यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।
।।2.46।। सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है? आत्मज्ञानी ब्राह्मण का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है।।
।।2.46।। जलराशि का जो सुन्दर दृष्टान्त यहाँ दिया गया है वह सन्दर्भ को देखते हुये अत्यन्त समीचीन है। भीषण गर्मियों के दिनों में सरिताओं के सूख जाने पर समीप के किसी कुएँ से ही जल लेने लोगों को जाना पड़ता है। यद्यपि पैरों के नीचे पृथ्वी के गर्भ में जल स्रोत रहता है परन्तु वह उपयोग के लिये उपलब्ध नहीं होता। वर्षा ऋतु में सर्वत्र नदियों में बाढ़ आने पर छोटेछोटे जलाशय उसी में समा जाते हैं और तब उनका अलग से न अस्तित्व होता है और न प्रयोजन।उसी प्रकार जब तक मनुष्य अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता नहीं तब तक मोहवश विषयों में ही वह सुख खोजा करता है। उस समय वेद अर्थात् कर्मकाण्ड उसे अत्यन्त उपयोगी प्रतीत होते हैं क्योंकि उसमें स्वर्गादि सुख पाने के अनेक साधन बताये गये हैं। परन्तु जब एक जिज्ञासु साधक उपनिषद् प्रतिपादित आनन्दस्वरूप आत्मा का अपरोक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब उसे कर्मकान्ड में कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। उपभोगजन्य सभी छोटेछोटे सुख उसके आनन्दस्वरूप में ही समाविष्ट होते हैं।इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि व्यास जी द्वारा यहाँ वेदों के कर्मकाण्ड की निन्दा की गयी है। जो अविवेकी लोग साधन को ही साध्य समझ लेते हैं और अनन्त की प्राप्ति की आशा अनित्य कर्मों के द्वारा करते हैं गोपाल कृष्ण उनको इस प्रकार से प्रताड़ित कर रहे हैं फलासक्ति न रखकर किये गये कर्मों से मनुष्य का व्यक्तित्व विकसित होता है और ऐसे शुद्ध अन्तकरण वाले मनुष्य को अनन्त असीम आत्मतत्त्व का अनुभव सहज सुलभ हो जाता है। तत्पश्चात् उसे अनित्य सुखों का कोई आकर्षण नहीं रह जाता।वेद हमें अपने ही शुद्ध चैतन्यस्वरूप का बोध कराते हैं। जब तक अविद्यायुक्त अहंकार का अस्तित्व है तब तक वेदाध्ययन की आवश्यकता अपरिहार्य है। आत्मबोध के होने पर उस ज्ञानी पुरुष के कारण वेदों का भी प्रामाण्य सिद्ध होता है। गणित की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने पर उस व्यक्ति को पहाड़े रटने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि उसके पूर्ण ज्ञान में इस प्रारम्भिक ज्ञान का समावेश रहता है। जहाँ तक तुम्हारा सम्बन्ध है