वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
।।2.22।।मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।
2.22।। व्याख्या वासांसि जीर्णानि ৷৷. संयाति नवानि देही इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें सूत्ररूपसे कहा गया था कि देहान्तरकी प्राप्तिके विषयमें धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बातको उदाहरण देकर स्पष्टरूपसे कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ोंके परिवर्तनपर मनुष्यको शोक नहीं होता ऐसे ही शरीरोंके परिवर्तनपर भी शोक नहीं होना चाहिये।कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं पशुपक्षी नहीं अतः यहाँ कपड़े बदलनेके उदाहरणमें नरः पद दिया है। यह नरः पद मनुष्ययोनिका वाचक है और इसमें स्त्रीपुरुष बालकबालिकाएँ जवानबूढ़े आदि सभी आ जाते हैं।जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़ोंको धारण करता है ऐसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंको धारण करता है। पुराना शरीर छोड़नेको मरना कह देते हैं और नया शरीर धारण करनेको जन्मना कह देते हैं। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है तबतक यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर कर्मोंके अनुसार या अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार नयेनये शरीरोंको प्राप्त होता रहता है।यहाँ शरीराणि पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जबतक शरीरीको अपने वास्तविक स्वरूपका यथार्थ बोध नहीं होता तबतक यह शरीरी अनन्तकालतक शरीर धारण करता ही रहता है। आजतक इसने कितने शरीर धारण किये हैं इसकी गिनती भी सम्भव नहीं है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर शरीराणि पदमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है तथा सम्पूर्ण जीवोंका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ देही पद आया है।यहाँ श्लोकके पूर्वार्धमें तो जीर्ण कपड़ोंकी बात कही है और उत्तरार्धमें जीर्ण शरीरोंकी। जीर्ण कपड़ोंका दृष्टान्त शरीरोंमें कैसे लागू होगा कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानोंके भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ोंके जीर्ण शरीर मर जाते हों यह बात तो है नहीं इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होनेपर ही मरता है और आयु समाप्त होना ही शरीरका जीर्ण होना है (टिप्पणी प0 62) । शरीर चाहे बच्चोंका हो चाहे जवानोंका हो चाहे वृद्धोंका हो आयु समाप्त होनेपर वे सभी जीर्ण ही कहलायेंगे।इस श्लोकमें भगवान्ने यथा और तथा पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है वैसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार युवा और वृद्ध अवस्थाएँ अपनेआप होती हैं वैसे ही देहान्तरकी प्राप्ति अपनेआप होती है (2। 13) यहाँ तो यथा (जैसे) और तथा (वैसे) घट जाते हैं। परन्तु (इस श्लोकमें) पुराने कपड़ोंको छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो मनुष्यकी स्वतन्त्रता है पर पुराने शरीरोंको छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें देहीकी स्वतन्त्रता नहीं है। इसलिये यहाँ यथा और तथा कैसे घटेंगे इसका समाधान है कि यहाँ भगवान्का तात्पर्य स्वतन्त्रता परतन्त्रताकी बात कहनेमें नहीं हैं प्रत्युत शरीरके वियोगसे होनेवाले शोकको मिटानेमें है। जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपडे धारण करनेपर भी धारण करनेवाला (मनुष्य) वही रहता है वैसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चले जानेपर भी देही ज्योंकात्यों निर्लिप्तरूपसे रहता है अतः शोक करनेकी कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टिसे यह दृष्टान्त ठीक ही है।दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो सुख होता है पर पुराने शरीर छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें दुःख होता है। अतः यहाँ यथा और तथा कैसे घटेंगे इसका समाधान .यह है कि शरीरोंके मरनेका जो दुःख होता है वह मरनेसे नहीं होता प्रत्युत जीनेकी इच्छासे होता है। मैं जीता रहूँ ऐसी जीनेकी इच्छा भीतरमें रहती है और मरना पड़ता है तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीरके साथ एकात्मता कर लेता है तब वह शरीरके मरनेसे अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परन्तु जो शरीरके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता उसको मरनेमें दुःख नहीं होता प्रत्युत आनन्द होता है जैसे मनुष्य कपड़ोंके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता तो कपड़ोंको बदलनेमें उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है कि कपड़े अलग है और मैं अलग हूँ। परन्तु वही कपड़ोंका बदलना अगर छोटे बच्चेका किया जाय तो वह पुराने कपड़े उतारनेमें और नये कपड़े धारण करनेमें भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खतासे नासमझीसे होता है। इस मूर्खताको मिटानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ यथा और तथा पद देकर कपड़ोंका दृष्टान्त दिया है।यहाँ भगवान्ने कपड़ोंके धारण करनेमें तो गृह्णाति (धारण करता है) क्रिया दी पर शरीरोंके धारण करनेमें संयाति (जाता है) क्रिया दी ऐसा क्रियाभेद भगवान्ने क्यों किया लौकिक दृष्टिसे बेसमझीके कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ोंको धारण करता है और देहान्तरकी प्राप्तिमें देहीको उनउन देहोंमें जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टिको लेकर ही भगवान्ने क्रियाभेद किया है। विशेष बात गीतामें येन सर्वमिदं ततम् (2। 17) नित्यः सर्वगतः स्थाणुः (2। 24) आदि पदोंसे देहीको सर्वत्र व्याप्त नित्य सर्वगत और स्थिर स्वभाववाला बताया तथा संयाति नवानि देही (2। 22) शरीरं यदवाप्नोति (15। 8) आदि पदोंसे देहीको दूसरे शरीरोंमें जानेकी बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है सर्वत्र व्याप्त है उसका जानाआना कैसे क्योंकि जो जिस देशमें न हो उस देशमें चला जाय तो इसको जाना कहते हैं और जो दूसरे देशमें है वह इस देशमें आ जाय तो इसको आना कहते हैं। परन्तु देहीके विषयमें तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं इसका समाधान यह है कि जैसे किसीकी बाल्यावस्थासे युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि मैं जवान हो गया हूँ। परन्तु वास्तवमें वह स्वयं जवान नहीं हुआ है प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिये बाल्यावस्थामें जो वह था युवावस्थामें भी वह था युवावस्थामें भी वह वही है। परन्तु शरीरसे तादात्म्य माननेके कारण वह शरीरके परिवर्तनको अपनेमें आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आनाजाना वास्तवमें शरीरका धर्म है पर शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे वह अपनेमें आनाजाना मान लेता है। अतः वास्तवमें देहीका कहीं भी आनाजाना नहीं होता केवल शरीरोंके तादात्म्यके कारण उसका आनाजाना प्रतीत होता है।अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकालसे जो जन्ममरण चला आ रहा है उसमें कारण क्या है कर्मोंकी दृष्टिसे तो शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये जन्ममरण होता है ज्ञानकी दृष्टिसे अज्ञानके कारण जन्ममरण होता है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान्की विमुखताके कारण जन्ममरण होता है। इन तीनोंमें भी मुख्य कारण है कि भगवान्ने जीवको जो स्वतन्त्रता दी है उसका दुरुपयोग करनेसे ही जन्ममरण हो रहा है। अब वह जन्ममरण मिटे कैसे मिली हुई स्वतन्त्रताका सदुपयोग करनेसे जन्ममरण मिट जायगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेसे जन्ममरण हुआ है अतः अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे जन्ममरण मिट जायगा। अपनी जानकारीका अनादर करनेसे (टिप्पणी प0 63) जन्ममरण हुआ है अतः अपनी जानकारीका आदर करनेसे जन्ममरण मिट जायगा। भगवान्से विमुख होनेसे जन्ममरण हुआ है अतः भगवान्के सम्मुख होनेसे जन्ममरण मिट जायगा। सम्बन्ध पहले दृष्टान्तरूपसे शरीरीकी निर्विकारताका वर्णन करके अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसीका प्रकारान्तरसे वर्णन करते हैं।