यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।
।।2.15।।हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन सुखदुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथा नहीं पहुँचाते वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।
।।2.15।। हे पुरुषश्रेष्ठ दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये व्यथित नहीं कर सकते हैं वह अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी होता है।।