क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3।।
।।2.3।।हे पृथानन्दन अर्जुन इस नपुंसकताको मत प्राप्त हो क्योंकि तुम्हारेमें यह उचित नहीं है। हे परंतप हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके युद्धके लिये खड़े हो जाओ।
।।2.3।। हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है? हे परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ।।
2.3।। व्याख्या पार्थ (टिप्पणी प0 39.1) माता पृथा(कुन्ती) के सन्देशकी याद दिलाकर अर्जुनके अन्तःकरणमें क्षत्रियोचित वीरताका भाव जाग्रत् करनेके लिये भगवान् अर्जुनको पार्थ नामसे सम्बोधित करते हैं (टिप्पणी प0 39.2) । तात्पर्य है कि अपनेमें कायरता लाकर तुम्हें माताकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये। क्लैब्यं मा स्म गमः अर्जुन कायरताके कारण युद्ध करनेमें अधर्म और युद्ध न करनेमें धर्म मान रहे थे। अतः अर्जुनको चेतानेके लिये भगवान् कहते हैं कि युद्ध न करना धर्मकी बात नहीं है यह तो नपुंसकता (हिजड़ापन) है। इसलिये तुम इस नपुंसकताको छोड़ दो। नैतत्त्वय्युपपद्यते तुम्हारेमें यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिये था क्योंकि तुम कुन्तीजैसी वीर क्षत्राणी माताके पुत्र हो और स्वयं भी शूरवीर हो। तात्पर्य है कि जन्मसे और अपनी प्रकृतिसे भी यह नपुंसकता तुम्हारेमें सर्वथा अनुचित है। परंतप तुम स्वयं परंतप हो अर्थात् शत्रुओंको तपानेवाले भगानेवाले हो तो क्या तुम इस समय युद्धसे विमुख होकर अपने शत्रुओंको हर्षित करोगे क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ यहाँ क्षुद्रम् पदके दो अर्थ होते हैं (1) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छताको प्राप्त करानेवाली है अर्थात् मुक्ति स्वर्ग अथवा कीर्तिको देनेवाली नहीं है। अगर तुम इस तुच्छताका त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे और (2) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छ चीज है। तुम्हारेजैसे शूरवीरके लिये ऐसी तुच्छ चीजका त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है।तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप नहीं करना चाहता तो यह तुम्हारे हृदयकी दुर्बलता है कमजोरी है। इसका त्याग करके तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ अर्थात् अपने प्राप्त कर्तव्यका पालन करो।यहाँ अर्जुनके सामने युद्धरूप कर्तव्यकर्म है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि उठो खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्यका पालन करो। भगवान्के मनमें अर्जुनके कर्तव्यके विषयमें जरासा भी सन्देह नहीं है। वे जानते हैं कि सभी दृष्टियोंसे अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अतः अर्जुनकी थोथी युक्तियोंकी परवाह न करके उनको अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारीके साथ युद्ध करनेके लिये खड़े हो जाओ। सम्बन्ध पहले अध्यायमें अर्जुनने युद्ध न करनेके विषयमें बहुतसी युक्तियाँ (दलीलें) दी थीं। उन युक्तियोंका कुछ भी आदर न करके भगवान्ने एकाएक अर्जुनको कायरतारूप दोषके लिये जोरसे फटकारा और युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा दे दी। इस बातको लेकर अर्जुन भी अपनी युक्तियोंका समाधान न पाकर एकाएक उत्तेजित होकर बोल उठे
।।2.3।। भगवान् श्रीकृष्ण जो अब तक मौन खड़े थे अब प्रभावशाली शब्दों द्वारा शोकाकुल अर्जुन की कटु र्भत्सना करते हैं। उनके प्रत्येक शब्द का आघात कृपाण के समान तीक्ष्ण है जो किसी भी व्यक्ति को परास्त करने के लिये पर्याप्त है। क्लैब्य का अर्थ है नपुंसकता। यहाँ इस शब्द से तात्पर्य मन की उस स्थिति से है जिसमें व्यक्ति न तो एक पुरुष के समान परिस्थिति का सामना करने का साहस अपने में कर पाता है और न ही एक कोमल भावों वाली लज्जालु स्त्री के समान निराश होकर बैठा रह सकता है। आजकल की भाषा में किसी व्यक्ति के इस प्रकार के व्यवहार में उसके मित्र आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह आदमी स्त्री है या पुरुष अर्जुन की भी स्थित राजदरबार के उन नपुंसक व्यक्तियों के समान हो रही थी जो देखने में पुरुष जैसे होकर स्त्री वेष धारण करते थे। पुरुष के समान बोलते लेकिन मन में स्त्री जैसे भावुक होते शरीर से समर्थ किन्तु मन से दुर्बल रहते थे।अब तक श्रीकृष्ण मौन थे उनका गम्भीर मौन अर्थपूर्ण था। अर्जुन मोहावस्था में युद्ध न करने का निर्णय लेकर अपने पक्ष में अनेक तर्क भी प्रस्तुत कर रहा था। श्रीकृष्ण जानते थे कि पहले ऐसी स्थिति में अर्जुन का विरोध करना व्यर्थ था। परन्तु अब उसके नेत्रों में अश्रु देखकर वे समझ गये कि उसका संभ्रम अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है।भक्ति परम्परा में यह सही ही विश्वास किया जाता है कि जब तक हम अपने को बुद्धिमान समझकर तर्क करते रहते हैं तब तक भगवान् पूर्णतया मौन धारण किये हुए अनसुना करते रहते हैं किन्तु ज्ञान के अहंकार को त्यागकर और भक्ति भाव से विह्वल होकर अश्रुपूरित नेत्रों से उनकी शरण में चले जाने पर करुणासागर भगवान् अपने भक्त को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर मार्गदर्शन करने के लिये उसके पास बिना बुलाये तुरन्त पहुँचते हैं। इस भावनापूर्ण स्थिति में जीव को ईश्वर के मार्गदर्शन और सहायता की आवश्यकता होती है।ईश्वर की कृपा को प्राप्त कर भक्त का अन्तकरण निर्मल होकर आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है जो स्वप्रकाशस्वरूप चैतन्य के साक्षात् अनुभव के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इस स्वीकृत तथ्य के अनुसार तथा जो भक्तों का भी अनुभव है गीता में हम देखते हैं कि जैसे ही भगवान ने बोलना प्रारम्भ किया वैसे ही विद्युत के समान उनके प्रज्ज्वलित शब्द अर्जुन के मन पर पड़े जिससे वह अपनी गलत धारणाओं के कारण अत्यन्त लज्जित हुआ।सहानुभूति के कोमल शब्द अर्जुन के निराश मन को उत्साहित नहीं कर सकते थे। अत व्यंग्य के अम्ल में डुबोये हुये तीक्ष्ण बाण के समान वचनों से अर्जुन को उत्तेजित करते हुये अंत में भगवान् कहते हैं उठो और कर्म करो।
2.3 O Partha, yield not to unmanliness. This does not befit you. O scorcher of foes, arise, giving up the petty weakness of the heart.
2.3 Yield not to impotence, O Arjuna, son of Pritha. It does not befit thee. Cast off this mean weakness of the heart! Stand up, O scorcher of the foes!
2.3. Stoop not to unmanliness, O son of Kunti ! It does not befit you. Shirking off the petty weakness of heart, arise, O scorcher of the foes !
2.3 क्लैब्यम् impotence? मा स्म गमः do not get? पार्थ O Partha? न not? एतत् this? त्वयि in thee? उपपद्यते is fitting? क्षुद्रम् mean? हृदयदौर्बल्यम् weakness of the heart? त्यक्त्वा having abandoned? उत्तिष्ठ stand up? परन्तप O scorcher of the foes.No commentary.
2.3 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
2.3 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
2.1 - 2.3 Sanjaya said - Lord said When Arjuna thus sat, the Lord, opposing his action, said: What is the reason for your misplaced grief? Arise for battle, abandoning this grief, which has arisen in a critical situation, which can come only in men of wrong understanding, which is an obstacle for reaching heaven, which does not confer fame on you, which is very mean, and which is caused by faint-heartedness.
“Do not become cowardly (klaibyam), impotent. O Partha, you are the son of Prtha, but in spite of that you have acted like this. Do not yield to this. This weakness should be checked even in the inferior ksatriyas, but in you, my friend, it is not proper at all.” “Do not worry about my lack of bravery; do not think I am a coward. One must consider the precepts of dharma in regards to Bhisma, Drona and other elders, and also consider the aspect of compassion in regard to the sons of Dhrtarastra, who, being weaker than I, being afflicted by my weapons, are about to die.” “This is not discretion based on dharma and mercy, but bewilderment and lamentation, indications of a weak mind (ksudram hrdaya daurbalyam). Therefore give up this weakness of mind and rise up. O conqueror of enemies (parantapa), you, who afflict enemies, fight!”
The Supreme Lord Krishna instructs Arjuna to yield not to unmanliness, or be overcome by cowardice because it is not befitting a ksatriya and unworthy of him and that Arjuna should immediately cast off this unseemly, contemptible faint heartedness and prepare for battle.
There is no commentary for this verse.
In this verse the Supreme Lord Krishna depreciates Arjunas ill timed despondency and advises him to discard it and prepare himself to fight for lamentation has no place on the battlefield, is not approved by the wise, is not conducive to heavenly pursuits, is inglorious and ignoble and appears due to weakness of heart. Arjuna still unable to apply the Supreme Lord Krishnas sagacious counselling due to being afflicted by sentiments of friendship and pity and due to the horror of possibly committing actions which may be contrary to righteousness. Arjuna being unclear as to what is right and what is wrong sought guidance thus.
In this verse the Supreme Lord Krishna depreciates Arjunas ill timed despondency and advises him to discard it and prepare himself to fight for lamentation has no place on the battlefield, is not approved by the wise, is not conducive to heavenly pursuits, is inglorious and ignoble and appears due to weakness of heart. Arjuna still unable to apply the Supreme Lord Krishnas sagacious counselling due to being afflicted by sentiments of friendship and pity and due to the horror of possibly committing actions which may be contrary to righteousness. Arjuna being unclear as to what is right and what is wrong sought guidance thus.
Klaibyam maa sma gamah paartha naitat twayyupapadyate; Kshudram hridaya daurbalyam tyaktwottishtha parantapa.
klaibyam—unmanliness; mā sma—do not; gamaḥ—yield to; pārtha—Arjun, the son of Pritha; na—not; etat—this; tvayi—to you; upapadyate—befitting; kṣhudram—petty; hṛidaya—heart; daurbalyam—weakness; tyaktvā—giving up; uttiṣhṭha—arise; param-tapa—conqueror of enemies