दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।18.8।।
।।18.8।।जो कुछ कर्म है? वह दुःखरूप ही है -- ऐसा समझकर कोई शारीरिक क्लेशके भयसे उसका त्याग कर दे? तो वह राजस त्याग करके भी त्यागके फलको नहीं पाता।
।।18.8।। जो मनुष्य? कर्म को दुख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है? वह पुरुष उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।।