न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12।।
।।2.12।।किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे यह बात भी नहीं है और इसके बाद मैं तू और राजलोग ये सभी नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं है।
।।2.12।। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तुम नहीं थे अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।
।।2.12।। व्याख्या मात्र संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं शरीरी (सत्) और शरीर (असत्)। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी (शरीरमें रहनेवाले) को लेकर हो सकता है और न शरीरको लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरीका कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनोंके लिये पूर्वश्लोकमें जोअशोच्यान् पद आया है उसकी व्याख्या अब शरीरीकी नित्यता और शरीरकी अनित्यताके रूपमें करते हैं। न त्वेहाहं जातु ৷৷. जनाधिपाः लोगोंकी दृष्टिसे मैंने जबतक अवतार नहीं लिया था तबतक मैं इस रूपसे (कृष्णरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जबतक जन्म नहीं हुआ था तबतक तू भी इस रूपसे (अर्जुनरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओंका भी जबतक जन्म नहीं हुआ था तबतक ये भी इस रूपसे (राजारूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं थे। परन्तु मैं तू और ये राजालोग इस रूपसे प्रकट न होनेपर भी पहले नहीं थे ऐसी बात नहीं है।यहाँ मैं तू और ये राजालोग पहले थे ऐसा कहनेसे ही काम चल सकता था पर ऐसा न कहकर मैं तू और ये राजालोग पहले नहीं थे ऐसी बात नहीं ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि पहले नहीं थे ऐसी बात नहीं ऐसा कहनेसे पहले हम सब जरूर थे यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्यतत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। जातु कहनेका तात्पर्य है कि भूत भविष्य और वर्तमानकालमें तथा किसी भी देश परिस्थिति अवस्था घटना वस्तु आदिमें नित्यतत्त्वका किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं हो सकता।यहाँ अहम् पद देकर भगवान्ने एक विलक्षण बात कही है। आगे चौथे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि मेरे और तेरे बहुतसेजन्म हुए हैं पर उनको मैं जानता हूँ तू नहीं जानता। इस प्रकार भगवान्ने अपना ईश्वरपना प्रकट करके जीवोंसे अपनेको अलग बताया है। परन्तु यहाँ भगवान् जीवोंके साथ अपनी एकता बता रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि वहाँ (4। 5 में) भगवान्का आशय अपनी महत्ता विशेषता प्रकट करनेमें है और यहाँ भगवान्का आशय तात्त्विक दृष्टिसे नित्यतत्त्वको जाननेमें है। न चैव ৷৷. वयमतः परम् भविष्यमें शरीरोंकी ये अवस्थाएँ नहीं रहेंगी और एक दिन ये शरीर भी नहीं रहेंगे परन्तु ऐसी अवस्थामें भी हम सब नहीं रहेंगे यह बात नहीं है अर्थात् हम सब जरूर रहेंगे। कारण कि नित्यतत्त्वका कभी अभाव था नहीं और होगा भी नहीं।मैं तू और राजालोग हम सभी पहले नहीं थे यह बात भी नहीं है और आगे नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं है इस प्रकार भूत और भविष्यकी बात तो भगवान्ने कह दी पर वर्तमानकी बात भगवान्ने नहीं कही। इसका कारण यह है कि शरीरोंकी दृष्टिसे तो हम सब वर्तमानमें प्रत्यक्ष ही हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसलिये हम सब अभी नहीं हैं यह बात नहीं है ऐसा कहनेकी जरूरत नहीं है। अगर तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो हम सभी वर्तमानमें हैं और ये शरीर प्रतिक्षण बदल रहे हैं इस तरह शरीरोंसे अलगावका अनुभव हमें वर्तमानमें ही कर लेना चाहिये। तात्पर्य है कि जैसे भूत और भविष्यमें अपनी सत्ताका अभाव नहीं है ऐसे ही वर्तमानमें भी अपनी सत्ताका अभाव नहीं है इसका अनुभव करना चाहिये।जैसे प्रत्येक प्राणीको नींद खुलनेसे पहले भी यह अनुभव रहता है कि अभी हम हैं और नींद खुलनेपर भी यह अनुभव रहता है कि अभी हम हैं तो नींदकी अवस्थामें भी हम वैसेकेवैसे ही थे। केवल बाह्य जाननेकी सामग्रीका अभाव था हमारा अभाव नहीं था। ऐसे ही मैं तू और राजालोग हम सबके शरीर पहले भी नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे तथा अभी भी शरीर प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहे हैं परन्तु हमारी सत्ता पहले भी थी पीछे भी रहेगी और अभी भी वैसीकीवैसी ही है।हमारी सत्ता कालातीत तत्त्व है क्योंकि हम उस कालके भी ज्ञाता हैं अर्थात् भूत भविष्य और वर्तमान ये तीनों काल हमारे जाननेमें आते हैं। उस कालातीत तत्त्वको समझानेके लिये ही भगवान्ने यह श्लोक कहा है। विशेष बात मैं तू और राजालोग पहले नहीं थे यह बात नहीं और आगे नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि जब ये शरीर नहीं थे तब भी हम सब थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे तब भी हम रहेंगे अर्थात् ये सब शरीर तो हैं नाशवान् और हम सब हैं अविनाशी। ये शरीर पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे इससे शरीरोंकी अनित्यता सिद्ध हुई और हम सब पहले थे और आगे रहेंगे इससे सबके स्वरूपकी नित्यता सिद्ध हुई। इन दो बातोंसे यह एक सिद्धान्त सिद्ध होता है कि जो आदि और अन्तमें रहता है वह मध्यमें भी रहता है तथा जो आदि और अन्तमें नहीं रहता वह मध्यमें भी नहीं रहता।जो आदि और अन्तमें नहीं रहता वह मध्यमें कैसे नहीं रहता क्योंकि वह तो हमें दीखता है इसका उत्तर यह है कि जिस दृष्टिसे अर्थात् जिन मन बुद्धि और इन्द्रियोंसे दृश्यका अनुभव हो रहा है उन मनबुद्धइन्द्रियोंसहित वह दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा है। वे एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं। ऐसा होनेपर भी जब स्वयं दृश्यके साथ तादात्म्य कर लेता है तब वह द्रष्टा अर्थात् देखनेवाला बन जाता है। जब देखनेके साधन (मनबुद्धिइन्द्रियाँ) और दृश्य (मनबुद्धिइन्द्रियोंके विषय) ये सभी एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं तो देखनेवाला स्थायी कैसे सिद्ध होगा तात्पर्य है कि देखनेवालेकी संज्ञा तो दृश्य और दर्शनके सम्बन्धसे ही है दृश्य और दर्शन से सम्बन्ध न हो तो देखनेवालेकी कोई संज्ञा नहीं होती प्रत्युत उसका आधाररूप जो नित्यतत्व है वही रहा जाता है। उस नित्यतत्त्वको हम सबकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलयका आधार और सम्पूर्ण प्रतीतियोंका प्रकाशक कह सकते हैं। परन्तु ये आधार और प्रकाशक नाम भी आधेय और प्रकाश्यके सम्बन्धसे ही हैं। आधेय और प्रकाश्यके न रहनेपर भी उसकी सत्ता ज्योंकीत्यों ही है। उस सत्यतत्त्वकी तरफ जिसकी दृष्टि है उसको शोक कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। इसी दृष्टिसे मैं तू और राजालोग स्वरूपसे अशोच्य हैं।
।।2.12।। यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि देह को धारण करने वाली आत्मा एक महान तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ी है जो इस यात्रा के मध्य कुछ काल के लिये विभिन्न शरीरों को ग्रहण करते हुये उनके साथ तादात्म्य कर विशेष अनुभवों को प्राप्त करती है। श्रीकृष्ण अर्जुन और अन्य राजाओं का उन विशेष शरीरों में होना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। न वे शून्य से आये और न ही मृत्यु के बाद शून्य रूप हो जायेंगे। प्रामाणिक तात्त्विक विचार के द्वारा मनुष्य भूत वर्तमान और भविष्य की घटनाओं की सतत शृंखला समझ सकता है। आत्मा वहीं रहती हुई अनेक शरीरों को ग्रहण करके प्राप्त परिस्थितियों का अनुभव करती प्रतीत होती है।यही हिन्दू दर्शन का प्रसिद्ध पुनर्जन्म का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के सबसे बड़े विरोधियों ने अपने स्वयं के धर्मग्रन्थ का ही ठीक से अध्ययन नहीं किया प्रतीत होता है। स्वयं ईसा मसीह ने यदि प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था कि जान ही एलिजा था। ओरिजेन नामक विद्वान ईसाई पादरी ने स्पष्ट रूप से कहा है प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्व जन्म के पुण्यों के फलस्वरूप यह शरीर प्राप्त हुआ है।कोईभी ऐसा महान विचारक नहीं है जिसने पूर्व जन्म के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। गौतम बुद्ध सदैव अपने पूर्व जन्मों का सन्दर्भ दिया करते थे। वर्जिल और ओविड दोनों ने इस सिद्धान्त को स्वत प्रमाणित स्वीकार किया है। जोसेफस ने कहा है कि उसके समय यहूदियों में पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर पर्याप्त विश्वास था। सालोमन ने बुक आफ विज्डम में कहा है एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ अंगों के साथ जन्म लेना पूर्व जीवन में किये गये पुण्य कर्मों का फल है। और इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के इस कथन को कौन नहीं जानता जिसमें उन्होंने कहा कि मैं पत्थर से मरकर पौधा बना पौधे से मरकर पशु बना पशु से मरकर मैं मनुष्य बना फिर मरने से मैं क्यों डरूँ मरने से मुझमें कमी कब आयी मनुष्य से मरकर मैं देवदूत बनूँगाइसके बाद के काल में जर्मनी के विद्वान दार्शनिक गोथे फिख्टे शेलिंग और लेसिंग ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया। बीसवीं शताब्दी के ही ह्यूम स्पेन्सर और मेक्समूलर जैसे दार्शनिकों ने इसे विवाद रहित सिद्धान्त माना है। पश्चिम के प्रसिद्ध कवियों को भी कल्पना के स्वच्छाकाश में विचरण करते हुये अन्त प्रेरणा से इसी सिद्धान्त का अनुभव हुआ जिनमें ब्राउनिंग रोसेटी टेनिसन वर्डस्वर्थ आदि प्रमुख नाम हैं।पुनर्जन्म का सिद्धान्त तत्त्वचिन्तकों की कोई कोरी कल्पना नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब मनोविज्ञान के क्षेत्र में तेजी से हो रहे विकास के कारण जो तथ्य संग्रहीत किये जा रहें हैं उनके दबाव व प्रभाव से पश्चिमी राष्ट्रों को अपने धर्म ग्रन्थों का पुनर्लेखन करना पड़ेगा। बिना किसी दुराग्रह और दबाव के जीवन की यथार्थता को जो समझना चाहते हैं वे जगत् में दृष्टिगोचर विषमताओं के कारण चिन्तित होते हैं। इन सबको केवल संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता। यदि हम तर्क को स्वीकार करते हैं तो देह से भिन्न जीव के अस्तित्व को मानना ही पड़ता है। मोझार्ट का एक दर्शनीय दृष्टान्त है। उसने 4 वर्ष की आयु में वाद्यवृन्द की रचना की और पांचवें वर्ष में लोगों के सामने कार्यक्रम प्रस्तुत किया और सात वर्ष की अवस्था में संगीत नाटक की रचना की। भारत के शंकराचार्य आदि का जीवन देखें तो ज्ञात होता है कि बाल्यावस्था में ही उनको कितना उच्च ज्ञान था। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार न करने पर इन आश्चर्यजनक घटनाओं को संयोग मात्र कहकर कूड़ेदानी में फेंक देना पड़ेगापुनर्जन्म को सिद्ध करने वाली अनेक घटनायें देखी जाती हैं परन्तु उन्हें प्रमाण के रूप में संग्रहीत बहुत कम किया जाता है। जैसा कि मैंने कहा आधुनिक जगत् को इस महान स्वत प्रमाणित जीवन के नियम के सम्बन्ध में शोध करना अभी शेष है। अपरिपक्व विचार वाले व्यक्ति को प्रारम्भ में इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में संदेह हो सकता है। जब भगवान् ने कहा कि उन सबका नाश होने वाला नहीं है तब उनके कथन को जगत् का एक सामान्य व्यक्ति होने के नाते अर्जुन ठीक से ग्रहण नहीं कर पाया। उसने प्रश्नार्थक मुद्रा में श्रीकृष्ण की ओर देखकर अधिक स्पष्टीकरण की मांग की।इनका शोक क्यों नहीं करना चाहिये क्योंकि स्वरूप से ये सब नित्य हैं। कैसे ৷৷.भगवान् कहते हैं
2.12 But certainly (it is) not (a fact) that I did not exist at any time; nor you, nor these rulers of men. And surely it is not that we all shall cease to exist after this.
2.12 Nor at any time indeed was I not, nor thou, nor these rulers of men, nor verily shall we ever cease to be hereafter.
2.12. Never indeed at any time [in the past] did I not exist, nor you, nor these kings; and never shall we all not exist hereafter.
2.12 न not? तु indeed? एव also? अहम् I? जातु at any time? न not? आसम् was? न not? त्वम् thou? न not? इमे these? जनाधिपाः rulers of men? न not? च and? एव also? न not? भविष्यामः shall be? सर्वे all? वयम् we? अतः from this time? परम् after.Commentary -- Lord Krishna speaks here of the immortality of the Soul or the imperishable nature of the Self (Atman). The Soul exists in the three periods of time (past? present and future). Man continues to exist even after the death of the physical body. There is life beyond.
2.12 Why are they not to be grieved for? Because they are eternal. How? Na tu eva, but certainly it is not (a fact); that jatu, at any time; aham, I ; na asam, did not exist; on the contrary, I did exist. The idea is that when the bodies were born or died in the past, I existed eternally. [Here Ast. adds ghatadisu viyadiva, like Space in pot etc.-Tr.] Similarly, na tvam, nor is it that you did not exist; but you surely existed. Ca, and so also; na ime, nor is it that these ; jana-adhipah, rulers of men, did not exist. On the other hand, they did exist. And similarly, na eva, it is surely not that; vayam, we; sarve, all; na bhavisyamah, shall cease to exist; atah param, after this, even after the destruction of this body. On the contrary, we shall exist. The meaning is that even in all the three times (past, present and future) we are eternal in our nature as the Self. The plural number (in we) is used following the diversity of the bodies, but not in the sense of the multiplicity of the Self.
2.12 See Comment under 2.13
2.12 Indeed, I, the Lord of all, who is eternal, was never non-existent, but existed always. It is not that these selves like you, who are subject to My Lordship, did not exist; you have always existed. It is not that all of us, I and you, shall cease to be in the future, i.e., beyond the present time; we shall always exist. Even as no doubt can be entertainted that I, the Supreme Self and Lord of all, am eternal, likewise, you (Arjuna and all others) who are embodied selves, also should be considered eternal. The foregoing implies that the difference between the Lord, the sovereign over all, and the individual selves, as also the differences among the individual selves themselves, are real. This has been declared by the Lord Himself. For, different terms like I, you, these, all and we have been used by the Lord while explaining the truth of eternality in order to remove the misunderstanding of Arjuna who is deluded by ignorance. [Now follows a refutation of the Upadhi theory of Bhaskara and the Ignorance theory of the Advaitins which deny any ultimate difference between the Lord and the Jivas.] If we examine (Bhaskaras) theory of Upadhis (adjuncts), which states that the apparent differences among Jivas are due to adjuncts, it will have to be admitted that mention about differences is out of place when explaining the ultimate truth, because the theory holds that there are no such differences in reality. But that the differences mentioned by the Lord are natural, is taught by the Sruti also: Eternal among eternals, sentient among sentients, the one, who fulfils the desires of the many (Sve. U. VI. 13, Ka. U. V. 13). The meaning of the text is: Among the eternal sentient beings who are countless, He, who is the Supreme Spirit, fulfils the desires of all. As regards the theory of the Advaitins that the perception of difference is brought about by ignorance only and is not really real, the Supreme Being - whose vision must be true and who, therefore must have an immediate cognition of the differencelss and immutable and eternal consciousness as constituting the nature of the Atman in all authenticity, and who must thery be always free from all ignorance and its effects - cannot possibly perceive the so-called difference arising from ignornace. It is, therefore, unimaginable that He engages himself in activities such as teaching, which can proceed only from such a perception of differences arising from ignorance. The argument that the Supreme Being, though possessed of the understanding of nom-duality, can still have the awareness of such difference persisting even after sublation, just as a piece of cloth may have been burnt up and yet continues to have the appearance of cloth, and that such a continuance of the subltated does not cause bondage - such an argument is invalid in the light of another analogy of a similar kind, namely, the perception of the mirage, which, when understood to be what it is, does not make one endeavour to fetch water therefrom. In the same way even if the impression of difference negated by the non-dualistic illumination persists, it cannot impel one to activities such as teaching; for the object to whom the instruction is to be imparted is discovered to be unreal. The idea is that just as the discovery of the non-existence of water in a mirage stops all effort to get water from it, so also when all duality is sublated by illumination, no activity like teaching disciples etc., can take place. Nor can the Lord be conceived as having been previously ignorant and as attaining knowledge of unity through the scirptures, and as still being subject to the continuation of the stultified experiences. Such a position would stand in contradiction to the Sruti and the Smrti: He, who is all-comprehender (Mun. U., 1. 1. 9); all knower and supreme and natural power of varied types are spoken of in Srutis, such as knowledge, strength and action (Sve. U. 6. 8); I know, Arjuna, all beings of the past, present and future but no one knows Me, etc. (Gita 7. 26). And again, if the perception of difference and distinction are said to persist even after the unitary Self has been decisively understood, the estion will arise - to whom will the Lord and the succession of teachers of the tradition impart the knowledge in accordance with their understanding? The estion needs an answer. The idea is that knowledge of non-duality and perception of differences cannot co-exist. If it be replied by Advaitins holding the Bimba-Pratibimba (the original and reflections) theory that teachers give instructions to their own reflections in the form of disciples such as Arjuna, it would amount to an absurdity. For, no one who is not out of his senses would undertake to give any instruction to his own reflections in mediums such as a precious stone, the blade of a sword or a mirror, knowing, as he does, that they are non-different from himself. The theory of the persistence of the sublated is thus impossible to maintain, as the knowledge of the unitary self destroys the beginningless ignorance in which differences falling outside the self are supposed to be rooted. The persistence of the sublated does occur in cases such as the vision of the two moons, where the cause of the vision is the result of some real defect in eyesight, nor removable by the right understanding of the singleness of the moon. Even though the perception of the two moons may continue, the sublated cognition is rendered inconseential on the strength of strong contrary evidence. For, it will not lead to any activity appropriate for a real experience. But in the present context (i.e. the Advaitic), the conception of difference, whose object and cause are admittedly unreal, is cancelled by the knowledge of reality. So the persistence of the sublated can in no way happen. Thus, if the Supreme Lord and the present succession of preceptors have attained the understanding of (Non-dual) reality, their perception of difference and work such as teaching proceeding from that perception, are impossible. If, on the other hand, the perception of difference persists because of the continuance of ignorance and its cause, then these teachers are themselves ignorant of the truth, and they will be incapable of teaching the truth. Further, as the preceptor has attained the knowledge of the unitary self and thery the ignorance concerning Brahman and all the effects of such ignorance are thus annihilated, there is no purpose in instructing the disciple. It it is held that the preceptor and his knowledge are just in the imagination of the disciple, the disciple and his knowledge are similarly the product of the imagination of the preceptor, and as such can not put an end to the ignorance in estion. If it is maintained that the disciples knowledge destroys ignorance etc., because it contradicts the antecedent state of non-enlightenment, the same can be asserted of the preceptors knowledge. The futility of such teachings is obvious. Enough of these unsound doctrines which have all been refuted.
“Now, O friend, I will ask you a question. When you see the death of a person you love, you lament. But is the object of affection while the person is in this world the soul or the body? Sukadeva says that the soul is most dear in all living beings: sarvesam eva bhutanam nrpa svatmaiva vallabhah. (SB 10.14.50) If the soul is the object of affection, the soul should not be the object of lamentation, because it cannot suffer death, since both types of atma, the jiva and isvara are eternal.” Thus he speaks this verse. It is not that I, the paramatma, have ever not been in existence, but rather I have always existed. You also, a jivatma, have also ever existed. These kings also, jivatmas, have existed. Here the Lord shows that previous non-existence (prag abhava) is absent for all souls. And it is not that I, you, and all these kings (sarve vayam) will not exist in the future. Rather we will certainly exist. Here he shows that the soul is devoid of destruction (dhvamsa abhava). By this he concludes that since the paramatma and the jiva are both eternal, there is no cause for lamentation. The sruti says: nityo nityanam cetanas cetananam eko bahunam yo vidadhati kaman He is the chief eternal among all eternals. He is the chief conscious entity among all conscious entities. The one fulfills the needs of all others. Svetasvatara Upanisad 6.13
The underlying reason these relations or any relations should never be considered objects of grief is now being given by the Supreme Lord Krishna stating: never at any time did I the Supreme Lord not exist. Even though the Supreme Lords eternally pure conscious spiritual body which is associated with His divine pastimes appears to come into existence and appears to cease to exist; He is now confirming unconditionally that He is beginningless, existing always eternally and that never did He nor Arjuna, nor all the kings, nor any living entity not exist, but existed always being a micro part of Himself and even so it is not that the living entities shall not exist hereafter for they certainly will exist, their eternal soul having neither birth or death, they should not be grieved for.
Why is such a statement being put forth? Never was there a time when I was not. The Supreme Lord Krishna being eternal, such a statement is self evident; but it was only given to illustrate the point that even as the Supreme Lord is eternal as confirmed in the Vedic scriptures, even so, you and all these kings of the earth are also eternal. Now begins the summation. Lord Krishna informs Arjuna that due to fraternal feelings he was neglecting his own nature not to fulfil his duty according to righteousness. Is it because of the fear of losing his life or is it because of a lapse in consciousness? The physical body is in all respects subject to destruction so there is no purpose in being frightened, nor should there be any concern over the possibility of destruction of the individual consciousness because its nature is also eternal. In the Skanda Purana it is stated: There is no possibility of any destruction of the Ultimate Consciousness of the Supreme Lord the same similarly applies to the individual consciousness of all living entities. The Supreme Lord is eternal among the eternal, the Ultimate Consciousness among all individual consciousness, the One who so desiring manifests as the many. The connection and disconnection from the physical body is known as birth and death. Such is this reality for all living entities; but for the eternal and transcendental Supreme Lord this reality has no relevance and is in no way applicable. Since the Supreme Lord may appear to have the destruction of His transcendental body and the transmigration of His transcendental consciousness to those who are deluded; this point is being clarified by the word tu in the verse beginning na tu evaham meaning but I certainly never. Although such a doubt did not arise in the case of Arjuna, the resplendent Supreme Lord Krishna elucidates this point for the benefit and welfare of all the worlds. Even though this dialogue is actually spoken in confidence, through the medium of Mahabharata by the mercy of Krishna Dvaipayana Vyasa it is disseminated throughout the universe.
There is no commentary for this verse.
Next it might be questioned why do the wise not lament for the living or the dead? Lord Krishna here gives the reason to this establishing that the soul is eternal and not the physical body. The words na and eva meaning certainly never, destroys any conception of the physical body being able to ever be equated with the soul. As the Ultimate Soul among all individual souls it is not that the Supreme Lord did not exist before this time for He always existed. Similarly it is not that Arjuna and all the kings on the battlefield did not exist before this time, for they all certainly existed for the immortal soul transmigrates from body to body. By the authority of Bhagavad-Gita this verse spoken by the Supreme Lord Krishna refutes such statements as: and it is not again shall we all exist hereafter from the present time till the end to come, meaning that indeed we shall all exist. So this explains and puts into the proper perspective the dissolution of the material manifestation at the time of universal destruction. By negating the origin and destruction of the soul, its very existence is proved in the middle. In this way the souls existence is proven in all three being creation, maintenance and destruction. All souls are immortal being eternal and hence should never be grieved for.
Na twevaaham jaatu naasam na twam neme janaadhipaah; Na chaiva na bhavishyaamah sarve vayam atah param.
na—never; tu—however; eva—certainly; aham—I; jātu—at any time; na—nor; āsam—exist; na—nor; tvam—you; na—nor; ime—these; jana-adhipāḥ—kings; na—never; cha—also; eva—indeed; na bhaviṣhyāmaḥ—shall not exist; sarve vayam—all of us; ataḥ—from now; param—after