause bodily strain on account of their reiring strenuous exertion. If, on account of such fear, one decides that the practice of knowledge alone should be tried for perfection in Yoga, and abandons actions like the great sacrifices applicable to ones station in life, he practises renunciation rooted in Rajas. Since that is not the meaning of the Sastras, one cannot win the fruit of renunciation in the form of the rise of knowledge. So it will be shown further one: That reason by which one erroneously knows, O Arjuna, is Rajasika (18.31). In fact, actions do not directly cause purity of the mind but indirectly by winning the grace of God.
Even though one knows that performance of nitya karma is necessary and to do it is praiseworthy and to neglect to do it is a sinful, if one rejects the action thinking it is useless trouble to the body, it is rajasa tyaga. One will not attain the desired result of tyaga, knowledge, by doing so.
If one renounces actions out of fear of repercussions or due to inconvenience or bodily discomfort and gives up prescribed Vedic activities and obligatory duties such renunciation is understood to be clearly situated in raja guna or mode of passion. For pain and discomfort and its opposites pleasure and comfort are products of raja guna. Lord Krishna confirms that such jivas or embodied beings will definitely not derive the benefits of such renunciation in the form of purifying their minds and sanctifying their existence which are prerequisites for moksa or liberation from material existence.
Unless one is deluded, they will reject all that they see as nothing but misery. But misery in itself is a mental projection based upon angle of perception. It is because normally what is spoken of as affecting the physical body is considered to be separate from the mind that misery is merely a mental condition arising from an unwelcome reception. This is the meaning Lord Krishna is conveying. The Shabda Nirnaya states: Aggravation should be known as an external phenomena having an external source; with proper discrimination this is apparent.
Undoubtedly prescribed Vedic activities are conducive to achieving moksa or liberation form material existence but as they also include penance and austerities they may cause discomfort, difficulty and even pain to accomplish. Sometimes fasting is required putting the physical body under duress causing fatigue which is agonising to the mind. Dreading such inconvenience one may limit themselves solely to the practice of astanga yoga with its numerous exercises, or pranayama maintaining strict breath control or sit for long hours in meditation to achieve moksa. All of these activities may have merit but if they keep one refraining from performing prescribed Vedic activities and obligatory duties then such abstention is known to be contrary to the conclusions of the Vedic scriptures and is situated in raja guna the mode of passion. The benefits that one thinks they are gaining by abstaining from prescribed Vedic activities to perform other works are factually never accrued. It is just a figment of the imagination like a mirage for without supplicating everything to the Supreme Lord Krishna through the medium of the bonfide spiritual master in disciplic succession it is not possible to receive His grace. This topic will be addressed further in verse 32.
Undoubtedly prescribed Vedic activities are conducive to achieving moksa or liberation form material existence but as they also include penance and austerities they may cause discomfort, difficulty and even pain to accomplish. Sometimes fasting is required putting the physical body under duress causing fatigue which is agonising to the mind. Dreading such inconvenience one may limit themselves solely to the practice of astanga yoga with its numerous exercises, or pranayama maintaining strict breath control or sit for long hours in meditation to achieve moksa. All of these activities may have merit but if they keep one refraining from performing prescribed Vedic activities and obligatory duties then such abstention is known to be contrary to the conclusions of the Vedic scriptures and is situated in raja guna the mode of passion. The benefits that one thinks they are gaining by abstaining from prescribed Vedic activities to perform other works are factually never accrued. It is just a figment of the imagination like a mirage for without supplicating everything to the Supreme Lord Krishna through the medium of the bonfide spiritual master in disciplic succession it is not possible to receive His grace. This topic will be addressed further in verse 32.
Duhkhamityeva yat karma kaayakleshabhayaat tyajet; Sa kritwaa raajasam tyaagam naiva tyaagaphalam labhet.
duḥkham—troublesome; iti—as; eva—indeed; yat—which; karma—duties; kāya—bodily; kleśha—discomfort; bhayāt—out of fear; tyajet—giving up; saḥ—they; kṛitvā—having done; rājasam—in the mode of passion; tyāgam—renunciation of desires for enjoying the fruits of actions; na—never; eva—certainly; tyāga—renunciation of desires for enjoying the fruits of actions; phalam—result; labhet—attain