मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2.14।।
।।2.14।।हे कुन्तीनन्दन इन्द्रियोंके जो विषय (जड पदार्थ) हैं वे तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं। वे आनेजानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन उनको तुम सहन करो।
।।2.14।। हे कुन्तीपुत्र शीत और उष्ण और सुख दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है वे अनित्य हैं? इसलिए? हे भारत उनको तुम सहन करो।।
2.14।। व्याख्या यहाँ एक शंका होती है कि इन चौदहवेंपंद्रहवें श्लोकोंसे पहले (11 से 13) और आगे (16 से 30 तक) देही और देह इन दोनोंका ही प्रकरण है। फिर बीचमें मात्रास्पर्श के ये दो श्लोक (प्रकरणसे अलग) कैसे आये इसका समाधान यह है कि जैसे बारहवें श्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण जीवोंके नित्यस्वरूपको बतानेके लिये किसी कालमें मैं नहीं था ऐसी बात नहीं है ऐसा कहकर अपनेको उन्हींकी पंक्तिमें रख दिया ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थोंको अनित्य विनाशी परिवर्तनशील बतानेके लिये भगवान्ने यहाँ मात्रास्पर्श की बात कही है। तु नित्यत्तत्त्वसे देहादि अनित्य वस्तुओंको अलग बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है। मात्रास्पर्शाः जिनसे मापतौल होता है अर्थात् जिनसे ज्ञान होता है उन (ज्ञानके साधन) इन्द्रियों और अन्तःकरणका नाम मात्रा है। मात्रासे अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका संयोग होता है उनका नाम स्पर्श है। अतः इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका ज्ञान होता है ऐसे सृष्टिके मात्र पदार्थ मात्रास्पर्शाः हैं।यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे केवल पदार्थ ही क्यों लिये जायँ पदार्थोंका सम्बन्ध क्यों न लिया जाय अगर हम यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे केवल पदार्थोंका सम्बन्ध ही लें तो उस सम्बन्धको आगमापायिनः (आनेजानेवाला) नहीं कह सकते क्योंकि सम्बन्धकी स्वीकृति केवल अन्तःकरणमें न होकर स्वयंमें (अहम्में) होती है। स्वयं नित्य है इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है वह भी नित्यजैसी ही हो जाती है। स्वयं जबतक उस स्वीकृतिको नहीं छोड़ता तबतक वह स्वीकृति ज्योंकीत्यों बनी रहती है अर्थात् पदार्थोंका वियोग हो जानेपर भी पदार्थोंके न रहनेपर भी उन पदार्थोंका सम्बन्ध बना रहता है (टिप्पणी प0 52) । जैसे कोई स्त्री विधवा हो गयी है अर्थात् उसका पतिसे सदाके लिये वियोग हो गया है पर पचास वर्षके बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुककी स्त्री है तो उसके कान खड़े हो जाते हैं इससे सिद्ध हुआ कि सम्बन्धी(पति) के न रहनेपर भी उसके साथ माना हुआ सम्बन्ध सदा बना रहता है। इस दृष्टिसे उस सम्बन्धको आनेजानेवाला कहना बनता नहीं अतः यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे पदार्थोंका सम्बन्ध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं। शीतोष्णसुखदुःखदाः यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलताके वाचक हैं। अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय(त्वचा)के विषय हो जायँगे जो कि एकदेशीय हैं। अतः शीतका अर्थ अनुकूलता और उष्णका अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है।मात्र पदार्थ अनुकूलताप्रतिकूलताके द्वारा सुखदुःख देनेवाले हैं अर्थात् जिसको हम चाहते हैं ऐसी अनुकूल वस्तु व्यक्ति परिस्थिति घटना देश काल आदिके मिलनेसे सुख होता है और जिसको हम नहीं चाहते ऐसी प्रतिकूल वस्तु व्यक्ति परिस्थिति आदिके मिलनेसे दुःख होता है। यहाँ अनुकूलताप्रतिकूलता कारण हैं और सुखदुःख कार्य हैं। वास्तवमें देखा जाय तो इन पदार्थोंमें सुखदुःख देनेकी सामर्थ्य नहीं है। मनुष्य इनके साथ सम्बन्ध जोड़कर इनमें अनुकूलताप्रतिकूलताकी भावना कर लेता है जिससे ये पदार्थ सुखदुःख देनेवाले दीखते हैं। अतः भगवान्ने यहाँ सुखदुःखदाः कहा है। आगमापायिनः मात्र पदार्थ आदिअन्तवाले उत्पत्तिविनाशशील और आनेजानेवाले हैं। वे ठहरनेवाले नहीं है क्योंकि वे उत्पत्तिसे पहले नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे। इसलिये वे आगमापायी हैं। अनित्याः अगर कोई कहे कि वे उत्पत्तिसे पहले और विनाशके बाद भले ही न हों पर मध्यमें तो रहते ही होंगे तो भगवान् कहते हैं कि अनित्य होनेसे वे मध्यमें भी नहीं रहते। वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। इतनी तेजीसे बदलते हैं कि उनको उसी रूपमें दुबारा कोई देख ही नहीं सकता क्योंकि पहले क्षण वे जैसे थे दूसरे क्षण वे वैसे रहते ही नहीं। इसलिये भगवान्ने उनको अनित्याः कहा है।केवल वे पदार्थ ही अनित्य परिवर्तनशील नहीं हैं प्रत्युत जिनसे उन पदार्थोंका ज्ञान होता है वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी परिवर्तनशील हैं। उनके परिवर्तनको कैसे समझें जैसे दिनमें काम करतेकरते शामतक इन्द्रियों आदिमें थकावट आ जाती है और सबेरे तृप्तिपूर्वक नींद लेनेपर उनमें जो ताजगी आयी थी वह शामतक नहीं रहती। इसलिये पुनः नींद लेनी पड़ती है जिससे इन्द्रियोंकी थकावट मिटती है और ताजगीका अनुभव होता है। जैसे जाग्रत्अवस्थामें प्रतिक्षण थकावट आती रहती है ऐसे ही नींदमें प्रतिक्षण ताजगी आती रहती है। इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियों आदिमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है।यहाँ मात्र पदार्थोंको स्थूलरूपसे आगमापायिनः और सूक्ष्मरूपसे अनित्याः कहा गया है। इनको अनित्यसे भी सूक्ष्म बतानेके लिये आगे सोलहवें श्लोकमें इनको असत् कहेंगे और पहले जिस नित्यतत्त्वका वर्णन हुआ है उसको सत् कहेंगे। तांस्तितिक्षस्व ये जितने मात्रास्पर्श अर्थात् इन्द्रियोंके विषय हैं उनके सामने आनेपर यह अनुकूल है और यह प्रतिकूल है ऐसा ज्ञान होना दोषी नहीं है प्रत्युत उनको लेकर अन्तःकरणमें रागद्वेष हर्षशोक आदि विकार पैदा होना ही दोषी है। अतः अनुकूलताप्रतिकूलताका ज्ञान होनेपर भी रागद्वेषादि विकारोंको पैदा न होने देना अर्थात् मात्रास्पर्शोंमें निर्विकार रहना ही उनको सहना है। इस सहनेको ही भगवान्ने तितिक्षस्व कहा है।दूसरा भाव यह है कि शरीर इन्द्रियाँ अन्तःकरण आदिकी क्रियाओँका अवस्थाओंका आरम्भ और अन्त होता है तथा उनका भाव और अभाव होता है। वे क्रियाएँ अवस्थाएँ तुम्हारेमें नहीं हैं क्योंकि तुम उनको जाननेवाले हो उनसे अलग हो। तुम स्वयं ज्योंकेत्यों रहते हो। अतः उन क्रियाओंमें अवस्थाओंमें तुम निर्विकार रहो। इनमें निर्विकार रहना ही तितिक्षा है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें मात्रास्पर्शोंकी तितिक्षाकी बात कही। अब ऐसी तितिक्षासे क्या होगा इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।2.14।। विषय ग्रहण की वेदान्त की प्रक्रिया के अनुसार बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होता है। इन्द्रियाँ तो केवल उपकरण हैं जिनके द्वारा जीव विषय ग्रहण करता है उनको जानता है। जीव के बिना केवल इन्द्रियाँ विषयों का ज्ञान नहीं करा सकतीं।यह तो सर्वविदित है कि एक ही वस्तु दो भिन्न व्यक्तियों को भिन्न प्रकार का अनुभव दे सकती है। एक ही वस्तु के द्वारा जो दो भिन्न अनुभव होते हैं उसका कारण उन दो व्यक्तियों की मानसिक संरचना का अन्तर है।यह भी देखा गया है कि व्यक्ति को एक समय जो वस्तु अत्यन्त प्रिय थी वही जीवन की दूसरी अवस्था में अप्रिय हो जाती है क्योंकि जैसेजैसे समय व्यतीत होता जाता है उसके मन में भी परिवर्तन होता जाता है। संक्षेप में यह स्पष्ट है कि जब हमारा इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क होता है तभी किसी प्रकार का अनुभव भी संभव है।जो पुरुष यह समझ लेता है कि जगत् की वस्तुयें नित्य परिवर्तनशील हैं उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं वह पुरुष इन वस्तुओं के कारण स्वयं को कभी विचलित नहीं होने देगा। काल के प्रवाह में भविष्य की घटनायें वर्तमान का रूप लेती हैं और हमें विभिन्न अनुभवों को प्रदान करके निरन्तर भूतकाल में समाविष्ट हो जाती हैं। जगत् की कोई भी वस्तु एक क्षण के लिये भी विकृत हुये बिना नहीं रह सकती । यहाँ परिवर्तन ही एक अपरिवर्तनशील नियम है।इस नियम को समझ कर आदि और अन्त से युक्त वस्तुओं के होने या नहीं होने से बुद्धिमान पुरुष को शोक का कोई कारण नहीं रह जाता। शीत और उष्ण सफलता और असफलता सुख और दुख कोई भी नित्य नहीं हैं। जब वस्तुस्थिति ऐसी है तो प्रत्येक परिवर्तित परिस्थिति के कारण क्षुब्ध या चिन्तित होना अज्ञान का ही लक्षण है। जीवन में आने वाले कष्टों को चिन्तित हुये बिना शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिये। सभी प्रकार की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विवेकी पुरुष इस तथ्य को सदा ध्यान में रखता है कि यह भी बीत जायेगा।जगत् की वस्तुयें परिच्छिन्न हैं क्योंकि उनका आदि है और अन्त है। भगवान् कहते हैं कि ये वस्तुयें स्वभाव से ही अनित्य हैं। अनित्य शब्द से तात्पर्य यह है कि एक ही वस्तु किसी एक व्यक्ति के लिये ही कभी सुखदायक तो कभी दुखदायक हो सकती है।शीतउष्ण आदि को समान भाव से सहने वाले व्यक्ति को क्या लाभ मिलेगा सुनिये
2.14 But the contacts of the organs with the objects are the producers of cold and heat, happiness and sorrow. They have a beginning and an end, (and) are transient. Bear them, O descendant of Bharata.
2.14 The contacts of the senses with the objects, O son of Kunti, which cause heat and cold, pleasure and pain, have a beginning and an end; they are impermanent; endure them bravely, O Arjuna.
2.14. O son of Kunti ! But the touches with the matras cause the [feelings of] cold and heat, pleasure and pain; they are of the nature of coming and going and are transient. Forbear them, O Descendent of Bharata !
2.14 मात्रास्पर्शाः contacts of senses with objects? तु indeed? कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti)? शीतोष्णसुखदुःखदाः producers of cold and heat? pleasure and pain? आगमापायिनः with beginning and end? अनित्याः impermanent? तान् them? तितिक्षस्व bear (thou)? भारत O Bharata.Commentary -- Cold is pleasant at one time and painful at another. Heat is pleasant in winter but painful in summer. The same object that gives pleasure at one time gives pain at another time. So the sensecontacts that give rise to the sensations of heat and cold? pleasure and pain come and go. Therefore? they are impermanent in nature. The objects come in contact with the senses or the Indriyas? viz.? skin? ear? eye? nose? etc.? and the sensations are carried by the nerves to the mind which has its seat in the brain. It is the mind that feels pleasure and pain. One should try to bear patiently heat and cold? pleasure and pain and develop a balanced state of mind. (Cf.V.22)
2.14 In the case of a man who knows that the Self is eternal, although there is no possibility of delusion concerning the destruction of the Self, still delusion, as of ordinary people, caused by the experience of cold, heat, happiness and sorrow is noticed in him. Delusion arises from being deprived of happiness, and sorrow arises from contact with pain etc. apprehending this kind of a talk from Arjuna, the Lord said, But the contacts of the organs, etc. Matra-sparsah, the contacts of the organs with objects; are sita-usna-sukha-duhkha-dah, producers of cold, heat, happiness and sorrow. Matrah means those by which are marked off (measured up) sounds etc., i.e. the organs of hearing etc. The sparsah, contacts, of the organs with sound etc. are matra-sparsah. Or, sparsah means those which are contacted, i.e. objects, viz sound etc. Matra-sparsah, the organs and objects, are the producers of cold, heat, happiness and sorrow. Cold sometimes produces pleasure, and sometimes pain. Similarly the nature of heat, too, is unpredictable. On the other hand, happiness and sorrow have definite natures since they do not change. Hence they are mentioned separately from cold and heat. Since they, the organs, the contacts, etc., agamapayinah, have a beginning and an end, are by nature subject to origination and destruction; therefore, they are anityah, transient. Hence, titiksasva, bear; tan, them cold, heart, etc., i.e. do not be happy or sorry with regard to them.
2.14 Matra etc. But the unwise lament even over those passing situations of cold and heat, pleasure and pain that are created by those touches i.e., the contacts of the sense-objects-referable with the term matra - with the Soul through the door of the sense-organs; but the wise do not do so. Thus says [the Lord]. Or, the passage may be interpreted as : The touches (contacts) of these objects are with the matras, i.e., with the sense-organs, and not directly with the Supreme Self, Coming : birth. Going : destruction, Those situations that have these two you must forbear i.e., put up with.
2.14 As sound, touch, form, taste and smell with their bases, are the effects of subtle elements (Tanmatras), they are called Matras. The contact with these through the ear and other senses gives rise to feelings of pleasure and pain, in the form of heat and cold, softness and hardness. The words cold and heat illustrate other sensations too. Endure these with courage till you have discharged your duties as prescribed by the scriptures. The brave must endure them patiently, as they come and go. They are transient. When the Karmas, which cause bondage, are destroyed, this coming and going will end. The Lord now explains the purpose of this endurance:
“Yes this is indeed true. I have shown such indiscretion. My mind, producing nonsense, uselessly covered with lamentation and bewilderment, causes me suffering.” “It is not the one mind alone. The various functions of the mind, in the form of all the senses such as skin, experiencing their sense objects, produce this problem (anartha). One has the experience (sparsa) of the sense object (matra). In the hot season, cold water is pleasant, and in the cold season, it is painful. This happens in an uncontrolled manner, appearing and disappearing (agama apayinah). Therefore you must tolerate these experiences of the sense objects. Tolerating them is part of dharma prescribed in the scriptures. One should not give up the bath in the month of Magha because it gives pain, since it is prescribed in the scriptures. Following dharma gradually rids one of all low qualities. You must tolerate that sons give joy when they are born or earn money, and give sorrow when they die, by their temporary appearance and disappearance. One should not give up one’s scripturally prescribed duty to fight by that consideration. Not performing the prescribed duty eventually brings about great problems.”
It may be countered by Arjuna that he was not grieving for those who have died or are living but he was grieving for himself who would be miserable and forlorn by their loss. This is being perfectly answered by the Supreme Lord in this verse. That by which the objects of the senses are preceived is called matra or the functions of the senses which are hearing, seeing, smelling, touching and tasting. Their contact with their appropriate objects produces the sensations of hot and cold, loud and soft, sweet and sour and the like. But as they are solely dependent upon external objects and these objects are always coming and going, they are known to be temporary and thus should be tolerated. Just as contact with the different elements of weather such as snow and sunlight by their very nature give rise to cold and heat. Similarly the contact with the objects of the senses gives rise to pleasure and pain for all living entities and as theses contacts are transitory being temporary one being situated in spiritual knowledge should with fortitude tolerate them and not succumb to lamentation or exaltation because of them.
Even then, in the absence of self-realisation there is always sorrow. therefore it is clarified thus matra means sensuous experience and sparsas means contact with them thus matra-sparsas is the interaction of the senses with sense objects. These interactions are like hot and cold or pleasure and pain. Although only the body is what is actually experiencing these things, anyone with lack of sufficient knowledge who considers that they are their body automatically classifies the soul as the body as well and this misconception is factually the cause of all sorrow. The experience of sorrow does not affect the individual consciousness by itself. Why is this? Because it appears and disappears. If these contacts of the senses were factually within the individual consciousness then they would also exist in the state of deep sleep. Therefore since it is evident that contact with the senses is experienced only in the waking state and not in any other state; the summation is clear that only when there is contact with the physical body which includes the mind, is there an effect and this proves that the individual consciousness itself is not affected. Regarding the individual consciousness there is no contact of the sense objects except when it desires a relationship through the experience of senses. Because of their nature of appearing and disappearing like objects floating past on a river, they cannot be classified as eternal due to the fact they cease to exist during deep sleep. Hence they are said to be a- nitya or not eternal. Consequently when the individual consciousness is deluded into relating to itself as the body, pleasure and pain is experienced; but when the individual consciousness sees itself as separate from the physical body then the sorrow arising from the death of friends and relatives would not arise. Therefore it is by rejection of ones constitutional position as individual consciousness and accepting the position of considering oneself the body that the perception of pleasure, pain, happiness, sorrow and all the rest manifests. Now begins the summation. Because of their temporary nature Lord Krishna counsels that reactions arising in the body due to perceptions of the senses should be tolerated as they are temporary. Appearing and disappearing at random with no auspices to the indivdual consciousness.
There is no commentary for this verse.
Although the delusion of death is not appropriate regarding the misconception of the souls destruction when it is in fact eternal and immortal; still it could be submitted that loss of life would result in great unhappiness when preceptors, friends and relatives are slain in battle departing their physical bodies and from this the delusion that they are dead may arise. To dispel this doubt Lord Krishna replies: that sensory perception or the contact between the senses and their objects give rise to feelings of heat and cold, pleasure and pain. If they are soft and sweet they are pleasing but if they are bitter and harsh they are unpleasant. These things are all temporary, they are not eternal like the soul; but of a fleeting impermanent nature which comes and goes. Therefore one should just tolerate them with discrimination, patience and fortitude for they will disappear in due course of time. By addressing Arjuna as Bharata signifies the great heritage in his ancestry on his fathers side. To address him as Kaunteya signifies the great heritage in his ancestry on his mothers side. This suggests that such delusion is quite improper for Arjuna.
Maatraasparshaastu kaunteya sheetoshnasukhaduhkhadaah; Aagamaapaayino’nityaas taamstitikshaswa bhaarata.
mātrā-sparśhāḥ—contact of the senses with the sense objects; tu—indeed; kaunteya—Arjun, the son of Kunti; śhīta—winter; uṣhṇa—summer; sukha—happiness; duḥkha—distress; dāḥ—give; āgama—come; apāyinaḥ—go; anityāḥ—non-permanent; tān—them; titikṣhasva—tolerate; bhārata—descendant of the Bharat