अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।
।।2.18।। इस नाशरहित अप्रमेय नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भारत तुम युद्ध करो।।
।।2.18।। आत्मा द्वारा धारण किये हुये भौतिक शरीर नाशवान् हैं जबकि आत्मा नित्य अविनाशी और अप्रमेय अर्थात् बुद्धि के द्वारा जानी नहीं जा सकती। यहाँ आत्मा नित्य और अविनाशी है ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा का न पूर्णत नाश होता है और न अंशत।नित्य आत्मतत्त्व को अज्ञेय कहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि वह अज्ञात है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हैं उस प्रकार इस आत्मा को नहीं जाना जा सकता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ मन और बुद्धि आदि हमारे ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं वे स्वत जड़ हैं और चैतन्य आत्मा की उपस्थिति में ही वे अन्य वस्तुओं को प्रकाशित कर सकते हैं। अब जिस चैतन्य के कारण इन्द्रियाँ आदि उपकरण विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं तब उसी चैतन्य को वे प्रत्यक्ष विषय के रूप में किस प्रकार जान सकते हैं यह सर्वथा असम्भव है और इसी दृष्टि से यहाँ आत्मा को अज्ञेय कहा गया है। आत्मा स्वत सिद्ध है।इसलिये हे भारत तुम युद्ध करो वास्तव में इस वाक्य के द्वारा सबको युद्ध करने का आदेश नहीं दिया गया है। जिस धर्म की आधारशिला क्षमा और उदार सहिष्णुता है उसी धर्म के शास्त्रीय ग्रन्थों में इस प्रकार का युद्ध का नारा संभव नहीं हो सकता। कोई टीकाकार यदि ऐसा अर्थ करता है तो वह अनुचित है और वह गीता को महाभारत के सन्दर्भ में नहीं पढ़ रहा है। हे भारत तुम युद्ध करो ये शब्द धर्म का आह्वान है प्रत्येक व्यक्ति के लिये जिससे वह पराजय की प्रवृत्ति को छोड़कर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति का निष्ठापूर्वक और साहस के साथ सामना करे। अधर्म का सक्रिय प्रतिकार यह गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य संदेश है।अब आगे भगवान् उपनिषदों के दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये उद्धृत करते हैं कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन संसार के मूल कारण मोह अविद्या की निवृत्ति करना है। भगवान् कहते हैं यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है कि भीष्म और द्रोण मेरे द्वारा मारे जायेंगे और मैं उनका हत्यारा बनूँगा৷৷. कैसे