आश्चर्यवत्पश्यति कश्िचदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्िचत्।।2.29।।
।।2.29।। कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।
।।2.29।। परमार्थ तत्त्व का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि वह अनन्त सर्वज्ञ और आनन्दस्वरूप है जबकि हमारा अपने ही विषय में अनुभव यह है कि हम परिच्छिन्न अज्ञानी और दुखी हैं। इस प्रकार जो हमारा वास्तविक आत्मस्वरूप है उससे सर्वथा भिन्न हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है। पारमार्थिक स्वरूप और प्रत्यक्ष अनुभव इन दोनों का अन्तर शीत और उष्ण प्रकाश और अंधकार के अन्तर के समान प्रतीत हो रहा है। क्या कारण है कि हम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते हैं अज्ञान अवस्था में जब हम सत्य को जानना चाहते हैं तब हमारी यह धारणा होती है कि वह सत्य एक ऐसा लक्ष्य है जो कहीं दूर स्थान में स्थित है जिसकी प्राप्ति किसी काल विशेष में ही होगी। परन्तु यदि हम भगवान के उपदेश पर विश्वास करें तो यह ज्ञात होगा कि हम उस सत्य से कभी भी दूर नहीं हैं क्योंकि वह तो हमारा स्वरूप ही है। एक र्मत्य जीव अमरत्व से उतना ही दूर है जितना कि स्वप्नद्रष्टा जाग्रत पुरुष से।जो मनुष्य अपने आत्मस्वरूप के वैभव के प्रति जागरूक है वही ईश्वर है और स्वस्वरूप के वैभव से विस्मृत ईश्वर ही मोहित जीव हैप्रथम तो इस जीव को शरीर मन और बुद्धि के परे स्थित आत्मा के अस्तित्व के विचार को ही समझना कठिन होता है और जब वह आत्मविकास की साधना का अभ्यास करके अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता है तब वह उस इन्द्रियातीत अनन्त आनन्दस्वरूप का अनुभव कर आश्चर्यचकित रह जाता है।आश्चर्य की भावना जब मन में उठती है तब उसमें यह सार्मथ्य होती है कि क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित व्यक्ति को और कुछ सूझता ही नहीं और वह उस क्षण उस भावना के साथ तदाकार हो जाता है। प्रयोग के तौर पर आप किसी व्यक्ति को अचानक आश्चर्यचकित कर दें और फिर उसके मुख के भावों को देखें। मुँह खुला हुआ कुछ न देखती हुई बाहर निकली हुई आँखें प्रत्येक शिरा तनाव से खिंची हुई वह व्यक्ति पुतले के समान क्षण भर के लिए अपने ही स्थान पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ खड़ा रह जाता है।इसी प्रकार आत्मानुभव का भी वह आनन्द है जब आत्मा ही आत्मा के साथ आत्मा में ही रमण कर रही होती है। और इसीलिए महान ऋषियों ने इस अनुभव को आश्चर्य शब्द से सूचित किया जब अहंकार जीव समाप्त होकर शुद्ध अनन्तस्वरूप मात्र रह जाता है।अज्ञानी पुरुष समझता है कि मैं शरीर हूँ जिसमें आत्मा का वास है परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि मैं आत्मा हूँ जिसने शरीर धारण किया है । जो साधक सम्यक् प्रकार से इस उपदेश का श्रवण करते हैं उनको आगे उसी पर मनन करने को उत्साहित किया जाता है और तत्पश्चात् जब तक यथार्थ में आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक उसके लिए ध्यान करने का उपदेश किया गया है। इस श्लोक से अज्ञानी पुरुष को भी श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस विरले प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिल सकती है। आत्मतत्त्व को विषय के रूप में नहीं जाना जा सकता। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि इसको सुनकर कोई भी व्यक्ति इसे नहीं जानता।अगले श्लोक में इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं