आश्चर्यवत्पश्यति कश्िचदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्िचत्।।2.29।।
।।2.29।।कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।
।।2.29।। कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।
2.29।। व्याख्या आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम् इस देहीको कोई आश्चर्यकी तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने सुनने पढ़ने और जाननेमें आती हैं वैसे इस देहीका जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंतासे ( यह करके) जानते हैं अर्थात् वे जाननेका विषय होती हैं पर यह देही इन्द्रिय मनबुद्धिका विषय नहीं है। इसको तो स्वयंसे अपनेआपसे ही जाना जाता है। अपनेआपसे जो जानना होता है वह जानना लौकिक ज्ञानकी तरह नहीं होता प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है। पश्यति पदके दो अर्थ होते हैं नेत्रोंसे देखना और स्वयंके द्वारा स्वयंको जानना। यहाँ पश्यति पद स्वयंके द्वारा स्वयंको जाननेके विषयमें आया है (गीता 2। 55 6। 20 आदि)।जहाँ नेत्र आदि करणोंसे देखना (जानना) होता है वहाँ द्रष्टा (देखनेवाला) दृश्य (दीखनेवाली वस्तु) और दर्शन (देखनेकी शक्ति) यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटीसे ही सांसारिक देखनाजानना होता है। परन्तु स्वयंके ज्ञानमें यह त्रिपुटी नहीं होती है अर्थात् स्वयंका ज्ञान करणसापेक्ष नहीं है। स्वयंका ज्ञान तो स्वयंके द्वारा ही होता है अर्थात् वह ज्ञान करणनिरपेक्ष है। जैसे मैं हूँ ऐसा जो अपने होनेपन ज्ञान है इसमें किसी प्रमाणकी या किसी करणकी आवश्यकता नहीं है। इस अपने होनेपनको इदंता से अर्थात् दृश्यरूपसे नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपनेआपको ही होता है। यह ज्ञान इन्द्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिये स्वयंको (अपनेआपको) जानना आश्चर्यकी तरह होता है।जैसे अँधेरे कमरेमें हम किसी चीजको लाने जाते हैं तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिये और नेत्र भी चाहिये अर्थात् उस अँधेरे कमरेमें प्रकाशकी सहायतासे हम उस चीजको नेत्रोंसे देखेंगे तब उसको लायेंगे। परन्तु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपकको देखने जायँगे तो उस दीपकको देखनेके लिये हमें दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि दीपक स्वयंप्रकाश है। वह अपनेआपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूपको देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह देही (स्वरूप) स्वयंप्रकाश है। अतः यह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानता है।स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीन शरीर हैं। अन्नजलसे बना हुआ स्थूलशरीर है। यह स्थूलशरीर इन्द्रियोंका विषय है। इस स्थूलशरीरके भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियों पाँच कर्मेन्द्रियाँ पाँच प्राण मन और बुद्धि इन सत्रह तत्त्वोंसे बना हुआ सूक्ष्मशरीर है। यह सूक्ष्मशरीर इन्द्रियोंका विषय नहीं है प्रत्युत बुद्धिका विषय हैं। जो बुद्धिका भी विषय नहीं है जिसमें प्रकृति स्वभाव रहता है वह कारणशरीर है। इन तीनों शरीरोंपर विचार किया जाय तो यह स्थूलशरीर मेरा स्वरूप नहीं है क्योंकि यह प्रतिक्षण बदलता है और जाननेमें आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जाननेमें आता है अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारणशरीर प्रकृतिस्वरूप है पर देही (स्वरूप) प्रकृतिसे भी अतीत है अतः कारणशरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। यह देही जब प्रकृतिको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब यह अपनेआपसे अपनेआपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओंको जाननेकी अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है इसलिये इसको आश्चर्यवत् पश्यति कहा गया है।यहाँ भगवान्ने कहा है कि अपनेआपका अनुभव करनेवाला कोई एक ही होता है कश्चित् और आगे सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरेको तत्त्वसे जानता है कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः। इन पदोंसे ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्वको जानना बड़ा कठिन है दुर्लभ है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्वको जानना कठिन नहीं है दुर्लभ नहीं है प्रत्युत इस तत्त्वको सच्चे हृदयसे जाननेवालेकी इस तरफ लगनेवालेकी कमी है। यह कमी जाननेकी जिज्ञासा कम होनेके कारण ही है। आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देहीका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है क्योंकि यह तत्त्व वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है जो महापुरुष इस तत्त्वका वर्णन करता है वह तो शाखाचन्द्रन्यायकी तरह वाणीसे इसका केवल संकेत ही करता है जिससे सुननेवालेका इधर लक्ष्य हो जाय। अतः इसका वर्णन आश्चर्यकी तरह ही होता है।यहाँ जो अन्यः पद आया है उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जाननेवाला है उससे यह कहनेवाला अन्य है क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं वह वर्णन क्या करेगा अतः इस पदका तात्पर्य यह है कि जितने जाननेवाले हैं उनमें वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है। कारण कि सबकेसब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्वका विवेचन करके सुननेवालेको उस तत्त्वतक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओंका तर्कोंका पूरी तरह समाधान करनेकी क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करनेवालेकी विलक्षण क्षमताका द्योतन करनेके लिये ही यह अन्यः पद दिया गया है। आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति दूसरा कोई इस देहीको आश्चर्यकी तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुननेवाला शास्त्रोंकी लोकलोकान्तरोंकी जितनी बातें सुनता आया है उन सब बातोंसे इस देहीकी बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है वह सबकासब इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिका विषय है परन्तु यह देही इन्द्रियों आदिका विषय नहीं है प्रत्युत यह इन्द्रियों आदिके विषयको प्रकाशित करता है। अतः इस देहीकी विलक्षण बात वह आश्चर्यकी तरह सुनता है।यहाँ अन्यः पद देनेका तात्पर्य है कि जाननेवाला और कहनेवाला इन दोनोंसे सुननेवाला (तत्त्वका जिज्ञासु) अलग है। श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके (सुननेमात्रसे) इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुननेके बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा तब वह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा (टिप्पणी प0 69) ।यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोँ और गुरुजनोंसे सुनकर ज्ञान तो होता ही है फिर यहाँ सुन करके भी कोई नहीं जानता ऐसा कैसे कहा गया है इस विषयपर थोड़ी गम्भीरतासे विचार करके देखें कि शास्त्रोंपर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनोंपर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते किन्तु साधक स्वयं ही शास्त्र और गुरुपर श्रद्धाविश्वास करता है स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयंके सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता तो आजतक भगवान्के बहुत अवतार हुए हैं बड़ेबड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं उनके सामने कोई अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिये था। अर्थात् सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिये था पर ऐसा देखनेमें नहीं आता। श्रद्धाविश्वासपूर्वक सुननेसे स्वरूपमें स्थित होनेमें सहायता तो जरूर मिलती है पर स्वरूपमें स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य तत्त्वज्ञानको असम्भव बतानेमें नहीं प्रत्युत उसे करणनिरपेक्ष बतानेमें है। मनुष्य किसी भी रीतिसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे पर अन्तमें अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा। श्रवण मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं पर वास्तविक बोध करणनिरपेक्ष (अपनेआपसे) ही होता है।अपनेआपसे अपनेआपको जानना क्या होता है एक होता है करना एक होता है देखना और एक होता है जानना। करनेमें कर्मेन्द्रियोंकी देखनेमें ज्ञानेन्द्रियोंकी और जाननेमें स्वयंकी मुख्यता होती है।ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानना नहीं होता प्रत्युत देखना होता है जो कि व्यवहारमें उपयोगी है। स्वयंके द्वारा जो जानना होता है वह दो तरहका होता है एक तो शरीरसंसारके साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा परमात्माके साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दोंमें परिवर्तनशील नाशवान् पदार्थोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्माके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध है। ऐसा जाननेके बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभवका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है। सम्बन्ध अबतक देह और देहीका जो प्रकरण चल रहा था उसका आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।
।।2.29।। परमार्थ तत्त्व का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि वह अनन्त सर्वज्ञ और आनन्दस्वरूप है जबकि हमारा अपने ही विषय में अनुभव यह है कि हम परिच्छिन्न अज्ञानी और दुखी हैं। इस प्रकार जो हमारा वास्तविक आत्मस्वरूप है उससे सर्वथा भिन्न हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है। पारमार्थिक स्वरूप और प्रत्यक्ष अनुभव इन दोनों का अन्तर शीत और उष्ण प्रकाश और अंधकार के अन्तर के समान प्रतीत हो रहा है। क्या कारण है कि हम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते हैं अज्ञान अवस्था में जब हम सत्य को जानना चाहते हैं तब हमारी यह धारणा होती है कि वह सत्य एक ऐसा लक्ष्य है जो कहीं दूर स्थान में स्थित है जिसकी प्राप्ति किसी काल विशेष में ही होगी। परन्तु यदि हम भगवान के उपदेश पर विश्वास करें तो यह ज्ञात होगा कि हम उस सत्य से कभी भी दूर नहीं हैं क्योंकि वह तो हमारा स्वरूप ही है। एक र्मत्य जीव अमरत्व से उतना ही दूर है जितना कि स्वप्नद्रष्टा जाग्रत पुरुष से।जो मनुष्य अपने आत्मस्वरूप के वैभव के प्रति जागरूक है वही ईश्वर है और स्वस्वरूप के वैभव से विस्मृत ईश्वर ही मोहित जीव हैप्रथम तो इस जीव को शरीर मन और बुद्धि के परे स्थित आत्मा के अस्तित्व के विचार को ही समझना कठिन होता है और जब वह आत्मविकास की साधना का अभ्यास करके अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता है तब वह उस इन्द्रियातीत अनन्त आनन्दस्वरूप का अनुभव कर आश्चर्यचकित रह जाता है।आश्चर्य की भावना जब मन में उठती है तब उसमें यह सार्मथ्य होती है कि क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित व्यक्ति को और कुछ सूझता ही नहीं और वह उस क्षण उस भावना के साथ तदाकार हो जाता है। प्रयोग के तौर पर आप किसी व्यक्ति को अचानक आश्चर्यचकित कर दें और फिर उसके मुख के भावों को देखें। मुँह खुला हुआ कुछ न देखती हुई बाहर निकली हुई आँखें प्रत्येक शिरा तनाव से खिंची हुई वह व्यक्ति पुतले के समान क्षण भर के लिए अपने ही स्थान पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ खड़ा रह जाता है।इसी प्रकार आत्मानुभव का भी वह आनन्द है जब आत्मा ही आत्मा के साथ आत्मा में ही रमण कर रही होती है। और इसीलिए महान ऋषियों ने इस अनुभव को आश्चर्य शब्द से सूचित किया जब अहंकार जीव समाप्त होकर शुद्ध अनन्तस्वरूप मात्र रह जाता है।अज्ञानी पुरुष समझता है कि मैं शरीर हूँ जिसमें आत्मा का वास है परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि मैं आत्मा हूँ जिसने शरीर धारण किया है । जो साधक सम्यक् प्रकार से इस उपदेश का श्रवण करते हैं उनको आगे उसी पर मनन करने को उत्साहित किया जाता है और तत्पश्चात् जब तक यथार्थ में आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक उसके लिए ध्यान करने का उपदेश किया गया है। इस श्लोक से अज्ञानी पुरुष को भी श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस विरले प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिल सकती है। आत्मतत्त्व को विषय के रूप में नहीं जाना जा सकता। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि इसको सुनकर कोई भी व्यक्ति इसे नहीं जानता।अगले श्लोक में इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
2.29 Someone visualizes It as a wonder; and similarly indeed, someone else talks of It as a wonder; and someone else hears of It as a wonder. And some one else, indeed, does not realize It even after hearing about It.
2.29 One sees This (the Self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; another hears of It as a wonder; yet having heard, none understands It at all.
2.29. This someone observes as a wonder; similarly another speaks of This as a wonder; another hears This as a wonder; but even after hearing, not even one understands This.
2.29 आश्चर्यवत् as a wonder? पश्यति sees? कश्चित् sone one? एनम् this (Self)? आश्चर्यवत् as a wonder? वदति speaks of? तथा so? एव also? च and? अन्यः another? आश्चर्यवत् as a wonder? च and? एनम् this? अन्यः another? श्रृणोति hears? श्रुत्वा having heard? अपि even? एनम् this? वेद knows? न not? च and? एव also? कश्चित् any one.Commentary The verse may also be interpreted in this manner. He that sees? hears and speaks of the Self is a wonderful man. Such a man is very rare. He is one among many thousands. Thus the Self is very hard to understand.
2.29 This Self under discussion is inscrutable. Why should I blame you alone regarding a thing that is a source of delusion to all! How is this Self inscrutable? [It may be argued that the Self is the object of egoism. The answer is: Although the individualized Self is the object of egoism, the absolute Self is not.] This is being answered in, Someone visualizes It as a wonder, etc. Kascit, someone; pasyati, visualizes; enam, It, the Self; ascaryavat, as a wonder, as though It were a wonder a wonder is something not seen before, something strange, something seen all on a sudden; what is comparable to that is ascarya-vat; ca, and; tatha, similarly; eva, indeed; kascit, someone; anyah, else; vadati, talks of It as a wonder. And someone else srnoti, hears of It as a wonder. And someone, indeed, na, does not; veda, realize It; api, even; srutva, after hearing, seeing and speaking about It. Or, (the meaning is) he who sees the Self is like a wonder. He who speaks of It and the who hears of It is indeed rare among many thousands. Therefore, the idea is that the Self is difficult to understand. Now, in the course of concluding the topic under discussion, [viz the needlessness of sorrow and delusion,from the point of view of the nature of things.] He says, O descendant of Bharata, this embodied Self, etc.
2.39 Ascaryavat etc. But, if this Self is, in this manner, changeless (or destructionless), why is This not observed just as such by all ? It is so because, as if by a rare chance, only some one observes [This]. Even after listening, not even one understands This i.e., realises This.
2.29 Among innumerable beings, someone, who by great austerity has got rid of sins and has increased his merits, realises this self possessing the above mentioned nature, which is wonderful and distinct in kind from all things other than Itself. Such a one speaks of It to another. Thus, someone hears of It. And even after hearing of It, no one knows It exactly that It really exists. The term ca (and) implies that even amongst the seers, the speakers and hearers, one with authentic percepetion, authentic speech and authentic hearing, is a rarity.
“What an astonishing thing you are describing! And this is more astonishing: though I am being enlightened by you, my lack of discernment does not go away.” “Yes, the atma is truly astonishing.” The Lord then speaks this verse. The word enam in this verse stands for the soul and as well, the body, the combination of both, the whole world.
Why then is it seen that even men possessing intelligence lament in this world? It is simply due to ignorance about the true nature of the eternal soul. Having this theme in mind the abstruseness of the eternal soul is being given. One realising the eternal soul by the understanding the truth found within the Vedic scriptures by the words of the spiritual master sees the eternal soul as amazing. One realising the eternal soul as all pervading and of super natural eternity, knowledge and bliss is bewildered and overcome by its incomprehensibility as in the case of something beyond ones capacity to conceive. Another will talk of the eternal soul as amazing and another will hear of the eternal soul as amazing. Others still misguided by erroneous conceptions and overpowered by false doctrines fail to realise the eternal soul even after correctly hearing about it, indicating that even with the opportunity of learning about the eternal soul does not insure that one can understand it fully.
The eternal soul being a infinitesimal portion of the Supreme Lord is never destroyed even during the repetitious connection and disconnection with the physical body. As this is all in accordance with cosmic order there is certainly no reason to lament for this. The omnipotence of the Supreme Lord is amazing. Another meaning can be it is very rare. Therefore it is amazing when known. The eternal soul being an infinitesimal portion of the Supreme Lord is also amazing and the living entity who is aware of their own eternal soul is also very rare. Now begins the summation. What is there to be amazed at for the Supreme Lord to say: It is amazing? Verily what is amazing is the existence of the Supreme Lord Himself. Therefore the spiritually intelligent see the eternal soul as a marvellous expansion of the Supreme Lord and upon realisation of this reality are amazed. Like when the eye sees the expansive sky as being the form of the sky or perceives the expanse of the ocean as being the form of the ocean. In the Brahma Tarka it is stated thus: Amazing indeed is the Supreme Lord and it is not possible to find any other comparable to Him. Therefore wisdom about Him is very similar to perceiving Him. Not being amazed by the Supreme Lord which exists in some is a symptom of those who are spiritually unintelligent. This is indicated by the word kascit meaning some.
Among innumerable living entities rarely is one to be found who determinedly absolved themselves of all sinful reactions and has accumulated sufficient merit as to become self-realised enabling one to perceive the separate nature and the distinct aspect of the eternal soul within. Such a realised soul may attempt to give this understanding to another similarly disposed or one may make an attempt to understand it by hearing about it and so forth as examples in this verse. But only one who has acquired enough merit to realise the eternal soul within can possess the true understanding of the eternal soul and no other. The conjunctive particle ca used at the end of the verse denotes that even among the philosophers, speakers and seekers of knowledge about the eternal soul; the transference of bonafide information given and received concerning factual knowledge of what the eternal soul actually is, is very rare.
Among innumerable living entities rarely is one to be found who determinedly absolved themselves of all sinful reactions and has accumulated sufficient merit as to become self-realised enabling one to perceive the separate nature and the distinct aspect of the eternal soul within. Such a realised soul may attempt to give this understanding to another similarly disposed or one may make an attempt to understand it by hearing about it and so forth as examples in this verse. But only one who has acquired enough merit to realise the eternal soul within can possess the true understanding of the eternal soul and no other. The conjunctive particle ca used at the end of the verse denotes that even among the philosophers, speakers and seekers of knowledge about the eternal soul; the transference of bonafide information given and received concerning factual knowledge of what the eternal soul actually is, is very rare.
Aashcharyavat pashyati kashchid enamAashcharyavad vadati tathaiva chaanyah; Aashcharyavacchainam anyah shrinotiShrutwaapyenam veda na chaiva kashchit.
āśhcharya-vat—as amazing; paśhyati—see; kaśhchit—someone; enam—this soul; āśhcharya-vat—as amazing; vadati—speak of; tathā—thus; eva—indeed; cha—and; anyaḥ—other; āśhcharya-vat—similarly amazing; cha—also; enam—this soul; anyaḥ—others; śhṛiṇoti—hear; śhrutvā—having heard; api—even; enam—this soul; veda—understand; na—not; cha—and; eva—even; kaśhchit—some